राजनैतिकशिक्षा

उपलब्धि को फ़ीका करती घृणा

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारत के चन्द्रयान-3 के बुधवार की शाम को चन्द्रमा पर सफलतापूर्वक उतरने से बहुत पहले ही उसकी कामयाबी लगभग निश्चित समझी जा रही थी साथ ही यह भी तय माना जा रहा था कि इसकी सफलता से (या कहें कि असफल होने पर भी) राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक- तीनों ही तरह के आपसी मतभेद सामने आ जाएंगे। इस उपलब्धि के लिये छीना-झपटी होने का पूर्वानुमान था और यह भी पहले से ही सोच लिया गया था कि इसका उपयोग अपने राजनैतिक विरोधियों और अलग तरह की धार्मिक आस्था रखने वाले लोगों या समूहों के लिये किया जायेगा; पर यह सब इतनी जल्दी होगा, यह नहीं सोचा गया होगा। वैज्ञानिक उपलब्धियां किसी एक देश की नहीं वरन समग्र मानव के ज्ञान व प्रतिभा की देन मानी जाती है।

वैज्ञानिक विकास किसी एक देश का नहीं बल्कि वैश्विक होता है। इसलिये विज्ञान सम्बन्धी विचारों और शोधों-आविष्कारों का प्रतिफल दुनिया भर को मिलता है; पर भारतीयों ने अपनी इस उपलब्धि को बहुत संकीर्ण तो बना ही दिया है, उसका उपयोग वे परस्पर नफरत फैलाने के लिये वैसा ही कर रहे हैं जैसा कि धर्म, राजनीति या सामाजिक विचारों का, विशेषकर हाल के वर्षों में करते आ रहे हैं। ऐसा करके हम न सिर्फ इस बड़ी उपलब्धि को छोटा बना रहे हैं वरन देश-दुनिया के तरक्की पसंद व वैज्ञानिक चेतना से युक्त वर्गों के बीच स्वयं का कद भी घटा रहे हैं।

चन्द्रयान-3 की सफलता से यह तो साबित हो गया है कि हमारे देश के वैज्ञानिकों की प्रतिभा असीम है और वे अपनी उपलब्धियों का झंडा सर्वोच्च ऊंचाइयों तक फहराना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ऐसे भी लोग हैं जो अपनी संकीर्णताओं से ऊपर उठना ही नहीं चाहते। वे नफरत के कीचड़ में गहरे धंसे हुए ही संतुष्ट हैं। अमेरिका, रूस व चीन जैसी सबसे बड़ी अंतरिक्ष शक्तियों के समकक्ष आने के बाद भी हम इस कामयाबी को उसी चश्मे से देख रहे हैं जिसका एक लेंस राजनैतिक विचारों का है तो दूसरा मज़हबी है। वैज्ञानिक उपलब्धि को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसने की बजाय ऐसे लोग चन्द्रयान-3 की सफलता को घृणा बढ़ाने का एक औजार बना रहे हैं।

विज्ञान इंसानों को संकुचित विचारों से बाहर निकालने का काम करता है लेकिन लगता है कि भारत में विज्ञान जैसी विधा का भी उपयोग परस्पर नफ़रत बढ़ाना ही हो गया है। इसलिये इस उपलब्धि पर जो लोग झूम रहे हैं वे अपने मज़हब और राजनैतिक विचारों के कारण, न कि विज्ञान में कोई रुचि या विश्वास के चलते। नफरत फैलाने व विरोधी विचारधारा के लोगों को नीचा दिखाने की जल्दबाजी देखिये कि अभी चन्द्रयान-3 ने अपना काम चांद की सतह पर ठीक से प्रारम्भ भी नहीं किया था और आनन-फानन में सोशल मीडिया पर इस कामयाबी को अपनी झोली में डालने के लिये वे लोग उतर पड़े जो मानते हैं कि विकास 2014 के बाद ही हुआ है।

कहा जा रहा है कि ‘देश की वैज्ञानिक प्रतिभा का सही इस्तेमाल अब कहीं जाकर प्रारम्भ हुआ है।’ इसके पहले भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन (इसरो) के अस्तित्व को नकारना तो उनके लिये सम्भव नहीं था लेकिन बहुत चालाकी बरतते हुए संस्थान के आगे बढ़ने का श्रेय विक्रम साराभाई को दिया गया- माइनस जवाहरलाल नेहरू का नैरेटिव गढ़ते हुए। यह जानते हुए भी कि इसरो उन्हीं की देन है लेकिन उन्हें श्रेय न देकर वे अपने उन राजनैतिक आकाओं को खुश करना चाहते होंगे जिन्होंने हाल ही में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू संग्रहालय का ही नाम बदल डाला है। एक पूरा समूह बुधवार की शाम से विरोधी विचारधारा, खासकर कांग्रेस के शासनकाल व उसकी उपलब्धियों पर पिला पड़ा हुआ है।

हालांकि ये लोग इस बात का जवाब नहीं दे पा रहे हैं कि अगर भारत सरकार की देश के वैज्ञानिक विकास में इतनी ही रुचि है तो अंतरिक्ष विज्ञान विभाग के 2023 के बजट में 32 प्रतिशत की कटौती क्यों की गयी है? जिसके कारण चन्द्रयान-3 और आदित्य एल-1 जैसी परियोजनाओं को 12500 करोड़ रुपये कम मिले। यह उससे पिछले साल की तुलना में 8 फीसदी कम राशि थी।

अगर बात सियासी मतभेदों तक सीमित होती तो बहुत दिक्कत नहीं थी क्योंकि कांग्रेस मुक्त नारे के साथ आई मौजूदा सरकार हर कदम पर पूर्ववर्ती सरकारों को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती जो मानती है कि 2014 के पहले कुछ विकास ही नहीं हुआ था। इस उपलब्धि का सबसे दुखद दुरुपयोग वैसा ही हो रहा है जिसकी आशंका थी और जिसका देश आदी हो चुका है। नफ़रतियों ने चांद पर चन्द्रयान के उतरने को एक मज़हब के अनुयायियों पर जीत के रूप में पेश कर दिया है। इस आशय के मीम, संदेश और कार्टून सोशल मीडिया पर खूब वायरल किये जा रहे हैं कि ‘कुछ देशों के तो केवल झंडों पर चांद है लेकिन भारत ने तो चांद ही फ़तह कर लिया है।’ ये तो बहुत थोड़े से उदाहरण हैं। इस सफल चन्द्रयान-3 मिशन की आड़ में परस्पर वैमनस्य व घृणा का सैलाब ही सोशल मीडिया बह रहा है।

सभी को यह समझना होगा कि यह उपलब्धि पूरी तरह भारतीय तो है ही, सामूहिक भी है। किसी धर्म या राजनैतिक विचारधारा से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। वैज्ञानिक शोध सार्वभौमिक होते हैं जिन पर किसी मज़हब या राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता। यदि हम अपनी इस महान उपलब्धि को इस प्रकार से सीमित करेंगे तो हमें इसके प्रति अन्य देशों से सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। पहले हम तो इस कामयाबी का सम्मान करना सीखें। यह उपलब्धि देश की मेधा और समर्पण का एक बड़ा हासिल है और यह किसी एक वर्ग की नहीं समग्र मानव की उपलब्धि है। उसे वैसा ही लिया जाना चाहिये।

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