राजनैतिकशिक्षा

जीएसटी पर फैसले से संतुलन बहाल!

-अजीत द्विवेदी-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

सुप्रीम कोर्ट ने वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी की मौजूदा व्यवस्था को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। हालांकि देश में चल रहे मंदिर-मस्जिद के विवाद में यह फैसला दब गया और इसके असर को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत दूरगामी असर वाला है। सर्वोच्च अदालत ने ‘वन नेशन, वन टैक्स’ के पूरे सिद्धांत को प्रभावित करने वाला फैसला दिया है। उसने कहा है कि जीएसटी की दर तय करने से लेकर वस्तुओं व सेवाओं को अलग अलग स्लैब में डालने का फैसला करने वाली जीएसटी कौंसिल का कोई भी फैसला बाध्यकारी नहीं है। वह सिफारिश करेगी और समझा-बूझा कर केंद्र व राज्यों को उसे लागू करने के लिए तैयार करेगी। अब तक यह धारणा थी कि जीएसटी कौंसिल का फैसला अंतिम है और उसे केंद्र व राज्यों को मानना ही होगा। लेकिन असल में ऐसा पहले भी नहीं था। तभी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्रीय राजस्व सचिव ने कहा कि सर्वोच्च अदालत ने सिर्फ वास्तविक स्थिति बताई है और इसका जमीनी स्थिति पर कोई असर नहीं होगा।
यह केंद्र सरकार या उसके राजस्व सचिव की सदिच्छा होगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कुछ नहीं बदलेगा लेकिन असल में इससे बहुत कुछ बदलेगा। अगर कुछ नहीं बदलना होता तो विपक्ष के शासन वाले राज्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इतना बढ़-चढ़ कर स्वागत नहीं करते। भाजपा शासित राज्यों ने चुप्पी साधे रखी लेकिन विपक्षी शासन वाले राज्यों ने इसका स्वागत किया। उनको अब मौका मिल गया है कि वे राजस्व के नुकसान की भरपाई की मौजूदा व्यवस्था को कुछ समय और जारी रखने का दबाव बना सकें। ध्यान रहे जीएसटी की वसूली अनुमान से कम होने पर राज्यों को मुआवजा देने का जो प्रावधान है वह इस साल खत्म हो रहा है। वह प्रावधान पांच साल के लिए था और इस साल जून में जीएसटी के पांच साल पूरे होते ही वह व्यवस्था समाप्त हो जाएगा। लेकिन कई राज्य सरकारें इसे बढ़ाना चाहती हैं। उनका कहना है कि कोरोना वायरस की महामारी में पिछले दो साल में राजस्व का बड़ा नुकसान हुआ है और इसलिए केंद्र सरकार इसे आगे बढ़ाए। विपक्षी शासन वाले राज्य मुआवजे के प्रावधान को दो से पांच साल तक बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।
जीएसटी कौंसिल में बहुमत से फैसला होता है लेकिन मौजूदा संरचना में विपक्षी राज्य कमजोर पड़ जाते हैं। जीएसटी कौंसिल के बहुमत में एक-तिहाई अकेले केंद्र सरकार का है और बाकी दो-तिहाई में सभी राज्यों का बराबर हिस्सा है। इस दो-तिहाई में से आधे भी केंद्र के साथ चले जाते हैं तो बहुमत का फैसला उसके पक्ष में हो जाता है। ध्यान रहे ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है या उसकी घोषित व अघोषित सहयोगी पार्टियों की सरकार है। हालांकि उन राज्य सरकारों को भी राजस्व का नुकसान हो रहा है या मुआवजे की व्यवस्था समाप्त होना उनके लिए भी चिंता की बात है लेकिन राजनीतिक मजबूरी में वे खुल कर इस व्यवस्था को जारी रखने की मांग का समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि मुआवजे की रकम जुटाने के लिए लगाया गया उपकर 2026 तक बढ़ा दिया गया है लेकिन ऐसा मुआवजा चुकाने के लिए जुटाए गए कर्ज के ब्याज की भरपाई और कर्ज की रकम लौटाने के लिए किया गया है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहला बदलाव तो यह हुआ है कि इस मामले में अब राज्यों की मोलभाव की ताकत बढ़ गई है।
हो सकता है कि यह व्यवस्था पहले से हो और सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ उसकी व्याख्या की हो लेकिन इससे संघवाद की धारणा को मजबूती मिली है। यह सत्य स्थापित हुआ है कि कर लगाने और वसूलने का संप्रभु अधिकार केंद्र और राज्यों के पास है। अब तक ऐसी धारणा थी पेट्रोलियम उत्पादों और शराब जैसी एकाध वस्तुओं को छोड़ कर बाकी सभी वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स लगाने और वसूलने का अपना अधिकार राज्यों ने केंद्र को सौंप दिया है और उनके पास अपना कोई अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस अधिकार पर मुहर लगी है। इसका सीधा मतलब है कि अब राज्य बराबर के अधिकार के साथ टैक्स की व्यवस्था पर बात रख सकेंगे और केंद्र या जीएसटी कौंसिल के किसी प्रस्ताव पर तभी सहमत होंगे, जब उन्हें उसमें अपना हित दिखेगा। इसका यह भी मतलब है कि अब कोई भी कर प्रस्ताव थोपा नही जा सकेगा। राज्यों के साथ लगातार मोलभाव और वार्ता के जरिए उस पर सहमति बनानी होगी। इससे एक तरह से केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनेगा।
सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद टकराव की संभावना भी बनती है। संभव है कि राज्य अपने हितों को देखते हुए अपने बजट में टैक्स के नए प्रावधान करें और उसे विधानसभा से पास कराएं तो यहीं काम केंद्र सरकार भी केंद्रीय बजट में कर सकती है। यह भी संभव है कि किसी खास टैक्स व्यवस्था की जीएसटी कौंसिल की सिफारिश को दोनों खारिज कर दें। लेकिन इसकी गुंजाइश कम है। ध्यान रहे वित्त आयोग की सिफारिशें भी राज्यों या केंद्र पर बाध्यकारी नहीं होती है। कई बार राज्यों ने वित्त आयोग की सिफारिशों पर आपत्ति भी की है। परंतु अंत में राज्य सरकारें उसे स्वीकार करती हैं। उसी तरह हो सकता है कि जीएसटी कौंसिल की सिफारिश स्वीकार करने से पहले कुछ विचार-विमर्श हो, मोलभाव हो, कुछ बदलाव करना पड़े लेकिन अंततः जब राज्य इस व्यवस्था से बंधे हैं तो उन्हें इसकी सिफारिशें माननी होंगी। टकराव एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ेगा। इसके बावजूद कह सकते हैं कि जीएसटी कानून की जो व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने की है उससे राज्यों को ताकत मिली है। अगर यह ताकत नई नवेली जीएसटी व्यवस्था को कमजोर या बरबाद करने में इस्तेमाल हुई तो उसका बड़ा नुकसान होगा।

 

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