राजनैतिकशिक्षा

2022 चुनाव बहुजन समाज पार्टी के बदलते समीकरणदृकितने सार्थक?

-अशोक भाटिया-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

आगामी कई राज्यों के चुनावों में मायावती ने ऐलान किया है कि बहुजन समाज पार्टी 2022 में यूपी चुनाव अपने बूते लड़ेगी , और ये रणनीति उत्तराखंड चुनाव में भी लागू रहेगी। मतलब, मायावती उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं करने जा रही हैं।राज्यों के मायावती 2022 का पंजाब चुनाव तो अकाली दल के साथ गठबंधन करने लड़ेंगी, लेकिन यूपी चुनाव में कोई गठबंधन नहीं करेंगी। इसके साथ ही उत्तराखंड के बारे में भी बीएसपी नेता ने ऐसा ही कहा है।2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मायावती गठबंधन के साथ ही उतरी थीं। खास बात ये रही कि बिहार के जिस चुनावी गठबंधन में मायावती शामिल थीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी उसका हिस्सा रही थी। यूपी की एक और पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी उसी गठबंधन में शामिल थी। ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट. फ्रंट के नेता उपेंद्र कुशवाहा रहे जो चुनाव बाद अपनी पार्टी के साथ नीतीश कुमार की जेडीयू में शामिल हो गये. फिलहाल वो जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं।

असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन को लेकर मायावती ने बड़े ही सख्त लहजे में रिएक्ट किया है और ये बात थोड़ी अजीब लगती है। आखिर मायावती को ओवैसी के साथ भी अखिलेश यादव जैसा ही कोई गठबंधन का कड़वा अनुभव हुआ है या फिर वो मुस्लिम समुदाय के बीएसपी का साथ न देने से खफा हैं।2012 में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के हाथों सत्ता गंवाने के बाद से मायावती ने कम से कम दो चुनावों में बड़ी उम्मीद के साथ मुस्लिम वोट बैंक को साधने की शिद्दत से कोशिश की , 2014 के आम चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी।2019 में भी देवबंद की एक रैली में मायावती के भाषण पर काफी विवाद हुआ था। भाजपा की तरफ से चुनाव आयोग में शिकायत भी की गयी थी। तब भाजपा नेता जेपीएस राठौर ने मायावती पर वोट के लिए धार्मिक उन्माद भड़काने जैसे बेहद गंभीर आरोप लगाये थे।

बीएसपी नेता के जिस भाषण पर बवाल मचा था, उसमें मायावती कह रही थीं, ‘मैं खासतौर पर मुस्लिम समाज के लोगों से ये कहना चाहती हूं कि आपको भावनाओं में बहकर, रिश्ते-नातेदारों की बातों में आकर वोट बांटना नहीं है , बल्कि, एकतरफा वोट देना है। ‘ तब मायावती सपा-बसपा गठबंधन के लिए वोट मांग रही थीं और साफ साफ कह रही थीं कि कांग्रेस को वोट न देकर वे सिर्फ गठबंधन को वोट दें ताकि भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सके।2017 के चुनाव में मायावती को भाजपा को लेकर कोई संभावना तो रही नहीं होगी, इसलिए सारा फोकस अखिलेश यादव को दोबारा सत्ता में आने से रोक कर खुद लौटने की कोशिश रही। तब बीएसपी को मुस्लिम वोट दिलाने के लिए मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को जिम्मेदारी दे रखी थी और पूर्वी यूपी के मुस्लिम वोट के लिए मुख्तार अंसारी को सुधरने के नाम पर एक और मौका दिया था। नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे उन दिनों बीएसपी के लिए वोट मांग रहे थे, वैसे ही फिलहाल सलमान खुर्शीद की अगुवाई में कांग्रेस के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं।अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन तोड़ते वक्त मायावती ने एक खास वजह भी बतायी थी। वोट ट्रांसफर न होना. असल में, गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना उपचुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी के कैंडीडेट को सपोर्ट किया था और तीनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत की वजह वो बीएसपी के वोटों का ट्रांसफर होना मान कर चल रही थीं। शायद ये बात ही 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का प्रमुख आधार भी रही होगी।2014 में जीरो बैलेंस में रहीं मायावती ने 2019 में 10 संसदीय सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अखिलेश यादव की पार्टी को महज 5 ही सीटें मिली थीं। मायावती के मैनपुरी पहुंच कर वोट मांगने से या जैसे भी मुलायम सिंह यादव तो संसद पहुंच गये, लेकिन डिंपल यादव चुनाव हार गयीं।बाद में भी मायावती को अक्सर भाजपा के सपोर्ट में खड़े देखा गया. लगता तो ऐसा ही है जैसे मायावती के शब्द भले अलग हों, लेकिन उनके स्टैंड खुल कर भाजपा के एजेंडे के सपोर्ट में हो गया है। ये ऐसा है जो मुस्लिम समुदाय को बीएसपी से दूर ही ले जा सकता है, नजदीक आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जब यूपी में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा और पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम परिवारों से प्रियंका गांधी मिलने जातीं तो भाजपा से पहले मायावती ही कांग्रेस महासचिव के खिलाफ धावा बोल देतीं। जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मामले में भी मायावती ने खुल कर मोदी सरकार का सपोर्ट किया. आलम ये रहा कि धारा 370 पर सरकार के स्टैंड के खिलाफ बोलने पर मायावती ने दानिश अली को लोक सभा में बीएसपी के नेता के पद से भी हटा दिया।
ऐसे कई मौकों पर कांग्रेस विरोध के नाम पर मायावती का स्टैंड भाजपा के सपोर्ट में ही नजर आया, जो मुस्लिम समुदाय को कभी मंजूर नहीं हो सकता। तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मायावती को भाजपा का अघोषित प्रवक्ता तक करार दिया है।आम चुनाव के दौरान मायावती खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी पेश कर रही थीं। एक रैली में मायावती समझा रही थीं कि अगर चुनाव बाद उनको लखनऊ से कहीं दिल्ली शिफ्ट हो जाना पड़ा और बीएसपी के लिए नया नेता चुनना पड़ा तो वो दलित नहीं तो मुस्लिम ही होगा। मुलायम सिंह और लालू याद2022 चुनाव बहुजन समाज पार्टी के बदलते समीकरण दृ कितने सार्थक ?
आगामी कई राज्यों के चुनावों में मायावती ने ऐलान किया है कि बहुजन समाज पार्टी 2022 में यूपी चुनाव अपने बूते लड़ेगी, और ये रणनीति उत्तराखंड चुनाव में भी लागू रहेगी। मतलब, मायावती उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं करने जा रही हैं।राज्यों के मायावती 2022 का पंजाब चुनाव तो अकाली दल के साथ गठबंधन करने लड़ेंगी, लेकिन यूपी चुनाव में कोई गठबंधन नहीं करेंगी।इसके साथ ही उत्तराखंड के बारे में भी बीएसपी नेता ने ऐसा ही कहा है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मायावती गठबंधन के साथ ही उतरी थीं। खास बात ये रही कि बिहार के जिस चुनावी गठबंधन में मायावती शामिल थीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी उसका हिस्सा रही थी। यूपी की एक और पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी उसी गठबंधन में शामिल थी। ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट. फ्रंट के नेता उपेंद्र कुशवाहा रहे जो चुनाव बाद अपनी पार्टी के साथ नीतीश कुमार की जेडीयू में शामिल हो गये. फिलहाल वो जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं।
असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन को लेकर मायावती ने बड़े ही सख्त लहजे में रिएक्ट किया है और ये बात थोड़ी अजीब लगती है। आखिर मायावती को ओवैसी के साथ भी अखिलेश यादव जैसा ही कोई गठबंधन का कड़वा अनुभव हुआ है या फिर वो मुस्लिम समुदाय के बीएसपी का साथ न देने से खफा हैं।2012 में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के हाथों सत्ता गंवाने के बाद से मायावती ने कम से कम दो चुनावों में बड़ी उम्मीद के साथ मुस्लिम वोट बैंक को साधने की शिद्दत से कोशिश की , 2014 के आम चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी।2019 में भी देवबंद की एक रैली में मायावती के भाषण पर काफी विवाद हुआ था। भाजपा की तरफ से चुनाव आयोग में शिकायत भी की गयी थी। तब भाजपा नेता जेपीएस राठौर ने मायावती पर वोट के लिए धार्मिक उन्माद भड़काने जैसे बेहद गंभीर आरोप लगाये थे।
बीएसपी नेता के जिस भाषण पर बवाल मचा था, उसमें मायावती कह रही थीं, ‘मैं खासतौर पर मुस्लिम समाज के लोगों से ये कहना चाहती हूं कि आपको भावनाओं में बहकर, रिश्ते-नातेदारों की बातों में आकर वोट बांटना नहीं है , बल्कि, एकतरफा वोट देना है। ‘ तब मायावती सपा-बसपा गठबंधन के लिए वोट मांग रही थीं और साफ साफ कह रही थीं कि कांग्रेस को वोट न देकर वे सिर्फ गठबंधन को वोट दें ताकि भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सके।2017 के चुनाव में मायावती को भाजपा को लेकर कोई संभावना तो रही नहीं होगी, इसलिए सारा फोकस अखिलेश यादव को दोबारा सत्ता में आने से रोक कर खुद लौटने की कोशिश रही। तब बीएसपी को मुस्लिम वोट दिलाने के लिए मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को जिम्मेदारी दे रखी थी और पूर्वी यूपी के मुस्लिम वोट के लिए मुख्तार अंसारी को सुधरने के नाम पर एक और मौका दिया था। नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे उन दिनों बीएसपी के लिए वोट मांग रहे थे, वैसे ही फिलहाल सलमान खुर्शीद की अगुवाई में कांग्रेस के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं।अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन तोड़ते वक्त मायावती ने एक खास वजह भी बतायी थी। वोट ट्रांसफर न होना. असल में, गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना उपचुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी के कैंडीडेट को सपोर्ट किया था और तीनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत की वजह वो बीएसपी के वोटों का ट्रांसफर होना मान कर चल रही थीं। शायद ये बात ही 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का प्रमुख आधार भी रही होगी। 2014 में जीरो बैलेंस में रहीं मायावती ने 2019 में 10 संसदीय सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अखिलेश यादव की पार्टी को महज 5 ही सीटें मिली थीं। मायावती के मैनपुरी पहुंच कर वोट मांगने से या जैसे भी मुलायम सिंह यादव तो संसद पहुंच गये, लेकिन डिंपल यादव चुनाव हार गयीं।बाद में भी मायावती को अक्सर भाजपा के सपोर्ट में खड़े देखा गया. लगता तो ऐसा ही है जैसे मायावती के शब्द भले अलग हों, लेकिन उनके स्टैंड खुल कर भाजपा के एजेंडे के सपोर्ट में हो गया है। ये ऐसा है जो मुस्लिम समुदाय को बीएसपी से दूर ही ले जा सकता है, नजदीक आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जब यूपी में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा और पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम परिवारों से प्रियंका गांधी मिलने जातीं तो भाजपा से पहले मायावती ही कांग्रेस महासचिव के खिलाफ धावा बोल देतीं। जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मामले में भी मायावती ने खुल कर दी सरकार का सपोर्ट किया. आलम ये रहा कि धारा 370 पर सरकार के स्टैंड के खिलाफ बोलने पर मायावती ने दानिश अली को लोक सभा में बीएसपी के नेता के पद से भी हटा दिया।
ऐसे कई मौकों पर कांग्रेस विरोध के नाम पर मायावती का स्टैंड भाजपा के सपोर्ट में ही नजर आया, जो मुस्लिम समुदाय को कभी मंजूर नहीं हो सकता। तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मायावती को भाजपा का अघोषित प्रवक्ता तक करार दिया है।आम चुनाव के दौरान मायावती खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी पेश कर रही थीं। एक रैली में मायावती समझा रही थीं कि अगर चुनाव बाद उनको लखनऊ से कहीं दिल्ली शिफ्ट हो जाना पड़ा और बीएसपी के लिए नया नेता चुनना पड़ा तो वो दलित नहीं तो मुस्लिम ही होगा। मुलायम सिंह और लालू यादव की तरह मायावती का ये दलित-मुस्लिम गठजोड़ प्रयोग रहा लेकिन बार बार असफल साबित हुआ।अब यह तो 2022 ही बताएगा की मायावती का यह समीकरण कितना सफल होगा।

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