राजनैतिकशिक्षा

बिना चर्चा सदन से पारित कानून अवैध?

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

पिछले कई सत्रों मे लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभाओं में बिना चर्चा के बिल पास किए जा रहे हैं। वह कानून बन रहे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जो कानून बनाती हैं। उसका असर नागरिकों पर पड़ता है। नागरिक अधिकार के तहत मतदाता, मतदान के माध्यम से अपने लिए विधायक और सांसद चुनते हैं। चुनाव के बाद यह माना जाता है, कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने विधानसभा क्षेत्र /लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। निर्वाचित प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की जन भावनाओं को समझते हुए, संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही अथवा जो कानून बनाए जाते हैं, वह सदन के अंदर अपनी राय रखते हैं,विचार विमर्श होता है। बहुमत के आधार पर संसद और विधानसभाओं में कानून बनेंगे, जो लोगों के हितों का संवर्धन करने वाले होंगे। पिछले कुछ सत्रों से यह देखा जा रहा है कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें बहुत कम हो रही हैं। सरकार और विपक्ष के बीच में सदन की कार्यवाही को लेकर मतभेद होता है। सरकार चाहती है, कि उसे सदन के अंदर जवाब ना देना पड़े।
सरकार, विपक्ष का सामना करने से बचती है। पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों कानून बिना किसी चर्चा के लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभाओं से पारित किए गए हैं। बिना चर्चा के जो कानून पारित किए गए हैं। क्या उन्हें वैध माना जाना चाहिए। इसको लेकर अब बड़े पैमाने पर चर्चाएं शुरू हो गई हैं। केंद्र सरकार द्वारा जो भी विधेयक ‎पिछले वर्षों में पेश किए गए हैं, उनमें लगभग-लगभग 90 फ़ीसदी से ज्यादा विधेयक संसदीय समिति को भी नहीं भेजे गए हैं। विधेयक संसद और विधानसभाओं में सीधे प्रस्तुत किए जा रहे हैं। संसद अथवा विधानसभा की कार्यवाही शुरू होने के कुछ घंटे पहले बिल एवं अन्य प्रस्ताव सांसदों और विधायकों के बीच में वितरित कर दिए जाते हैं। वह उनका अध्ययन भी नहीं कर पाते हैं। सरकार हो हल्ले और हंगामे के बीच सदन में प्रस्तुत करती है। आसंदी भी बिल पास करने की औपचारिकता को पूर्ण करा देता है। कुछ ही मिनटों में कई कानून पास कर दिए जाते हैं।
संविधान निर्माताओं ने आसंदी को जो शक्तियां दी हैं। उन शक्तियों का प्रयोग करने में आसंदी विफल साबित होती नजर आ रही है। लोकसभा हो, राज्यसभा हो, अथवा विधानसभा में आसंदी, के पद पर बहुमत के आधार पर सत्तारूढ़ पक्ष की मेहरबानी से पद धारण करते हैं। यही दबाव उनके ऊपर आसंदी पर बैठने के बाद भी बना रहता है। संविधान निर्माताओं ने यह माना था, कि अध्यक्ष के पद पर निर्वाचित हो जाने के बाद, आसंदी दलगत राजनीति से अलग होगी। निर्वाचित प्रतिनिधियों का सदन होगा। सदन के अध्यक्ष सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकारों का संरक्षण करेंगे। चाहे वह सरकार हो, चाहे विपक्ष हो। सभी सांसदों और विधायकों को अपने अपने क्षेत्र की बात कहने का सदन में अधिकार होगा। जो भी नियम, कानून सदन में प्रस्तुत किए जाएंगे। उन पर सभी पक्षों को अपनी बात रखने का अधिकार होगा। सदन के अंदर निर्वाचित प्रतिनिधियों को उनके उठाए गए हर प्रश्न का जवाब सरकार से दिलाने की जिम्मेदारी आसंदी की ही होती है।
‎निर्वा‎चित प्र‎तिनिधियों का संवै‎धा‎निक ‎निजी अ‎धिकार है, इसे बहुमत के आधार पर बा‎धित नहीं ‎किया जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों में स्थिति बिल्कुल उलट नजर आ रही है। चुनिंदा सांसदों अथवा ‎विधायकों को एक या 2 मिनट में अपनी बात कहने का मौका सदन में दिया जा रहा है। सांसद और विधायक जो प्रश्न लगाते हैं। उनके उत्तर भी सरकार से नहीं मिलते है। तारांकित और अतारांकित प्रश्न लगाने में सचिवालय मनमाने तरीके से प्रश्न चयनित करते हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामान्य अधिकार भी अब आसंदी के रहते हुए सदन में सुरक्षित नजर नहीं पा रहे हैं। पिछले एक दशक में लोकसभा, राज्यसभा एवं विधान सभाओं के सत्र अवधि कम होती जा रही है। पूरा सत्र हंगामे और हो-हल्ले मे खत्म हो जाता है। निर्धारित समय के पहले ही सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो जाती है। सदन में प्रस्तुत विधेयक, बजट अनुपूरक बजट विधि विधाई से संबंधित संशोधन हो -हल्ले के बीच ना और हां के जरिए मतदान कराकर आसंदी द्वारा स्वीकृत किए जा रहे हैं। सरकार जो चाहती है, वह आसंदी कर देती है। इसे संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं माना जा सकता है। आसंदी की जिम्मेदारी है,कि वह सदन की कार्रवाई मे सभी पक्षों को अपनी बात रखने का अवसर दे। आसंदी को अधिकार है, कि वह सरकार और विपक्ष के बीच में समन्वय बनाए। गतिरोध को दूर कराने में आसंदी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जब दोनों पक्षों में विवाद शांत ना हो रहा हो। उस समय आसंदी निष्पक्षता के साथ पक्ष और विपक्ष के बीच आम सहमति बनाने का कार्य,हमेशा से करती आई थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से आसंदी सरकार के दबाव में काम करती हुई स्पष्ट रूप से नजर आ रही है। इसके कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच लगातार गतिरोध बढ़ रहा है। संसद और विधानसभा की कार्यवाही सुचारू रूप से नियमों के अनुसार संचालित हो। इसका दायित्व आसंदी का होता है। आसंदी निष्पक्ष तरीके से काम करती है, तो वह सरकार और विपक्ष पर दबाव बनाती है। अब उल्टा हो रहा है। आसंदी कहती है, सदन की कार्यवाही चलाने में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है। सरकार के कामकाज को निपटाने के लिए ही सत्र बुलाया जाता है। आसंदी सरकार को संरक्षण देती है। जिसके कारण आसंदी के साथ, अब विपक्ष के रिश्ते बेहतर नहीं हैं। आसंदी जब सरकार का हिस्सा बन जाती है। इसका मतलब,आसंदी की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर विपक्ष को विश्वास नहीं रहता। जो भी विधेयक सदन में बिना चर्चा पारित किए जा रहे हैं। वह एक तरह से अवैध माने जाने चाहिए। सदन में बिना चर्चा कराए, आसंदी ने बिना चर्चा के जो बिल पारित किए हैं। इसे अवैधानिक ही माना जाना चाहिए। संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखना है। तो इस दिशा में सभी को सोचना होगा। न्यायालयों को भी यह देखना होगा कि जो कानून बनाए गए हैं वह विधिवत तरीके से पास हुए हैं या नहीं। यदि नहीं हुए हैं,तो उन कानून और नियमों को अवैध मानते हुए, न्यायालयों को अपना निर्णय देना चाहिए। यही समय की मांग है। संवैधानिक संस्थाएं धीरे-धीरे सरकार पर आश्रित होती जा रही हैं। ऐसी स्थिति हमें राजतंत्र और तानाशाही की ओर ले जा रही है। लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।

 

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