राजनैतिकशिक्षा

देश मांग रहा किसान का बजट

-भरत झुनझुनवाला-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

आगामी वर्ष के बजट को पेश करते समय वित्त मंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि बीते 6 वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाने वाली फसलों की मात्रा में भारी वृद्धि हुई है, लेकिन साथ-साथ सरकार समर्थन मूल्य की व्यवस्था को निरस्त भी करना चाहती है। इसलिए देखना होगा कि वर्तमान व्यवस्था में क्या खामियां हैं। पहली खामी यह है कि आज विश्व में कृषि उत्पादों के मूल्य निरतंर गिरते जा रहे हैं क्योंकि नई तकनीकों के माध्यम से कृषि उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है, जबकि जनसंख्या में उसी अनुपात में वृद्धि न होने के कारण खाद्यान्नों की मांग में तुलना में कम वृद्धि हो रही है। खाद्यान्नों की सप्लाई ज्यादा बढ़ रही है जबकि डिमांड कम बढ़ रही है। दाम गिरते जा रहे हैं। इस परिस्थिति में यदि सरकार समर्थन मूल्य बढ़ाकर उत्तरोत्तर अधिक मात्र में खाद्यान्नों का उत्पादन कराए तो उस भंडार के निस्तारण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। खाद्यान्नों का निर्यात संभव नहीं होता है, लेकिन दूसरी तरफ समर्थन मूल्य का एक उद्देश्य यह है कि देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करे। समर्थन मूल्य व्यवस्था के माध्यम से किसानों को खाद्यान्नों के उचित मूल्य निरंतर मिलते रहते हैं और वे उनका पर्याप्त उत्पादन करते रहते हैं जिसका परिणाम है कि साठ के दशक के बाद अपने देश में अकाल नहीं पड़ा है।

इसलिए खाद्य सुरक्षा के लिए समर्थन मूल्य की संभवतः अनिवार्यता नहीं रह गई है। समर्थन मूल्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण भी सरकार को भारी घाटा लगता है, लेकिन यदि समर्थन मूल्य व्यवस्था को हम पूर्णतया निरस्त कर देते हैं तो दो दुष्प्रभाव सामने आते हैं। एक यह कि किसानों की आय में गिरावट आएगी जिसके फलस्वरूप हम आज किसानों का आंदोलन देख रहे हैं। दूसरा यह कि देश में खाद्यान्नों के उत्पादन में भारी उतार-चढ़ाव आ सकते हैं जिसके कारण देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। जैसे किसी वर्ष यदि गेहूं के दाम बहुत कम हो गए तो अगले वर्ष किसान गेहूं का उत्पादन कम कर देते हैं और जिसके कारण आने वाले वर्ष में खाद्यान्न का संकट उत्पन्न हो जाता है। पहला विषय किसान की आय का है। इस दिशा में वर्ष 2016 में सरकार ने एक अंतर मंत्रालय कमेटी स्थापित की थी। कमेटी की पहली संस्तुति थी कि किसान की उत्पादकता बढ़ाई जाए। सहज समझ आता है कि यदि किसान किसी भूमि पर एक क्विंटल के स्थान पर दो क्विंटल गेहूं उत्पादित करे तो उसकी आय सहज ही दो हजार रुपए से बढ़कर चार हजार रुपए हो जाएगी, लेकिन यह तब होगा जब गेहूं का दाम 20 रुपया प्रति किलो बना रहे। जैसा ऊपर बताया गया है कि जब उत्पादन अधिक हो जाता है तो कृषि उत्पादों के दाम में भारी गिरावट आती है। यही कारण था कि कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के पालनपुर के आलू के किसानों ने अपनी आलू की फसल को सड़कों पर फेंक दिया था। उन्हें आलू खोदकर मंडी तक पहुंचाने का भी खर्च मंडी से नहीं मिल रहा था। समिति ने इस बात को नजरअंदाज किया है कि उत्पादकता बढ़ाने मात्र से किसान की आय नहीं बढ़ जाती है। उसके साथ दाम को भी बढ़ाने की व्यवस्था की जानी चाहिए, परंतु यदि दाम को समर्थन मूल्य को दाम के माध्यम से बढ़ा कर रखा जाता है तो जैसा ऊपर बताया गया है कि खाद्यान्न के भंडारण और निस्तारण की समस्या सामने आ जाती है। इसलिए कमेटी नाकाम है। सरकार को सामान्य खाद्यान्नों के स्थान पर किसान को उच्च कीमत की फसलों के उत्पादन की तरफ प्रेरित करना चाहिए।

आज अफ्रीका के टुनीशिया देश में जैतून, ब्राजील में कॉफी और हेजल नट, अमरीका में अखरोट और सेब, फ्रांस में अंगूर, नीदरलैंड में ट्यूलिप के फूल, मलेशिया में रबड़, पाकिस्तान में अमरूद, इस प्रकार की विशेष फसलों के उत्पादन से इन देशों ने विश्व बाजार में अपना स्थान बनाया है। हमने भी मंड्या में रेशम, भुसावल में केले, नासिक में प्याज, जोधपुर में लाल मिर्च और असम में अनानास आदि फसलों के उत्पादन में विशेष उत्कृष्टता हासिल की है। अपना देश जलवायु की दृष्टि से सम्पन्न है। देश के विभिन्न हिस्सों में वर्ष भर विविध जलवायु उपलब्ध है। हर क्षेत्र के अनुकूल जो उच्च कीमत की फसलें उत्पादित हो सकती हैं, उनका अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता के मानकों के अनुसार उत्पादन कराकर इनके निर्यात की व्यवस्था करनी चाहिए। तब जिस प्रकार नीदरलैंड में ट्यूलिप फूल की खेती करके सम्पूर्ण विश्व को इनका निर्यात किया जाता है, उस प्रकार हम अयोध्या से लोबिया, बिहार से परवल, बंगाल से चिनिया केले, रत्नागिरी से हापूस आम इत्यादि विशेष फसलों का निर्यात करके अंतरराष्ट्रीय बाजार में सप्लाई कर सकते हैं। सरकार को चाहिए कि एनजीओ अथवा कारपोरेट घरानों को हर जिले के विशेष उत्पादों पर रिसर्च करने, उनका किसानों के बीच प्रसार करने, उनका उत्पादन कराने और फिर उनका निर्यात करने का सम्मिलित ठेका दे। ऐसा करने से हमारे किसान की आय वास्तव में बढ़ जाएगी और समर्थन मूल्य व्यवस्था को बनाए रखने की जरूरत नहीं रह जाएगी। इस बजट में सरकार ने हाइवे, बंदरगाह आदि बुनियादी संरचना में निवेश में भारी वृद्धि की है।

वह भी जरूरी है, परंतु कृषि उत्पादनों के मानकों के अनुसार उत्पादन की रिसर्च में निवेश नहीं किया है। इसलिए कृषि की समस्या फिलहाल पूर्ववत बनी रहने की संभावना बनी रहती है। अतएव किसानों की समर्थन मूल्य की मांग इस हद तक जायज है कि जब तक नई फसलों के उत्पादन और निर्यात की व्यवस्था से उनकी आय में दोगुनी वृद्धि न हो जाए, तब तक वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखा जाए। दूसरा विषय खाद्य सुरक्षा का है। इसका उपाय यह था कि सरकार को फूड कारपोरेशन आफ इंडिया को फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन आफ इंडिया में परिवर्तित कर देना चाहिए। जैसे सरकार ने मिनिरल एंड मेटल ट्रेडिंग कारपोरेशन बना रखा है। यह सार्वजनिक इकाई धातुओं की खरीद और बेच करती रहती है। इसी प्रकार फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन के माध्यम से सरकार को चाहिए कि जब देश में खाद्यान्न के दाम विशेष परिस्थिति में बहुत नीचे हों तो फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन उन खाद्यान्नों को खरीदे और दाम को बढ़ाए।

इसके विपरीत जब खाद्यान्नों के दाम अधिक बढ़ जाएं तो फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन अपने भंडारण किए हुए माल की बिक्री करे, आयात करे और और देश में खाद्यान्न उचित मूल्य पर उपभोक्ता को उपलब्ध कराए। फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन को स्वयं खरीद और भंडारण का काम भी नहीं करना चाहिए। इस कारपोरेशन द्वारा व्यापारियों से भविष्य के ठेके किए जाएं जिससे कि व्यापारी स्वयं किसान से खाद्यान्न खरीदकर उचित भंडारण करें और उचित समय पर फूड कारपोरेशन को उपलब्ध करा दें। जैसे गेहूं की फसल अप्रैल में होती है तो फूड ट्रेडिंग कारपोरेशन द्वारा अक्तूबर में सप्लाई के ठेके किए जा सकते हैं। ऐसा करने से जो भंडारण इत्यादि में फूड कारपोरेशन अकुशलता एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है, उससे देश को निजात मिल जाएगी और देश की खाद्य सुरक्षा भी स्थापित रहेगी।

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