राजनैतिकशिक्षा

कांग्रेस बनाम वाम मोर्चा

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

इतिहास में झांकें, तो कांग्रेस और खासकर सीपीएम दोनों दुश्मन भी रहे हैं और अवसरवादी मित्र भी रहे हैं। प्रसंगवश 2004 का उल्लेख करता हूं। कांग्रेस 145 सीटें जीत कर लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा 138 सीटें ही जीत पाई थी। अर्थात जनादेश त्रिशंकु था, लिहाजा खिचड़ी सरकार ही बननी थी। उस लोकसभा में वामदलों के कुल 61 सांसद जीत कर आए थे। यह उस दौर में वाम की सबसे शानदार और बड़ी चुनावी जीत थी। तत्कालीन सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने मध्यस्थता की और कांग्रेस के नेतृत्व में, भाजपा-विरोधी दलों को जोड़ कर, यूपीए का गठन किया। सोनिया गांधी को उसका अध्यक्ष बनाया गया। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए और सीपीएम सांसद सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर का पद देकर वाममोर्चे को नवाजा गया।

परोक्ष रूप से तब केंद्र में वाममोर्चे की ही सरकार थी, क्योंकि सभी महत्वपूर्ण निर्णय वाममोर्चे की सहमति से ही लिए जाते थे। कांग्रेस-वाम मित्रता की यह मिसाल कुछ और राज्यों में भी देखी गई, जहां दोनों ही दल विपक्षी गठबंधन के घटक थे। बंगाल, केरल, त्रिपुरा में वाम और कांग्रेस के बीच राजनीतिक शत्रुता बनी रही। केरल में तो दो ही मोर्चे सक्रिय रहे-वामदलों के नेतृत्व वाला फ्रंट तथा कांग्रेस नेतृत्व वाला यूनाइटेड फ्रंट। दोनों ही दल और मोर्चे मौजूदा विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के भी औपचारिक घटक हैं। यूपीए के आखिरी दौर में ‘परमाणु करार’ के मुद्दे पर मनमोहन सरकार से वाममोर्चे ने समर्थन वापस ले लिया, लेकिन तब मुलायम सिंह यादव की सपा और अन्य सांसदों के समर्थन से सरकार बची थी, लेकिन 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद जो भी विपक्षी गठबंधन बना, उसमें कांग्रेस और वामपंथी दोनों ही रहे। चूंकि अब लोकसभा चुनाव का आगाज हो चुका है, लिहाजा बंगाल, केरल और त्रिपुरा में दोनों ही पक्ष ‘कट्टर प्रतिद्वंद्वी’ की भूमिका में हैं।

केरल तो कांग्रेस के लिए चुनावी जीवन-रेखा है। 2019 के आम चुनाव में केरल में कांग्रेस नेतृत्व के यूनाइटेड फ्रंट ने 20 में से 19 सीटें जीत कर वाम को ध्वस्त कर दिया था। वाम का एकमात्र सांसद चुना गया था। हालांकि तमिलनाडु में वाममोर्चे के 2 सांसद चुने गए थे। कांग्रेस के कुल 52 सांसद चुने गए थे, जिसमें केरल के 15 सांसद थे। इस बार वाममोर्चा यूं ही हथियार डालने को तैयार नहीं है, लिहाजा शब्दों और अलंकारों की लड़ाई शुरू हो गई है। कांग्रेस और वाम एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की राजनीति कर रहे हैं। दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को केरल में भी है। मुख्यमंत्री पी. विजयन ने फरवरी में ही कांग्रेस की तीखी आलोचना करते हुए चुनाव-प्रचार शुरू कर दिया था। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा को ‘एकाधिकारवादी’ करार दिया। इस बार वायनाड की सीट पर राहुल गांधी का चुनाव भी आसान नहीं है। उनके खिलाफ सीपीआई की उम्मीदवार एनी राजा को उतारा गया है, जो सीपीआई महासचिव डी. राजा की पत्नी हैं और राजनीतिक तौर पर खूब सक्रिय रही हैं। वाम की पूरी सरकार उनके साथ प्रचार में व्यस्त है। केरल के नेता ‘अमूल बेबी’ नामक आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, तो कांग्रेस भी पीछे नहीं है। क्या ऐसी ही चुनावी प्रतिद्वंद्विता को ‘मैत्री-लड़ाई’ कह सकते हैं? मुख्यमंत्री और राहुल गांधी एक-दूसरे पर बंदूक ताने सक्रिय हैं। वाममोर्चे की लोकप्रियता और स्वीकार्यता लगातार घट रही है। 2019 में सीपीएम ने 69 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन मात्र 3 ही सांसद जीत कर संसद तक पहुंच पाए। मात्र 2 फीसदी वोट मिले, जो सबसे कम रहा है। इस बार सीपीएम केरल में ही 15 सीटों पर लड़ रही है, जबकि बंगाल में 23 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। केरल ‘मरो या मारो’ की स्थिति में है। बेशक राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन होना चाहिए, लेकिन कांग्रेस और वाम जिस तरह ‘मैत्री-लड़ाई’ की आड़ में चुनाव लड़ रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता क्या है? क्या उससे भाजपा को ही फायदा नहीं होगा? विपक्ष में वामपंथी और कांग्रेसी लड़ रहे हैं। चुनाव के निष्कर्ष का आकलन यहीं से किया जा सकता है।

 

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