राजनैतिकशिक्षा

एनडीए बनाम इंडिया मोर्चेबंदी

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

संसद के मानसून सत्र के पहले दो दिनों की कार्यवाही, विपक्ष के हंगामे और जिद, अंतत: स्थगन से स्पष्ट है कि सत्ता और विपक्ष में दो मुख्य पाले तय हो गए हैं। सियासत सज गई है। बल्कि निर्णायक दौर में पहुंच गई है कि कौन, किधर होगा? संसद सत्र की पूर्व संध्या पर ही एक ऐसा वीडियो वायरल हुआ कि मणिपुर के मुद्दे पर सियासत बिल्कुल बंट गई। बेंगलुरु में गठित ‘इंडियन नेशनल विकासवादी समावेशी गठबंधन’ (इंडिया) को लगा कि संसद के जरिए भी राजनीति को पुख्ता किया जा सकता है और ऐसे ही माहौल में 2024 के आम चुनाव में कुछ बढ़त हासिल की जा सकती है। सत्ता-पक्ष में जिस तरह कांग्रेस नेतृत्व का यूपीए अपने फैसलों पर अड़ा रहता था, उसी तरह भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की भी प्रवृत्ति है। शायद यही सत्ता-पक्ष का स्वाभाविक रंग और उसकी सोच है! मॉनसून सत्र की शुरुआत से ही ‘इंडिया’ के तले विपक्ष की लामबंदी, गोलबंदी साफ दिखाई दे रही है। यह बिम्ब संसद के शीतकालीन सत्र तक दृश्यमान नहीं था। बजट सत्र की प्राथमिकताएं भिन्न होती हैं। यानी अब कहा जा सकता है कि 38 घटक दलों वाले एनडीए और 26 दलों वाले ‘इंडिया’ के मोर्चे निर्णायक दौर में पहुंच चुके हैं। कुछ अपवाद यहां भी हो सकते हैं। कमोबेश अब यह मान लेना चाहिए कि अब इसी मोर्चेबंदी के आधार पर आम चुनाव लड़े जाएंगे। मणिपुर पर संसद को जानबूझ कर, राजनीति के तहत, अवरुद्ध किया जा रहा है। संसदीय कार्यवाही के नियम पहले से ही तय हैं। उन्हें न तो सत्ता-पक्ष और न ही विपक्ष थोप सकता है। अलबत्ता किसी भी विषय पर बहस के लिए सांसद नोटिस दे सकते हैं और नियम का आग्रह भी कर सकते हैं।

अंतत: लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा सभापति कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में फैसला ले सकते हंे कि बहस किस नियम के तहत होगी। बहस का समय भी तय किया जा सकता है, लेकिन उसमें पीठासीन अध्यक्ष बढ़ोतरी भी कर सकते हैं। आसन के कुछ विशेषाधिकार भी होते हैं। इसी तरह सरकार को भी कुछ अधिकार हासिल हैं कि सदन की कार्यवाही कैसे सुचारू ढंग से चलाई जा सकती है। अब सवाल है कि विपक्ष खासकर राज्यसभा में एक ही नियम के तहत बहस कराने पर क्यों आमादा है? प्रधानमंत्री सदन में उपस्थित हों, विपक्ष यह बाध्यता भी क्यों थोपना चाहता है? प्रधानमंत्री की देश-विदेश के मामलों की व्यस्तता खूब होती है। मणिपुर में औरतों को निर्वस्त्र कर घुमाने जैसा मुद्दा गृह मंत्रालय के अधीन आता है। खुद गृहमंत्री मणिपुर के 3-4 दिन के दौरे पर भी गए थे, लिहाजा उन्हें ज्यादा जानकारी है कि मणिपुर का संकट क्या है? गृह मंत्री अमित शाह को बहस का जवाब देने का सक्षम और उपयुक्त पात्र मानना चाहिए। प्रधानमंत्री तो सरकार के ‘प्रथम पुरुष’ हैं। वह तो कभी भी बहस में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

चिंता और सरोकार यह होना चाहिए कि मणिपुर के साथ-साथ बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान सरीखे राज्यों के संदर्भ में भी बहस की जानी चाहिए, क्योंकि उन राज्यों में भी महिलाओं की इज्जत को न केवल तार-तार किया गया है, बल्कि सामूहिक बलात्कार, हत्या और आगजनी की कंपा देने वाली खौफनाक घटनाएं भी हुई हैं। ये अपराध रिकॉर्ड में दर्ज हैं। राजस्थान में एक निश्चित वर्ष में बलात्कार के 6337 केस दर्ज किए गए, जबकि मणिपुर जैसे छोटे से राज्य में यह औसत मात्र 26 है। महिलाओं के खिलाफ दूसरे अपराध भी बहुत हैं। विपक्ष शासित राज्य मणिपुर से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील हैं। तीन राज्यों से ही 107 सांसद चुनकर लोकसभा में आते हैं। इन राज्यों में भी भारत की बेटियों की इज्जत और गरिमा को नग्न किया गया है। बेशक इन राज्यों में ‘इंडिया’ की सत्ता है, महज इसी आधार पर न तो बहस तय हो सकती है और न ही उन्हें संसद की चिंताओं से अलग रखा जा सकता है। राजनीति करने के दूसरे बहुत मुद्दे और आधार हैं। यदि संसद के भीतर सिर्फ शोर मचाना और हंगामा करना ही मकसद है, तो बीते दौर में भाजपा करती थी, आज ‘इंडिया’ कर रहा है। देश की चिंता कौन करेगा? पक्ष तथा विपक्ष को सोचना है कि लोकतंत्र की सफलता के लिए उन्हें मिलजुल कर काम करना है।

 

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