राजनैतिकशिक्षा

संविधान के मूल ढाँचे की व्यर्थ बहस

-शंकर शरण-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

डॉ. अंबेदकर ने कहा था: ‘‘राज्य के विभिन्न निकायों के काम सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान एक औजार मात्र है। यह औजार इस काम के लिए नहीं कि कुछ खास सदस्य या खास दल ही सत्ता में बिठाए जाएं। राज्य की क्या नीति हो, समाज की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कैसे संगठित हो – यह सब समय और परिस्थिति अनुसार लोगों को स्वयं तय करना है।..यह पंक्तियाँ साफ दर्शाती हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं के अनुसार न तो संविधान ‘धर्म-ग्रंथ’ है, न उस का कोई ‘मूल ढाँचा’ है, न उस में कुछ भी अपरिवर्तनीय है।

किसी भवन के बनने और उपयोग के दशकों बाद उस की नींव में हेर-फेर कर परिवर्तित नींव को ‘मूल नींव’ कहना सीधे-सीधे गलतबयानी होगी। सच यह होगा कि नींव बदली गई, और चूँकि एक बार बदली गई तो आगे भी बदली जा सकती है। किन्तु पिछले पचास साल से भारतीय संविधान के मूल ढाँचे, बेसिक स्ट्रक्चर, की सारी कठदलीली ऐसी ही है। बल्कि अधिक लज्जास्पद है!

इस लज्जा को महसूस करने के लिए उस की पहली पंक्ति खुद पढ़ कर देखिए जो ‘उद्देशिका’ या प्रस्तावना कहलाती है। इसे 1976 ई. में भारी संशोधित कर दिया गया। वस्तुतः उस से भारत का राजनीतिक चरित्र ही छलपूर्वक बदल डाला गया! मूल संविधान ने भारत को जो विशेषण दिया था, वह था ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’। पच्चीस वर्ष बाद उसे बदल कर ‘समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ कर दिया गया। लज्जा की बात यह कि उसी पंक्ति में तारीख पुरानी रहने दी गई कि ‘‘आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’

इस प्रकार, मूल संविधान बनने के पच्चीस वर्ष बाद उस की उद्देश्यिका में दो घोर मतवादी ठप्पे लगाकर भी उसे 26 नवंबर 1949 से हुआ बताया जा रहा है। यह छल दूरगामी मार करता रहा है। एक बार इस लेखक ने पाया कि सुप्रीम कोर्ट के एक प्रखर वकील भी अनजान थे कि ‘सेक्यूलर, सोशलिस्ट’ शब्द मूल संविधान में नहीं थे! तब देश के लाखों-लाख छात्रों, शिक्षकों की स्थिति अनुमान कर लें। उस बदगुमानी का कारण यही था कि उद्देशिका का चरित्र परिवर्तित करके भी उस पंक्ति की तारीख अपरिवर्तित रखी गई। किसी भी कागजात में ऐसा करना साफ जालसाजी कहा जाएगा। जैसे, किसी व्यक्ति के मरने के बरसों बाद उस की वसीयत में बदलाव कर उस की संपत्ति, जो उस ने एक व्यक्ति को दी थी, उसे तीन व्यक्तियों को दे दिया जाए, और कहा जाए कि यही मूल वसीयत है! उस में वही तारीख और हस्ताक्षर रहने दिया जाए।

तब इसे क्या कहें कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित नेहरू, डॉ. अंबेदकर, आदि संविधान निर्माताओं ने जिस उद्देशिका को ‘लोकतांत्रिक’ कहा था, उस में ‘सोशलिस्ट सेक्यूलर’ जोड़ कर भी उसे नेहरू, अंबेदकर का ही ‘मूल ढाँचा’ बताया जाए? इस से हमारी दो-तीन पीढियाँ भ्रमित की गई और अभी भी हो रही हैं। इस में हमारे सर्वोच्च नेताओं और न्यायाधीशों, दोनों की जिम्मेदारी एक समान है।

सर्वप्रथम, संविधान के ‘मूल ढाँचे’ की शब्दावली ही बाद की, सुप्रीम कोर्ट की देन है। वह भी 1973 ई. के बाद से। मूल संविधान में ऐसी कुछ न लिखा था, न कोई संकेत था। बल्कि संविधान को ही कोई जड़सूत्र महत्ता तक नहीं दी गई थी। स्वयं डॉ. अंबेदकर ने उसे एक कामकाजी ‘औजार मात्र’ कहा था। यानी, औजार का प्रयोग करने वाला समाज उस से स्वतंत्र और ऊपर संप्रभु थे। तदनुरूप, संविधान के अनुच्छेद 368 ने संसद को पूर्ण अधिकार दिया था कि वह संविधान के किसी भी अनुच्छेद को बदल, जोड़, या उसे बिलकुल भी हटा सकता है। केवल कुछ विशेष बदलावों के लिए अलग-अलग प्रक्रियाएं जरूर बताई थीं। किन्तु संविधान में कैसा भी बदलाव किया जा सकता था।

इसलिए, यह ‘बेसिक स्ट्रकचर’ वाली सारी बात बाद की है, और घोर अंतर्विरोधी भी। पहला अंतर्विरोध,कि मूल संविधान की उद्देशिका ही जब 1976 ई. में संशोधित हो गई, तो मूल ढाँचा तभी बदल गया। पच्चीस वर्ष बाद जोड़ी चीज को ‘मूल’ कहना अनर्गल ही है। दूसरा अंतर्विरोध, सुप्रीम कोर्ट ने भी 1973 ई. में ही कहा था कि संविधान का मूल ढाँचा नहीं बदला जा सकता। तब, उस के दो साल बाद, 1976 ई. में संविधान की उद्देशिका बदलना उस तर्क से ही अवैध हो जाता है! किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने उसे मजे से मान्यता दे रखी है। तब कथित ‘मूल’ ढाँचा 1973 ई. वाले संविधान को कहें, या 1976 ई. वाले को?

वस्तुतः संविधान की उद्देशिका बदलना अत्यंत गंभीर बात थी। ध्यान रहे, ‘उद्देशिका’ को संविधान के पहले पन्ने पर, एकदम अलग स्थान दे, किसी अनुच्छेद संख्या के बिना, प्राथमिक और अकेली घोषणा के रूप में रखना ही उस की अद्वितीय स्थिति दर्शाता है। वह कोई आडंबर नहीं, अपितु मूल सिद्धांत था। उस का महत्व देश-विदेश में नोट किया गया था। प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीति-शास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी’ (1951) में भूमिका लिखने के बदले भारतीय संविधान की वह उद्देशिका ही उद्धृत की थी, यह कह कर कि उस में सब कुछ है, और वे उस से अच्छा कुछ नहीं लिख सकते! यहाँ भी राजनीति शास्त्र और कानून की उच्च-कक्षाओं में उद्देशिका को संविधान की ‘आत्मा’, ‘कुंजी’, आदि कहा जाता था। सुप्रीम कोर्ट ने भी 1960 ई. में उद्देशिका को ‘दिशा-निर्देशक’ बताया जिस से संविधान की अन्य धाराओं को ठीक-ठीक समझ सकते हैं।

अब, सोच कर देखिए कि जिस मूल उद्देशिका को दो दशकों से अधिक समय तक संविधान की ‘कुंजी’, ‘आत्मा’, ‘कंपास’, आदि कहा गया! तब कैसी फूहड़ दलील है कि उसे पचीस वर्ष बाद, जबरन (वह इंदिरा जी के आपातकाल में हुआ था, जब विपक्ष जेल में और मीडिया पर सेंसरशिप थी!), छल-पूर्वक, तोड़-मरोड कर दो संकीर्ण राजनीतिक नारे थोप देने के बाद भी उसी को मूल ढाँचा कहा जाए!

जैसे भी देखें, मूल ढाँचे की पूरी बहस भ्रामक है। पहले तो, ‘मूल ढाँचा’ जैसी कोई धारणा हमारे संविधान निर्माताओं की न थी। बल्कि, उन्होंने इन दोनों मतवादों, सोशलिस्ट और सेक्यूलर, को सोच-विचार कर खारिज किया था। संविधान सभा में 15 नवंबर 1948 को प्रो. खुशाल टी. शाह (बिहार) ने भारत के संविधान में ‘सेक्यूलर, फेडेरल, सोशलिस्ट’ जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। उसे खारिज करते हुए डॉ. अंबेदकर ने उसी दिन संविधान सभा में जो कहा था, वह दो कारणों से महत्वपूर्ण है। पहला, उन्होंने संविधान को एक मामूली कामकाजी औजार मात्र बताया, जिसे कोई जड़सूत्र-सा महत्व नहीं देना चाहिए। दूसरा, भारतीय समाज को किसी मतवाद से बाँध कर रखना लोकतंत्र को ‘नष्ट करना’ होगा। यहाँ डॉ. अंबेदकर के अपने शब्दों में पूरी बात सुनने योग्य है। उन्होंने कहा था: ‘‘राज्य के विभिन्न निकायों के काम सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान एक औजार मात्र है। यह औजार इस काम के लिए नहीं कि कुछ खास सदस्य या खास दल ही सत्ता में बिठाए जाएं।

राज्य की क्या नीति हो, समाज की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कैसे संगठित हो – यह सब समय और परिस्थिति अनुसार लोगों को स्वयं तय करना है। इसे संविधान में निर्धारित करके नहीं रख दिया जा सकता। उस से तो लोकतंत्र ही पूर्णतः नष्ट हो जाता है। यदि आप संविधान में लिख दें कि राज्य का सामाजिक संगठन एक खास रूप में ही रहेगा तब, मेरी समझ से, आप लोगों से निर्णय लेने की स्वतंत्रता छीन रहे हैं कि वे कैसी व्यवस्था में रहना चाहते है। यह संभव है कि आज बहुमत लोग पूँजीवादी के बदले समाजवादी सामाजिक संगठन को बेहतर मानें। किन्तु यह भी बिलकुल संभव है कि विचारशील लोग आज या कल की समाजवादी व्यवस्था के स्थान पर कुछ बेहतर व्यवस्था का संधान करें। इसलिए मैं नहीं देखता कि संविधान किसी खास रूप में ही बाँध कर लोगों को क्यों रखे, और लोगों को स्वयं अपने लिए वह तय करने के लिए क्यों न छोड़े।’’ यह पंक्तियाँ साफ दर्शाती हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं के अनुसार न तो संविधान ‘धर्म-ग्रंथ’ है, न उस का कोई ‘मूल ढाँचा’ है, न उस में कुछ भी अपरिवर्तनीय है। अतः आज के हमारे नेता और न्यायाधीश, दोनों अपनी राय को नाहक उन पर, और देश पर थोप रहे हैं।

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