राजनैतिकशिक्षा

यह ठीक नहीं कि विपक्ष विकास के बदले केवल मोदी की हर बात का विरोध करता रहे

-अशोक भाटिया-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

कई दशकों से तुष्टिकरण की सियासत करने वाले दलों और नेताओं को देश की जनता ने आईना दिखाते हुए 2014 में जब हासिए पर ढकेल दिया था तब भी भाजपा और उसके चाहने वालों को इस बात का अच्छी तरह से अहसास था कि आम चुनाव में प्रचंड जीत हासिल करने वाली भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा। मोदी विरोधियों ने पूरे पांच साल तक मोदी सरकार की नाक में दम करे रखा, लेकिन मोदी विरोधियों की कुटिल सियासत को दरकिनार करके देश की जनता ने 2019 में जब पुनः भाजपा और मोदी को प्रचंड बहुमत दिलाया तो, मोदी विरोधी ब्रिगेड और वह शक्तियां जो लगातार साजिश रचा करती थीं कि भाजपा नहीं जीते, भले सपा-बसपा, कांग्रेस अथवा और कोई दल जीत जाए। भाजपा को हराने के लिए फतवे जारी होते थे। परंतु जब कोई पैंतरा काम नहीं आया तो अब मोदी विरोधी ताकतें उनका विरोध करते-करते देश का विरोध करने लगी हैं। इसीलिए तो तुष्टिकरण की सियासत करने वाले वह दल और ताकतें जो खुल कर पाकिस्तान के पक्ष में नहीं बोल पाती थीं, पर सीएए की आड़ में पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को हिन्दुस्तान में बसाने के लिए नये-नये हथकंडे अपनाते रहे एनपीआर और एनआरसी का भूत खड़ा किया गया। जनता ही नहीं छोटे-छोटे बच्चों को भी बरगला कर धरना-प्रदर्शन और हिंसा की आग में झोंका गया। उससे भी जी नहीं भरा तो अब किसान आन्दोलन का हौवा खड़ा कर देश को पंगु बनाने का काम किया जा रहा हैं। मोदी विरोध करने वालों को समर्थन का दिखावा करके वह कथित बुद्धिजीवी ताकतें भी अपनी दुश्मनी निकाल रही हैं जिनका मोदी के भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस के चलते ‘हुक्का-पानी’ यानी नंबर दो की कमाई का जरिया बंद हो गया है। इसमें वह एनजीओ भी शामिल हैं जो समाज सेवा का नकाब पहन कर विदेशों से चंदा और मोटी मदद हासिल करके स्वयं तो ऐश करते थे और गरीब जनता को कभी बिरयानी तो कभी पूड़ी सब्जी खिलाकर देश में अशांति का माहौल पैदा करते थे।

मोदी विरोध के चलते ऐसे-ऐसे मुद्दों को हवा दी जा रही है जिसका देश की जनता से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन उसको लेकर देश में अशांति फैलाई जा रही हैं। यह सिलसिला 2014 में मोदी की जीत से शुरू हुआ था और अभी तक जारी हैं। वैसे, यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस दिन यह तय हो गया था कि अबकी बार मोदी सरकार बनेगी तभी से देश को कभी राफेल के नाम पर तो कभी तीन तलाक को लेकर भड़काया गया। सर्जिकल स्ट्राइक पर सबूत मांगा जा रहा था। अयोध्या मसले को हवा दी गई। कश्मीर से धारा 370 हटाने के नाम पर देश को गुमराह किया गया। अफजल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिंदा हैं, फ्री कश्मीर के नारे लगते हैं। मुसलमानों को भयभीत बताया जाता रहा। पाकिस्तान जाकर कांग्रेस के एक नेता मोदी को हटाने के लिए मदद मांगते हैं। विरोध का यह सिलसिला अब किसान आन्दोलन पर आकर अटक गया है।

विरोध के सिलसिले हद तो अब तब हो गई है जब विरोधी दलों ने मोदी की व्यक्तिगत आलोचना करनी शुरू करदी।लोकतन्त्र में विपक्ष जब व्यक्तिगत आलोचना को विरोध का मुख्य आधार बना देता है तो वह सैद्धांतिक व नीतिगत रूप से ‘दिवालिया’ करार दिया जाता है। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कोरोना टीका लगवाने की आलोचना विभिन्न विपक्षी नेताओं ने जिस तर्ज और अंदाज से की है उसका आम भारतवासी को सन्देश यही गया है कि विरोधी दल वैचारिक रूप से थके हुए हैं। प्रधानमन्त्री श्री मोदी यदि चाहते तो प्रधानमन्त्री हाउस के अपने घर में भी टीका लगाव सकते थे। पर उन्होंने एक प्रधानमन्त्री के रूप में साठ साल से ऊपर के बुजुर्गों के कोरोना टीकाकरण का श्रीगणेश किया। क्या प्रधानमन्त्री का स्वयं चिकित्सा संस्थान जाना गलत था? क्या उन्होंने पूर्ण रूप से भारत में बने कोरोना टीके ‘कोवैक्सीन’ को लगवा कर गलत किया? क्या उन्होंने प्रत्येक बुजुर्ग को बेखौफ होकर टीका अपनाने की प्रेरणा देकर कोई गलत सन्देश दिया? यह सब श्री मोदी ने इसीलिए किया जिससे प्रत्येक भारतवासी में यह विश्वास जगे कि कोरोना का टीका लगवाना राष्ट्रीय नागरिक धर्म से कम नहीं है और एक नागरिक के रूप में वह अपना धर्म निभाने के लिए सबसे आगे आये हैं। जरा सोचिये विपक्ष के कुछ नेताओं ने कोरोना टीके के बारे में ही क्या-क्या भड़काऊ बयान नहीं दिये थे?

आश्चर्य तो उस समय हुआ जब समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया था कि यह ‘भाजपा टीका’ है जिसे वह नहीं लगवायेंगे। उन्हीं की पार्टी के एक विधानपरिषद सदस्य ने ऊल-जुलूल व ऊट-पटांग तर्क दिये थे। यह सब आम लोगों का मनोबल तोड़ने की निकृष्ठ राजनीति थी। कोरोना टीके को ही इन लोगों ने राजनीति का मुद्दा बना दिया और इसके बहाने कुछ समुदायों में शक के बीज बोने शुरू कर दिये। प्रधानमन्त्री ने यह ठीक किया कि बुजुर्गों के लिए टीकाकरण की जिस दिन शुरूआत होनी थी तो सबसे पहले उन्होंने टीका लगवा कर ऐसी उथली राजनीति करने वालों को सही जगह दिखाने का काम किया और सन्देश दिया कि जो लोग भारत के वैज्ञानिकों व चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों की विश्वसनीयता को दांव पर लगा कर अपनी राजनीति करना चाहते हैं उनके दिल में सामान्य आदमी की न तो कोई इज्जत है और न चिन्ता है।
सोचने की बात यह भी है कि यदि श्री मोदी ने असम का गमछा अपने कन्धे पर डाल लिया तो क्या इससे असम में होने वाले चुनावों पर कोई असर पड़ सकता है ? अगर पुड्डुचेरी की नर्स ने उनके टीका लगाया और केरल की नर्स ने इस कार्य में मदद की तो क्या इसका प्रभाव इन राज्यों के चुनाव पर पड़ सकता है? जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां के मुद्दे क्या इस वजह से बदल सकते हैं ? मगर क्या कयामत है कि विरोधी दलों को इसमें भी किसी षड्यन्त्र की बू आ रही है ! बल्कि उल्टा होना तो यह चाहिए था कि स्वयं विपक्षी नेताओं को आगे आकर आम जनता से टीकाकरण में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने की अपील करनी चाहिए थी जिससे भारत इस संक्रमण पर विजय प्राप्त कर सके मगर यहां तो टीका लगवाने वाले को ही हिदायत दी जा रही है कि उसे कौन से लिबास में आना चाहिए था और किस राज्य की नर्स से टीका लगवाना चाहिए था। असल में यह उन सभी राज्यों की जनता का अपमान भी है जिनके प्रतीकों को आलोचना के घेरे में रखने की हिमाकत की गई है। ये सब राज्य भारत का ही हिस्सा हैं और प्रधानमन्त्री किसी एक राज्य के नहीं बल्कि पूरे देश के हैं। दरअसल, विपक्ष आज बेबस है क्योंकि उसके हाथों से चीजें फिसलती जा रही हैं। जिस तेजी और सरलता से मौजूदा सरकार इस देश के सालों पुराने उलझे हुए मुद्दे जिन पर बात करना भी विवादों को आमंत्रित करता था, सुलझाती जा रही है, विपक्ष खुद को मुद्दाविहीन पा रहा है। और तो और वर्तमान सरकार की कूटनीति के चलते संसद में विपक्ष की राजनीति भी नहीं चल पा रही जिससे वो खुद को अस्तित्व विहीन भी पा रहा है। शायद इसलिए अब वो अपनी राजनीति को उल जलूल बातों से चमकाना चाहता हैं। अच्छा तो तब होगा जब विपक्ष अपने मुद्दे उठाते समय देश की रचनात्मकता का ध्यान दे।

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