राजनैतिकशिक्षा

दिल्ली में ‘सरकार’ कौन?

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (आप) को एक बार फिर विरोध-प्रदर्शन के लिए सड़क पर उतरना पड़ा है। मुद्दा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र संशोधन अधिनियम, 2021 का है। संसद में पारित होने और कानून बनाने के बाद केजरीवाल सरकार ‘प्रतीकात्मक’ बन सकती है और उपराज्यपाल (एलजी) ‘असली सरकार’ की भूमिका में केंद्र के वायसरॉय बन सकते हैं। यह विवाद शुरू हो चुका है। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद और दिल्ली में केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ को ऐतिहासिक जनादेश के बाद, सरकार के स्तर पर, जो भी समीकरण बने, उनसे एक संकेत जरूर मिलता रहा कि केंद्र सरकार एलजी के जरिए दिल्ली पर भी हुकूमत के चोर दरवाजे खोल देना चाहती है, बेशक लोकतंत्र ताक पर रख दिया जाए। मोदी सरकार केजरीवाल सरकार की कुछ जनोपयोगी योजनाओं और मुख्यमंत्री समेत ‘आप’ की लोकप्रियता को थामना चाहती है, लिहाजा दिल्ली सरकार को ‘नाममात्र’ बनाने की कवायद एक बार फिर की जा रही है। ध्यान रहे कि एक विशेष अधिनियम के तहत दिल्ली में विधानसभा और निर्वाचित सरकार की व्यवस्था की गई थी, लेकिन दिल्ली को संघशासित क्षेत्र ही रखा गया।

चूंकि दिल्ली में भारत सरकार, संसद, सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न देशों के दूतावास हैं, लिहाजा दिल्ली को ‘पूर्ण राज्य’ का दरजा नहीं दिया जा सकता। हालांकि इस मुद्दे पर राजनीतिक और चुनावी संघर्ष किए जाते रहे हैं। वायदे भी किए गए हैं, लेकिन संवैधानिक बाध्यता कुछ और ही है। केजरीवाल को यह एहसास राजनीति में आने और चुनाव लड़ने से पहले जरूर रहा होगा कि एक अर्द्धराज्य में एलजी की शक्तियां अधिक होती हैं और प्रशासनिक दृष्टि से वही ‘सरकार’ होते हैं, लेकिन केजरीवाल और उनके सहयोगी मंत्री, ‘आप’ के नेता और कार्यकर्ता जनादेशी सरकार और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जद्दोजहद करते रहे हैं। उनकी राजनीति ‘पीडि़त’ और ‘दमित’ दिखने की है। पिछली बार मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने ‘राजभवन’ के एक कक्ष में ही, लगातार नौ दिन तक, धरना देकर विरोध जताया था। एलजी दिल्ली में ‘मुहल्ला क्लीनिक’ की अवधारणा के खिलाफ थे। अंततः जीत केजरीवाल के आग्रह की हुई। हालांकि जुलाई, 2018 में सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने कार्यविभाजन स्पष्ट कर दिया था। उसके मुताबिक, राज्य सरकार फैसले लेने में स्वतंत्र होगी। एलजी को सूचना देना अनिवार्य होगा। हर फैसले से पहले एलजी की अनुमति जरूरी नहीं है। एलजी भी कैबिनेट की सलाह पर काम करेंगे। संविधान पीठ ने पुलिस, कानून-व्यवस्था और जमीन को एलजी के अधिकार-क्षेत्र में रखा था। एलजी और केजरीवाल सरकार के बीच तनातनी कोरोना-काल में भी सतह पर आती रही। बहरहाल वो कठोर और यंत्रणापूर्ण दौर गुजर चुका है।

एलजी और मुख्यमंत्री के बीच ऐसे बचकाना आदेश भी जारी होते रहे हैं कि अधिकारी एलजी को फाइल नहीं भेजेंगे अथवा मुख्यमंत्री के बजाय सभी फाइलें पहले एलजी को भेजी जाएं। अब एक तरफ दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके पार्टीजन जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन करने बैठे, तो दूसरी तरफ संसद में विमर्श होना है कि फैसलों की संवैधानिकता और नीतिगत परिप्रेक्ष्य तय करने में एलजी की भूमिका कितनी होनी चाहिए। फैसले कैबिनेट ही लेगी। अब भी कैबिनेट फैसले के बाद फाइल एलजी को भेजनी ही पड़ती है। सारांश लोकतंत्र के इर्द-गिर्द स्थित है। सवाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनी हुई सरकार का है। यदि केंद्र सरकार उसे बाधा महसूस करती है, तो यह संवैधानिक व्यवस्था ही खारिज कर दे। आधा-अधूरापन क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में सिर्फ हुकूमत ही सब कुछ होती है क्या? बेशक संविधान पीठ ने कहा था कि केंद्र सरकार इस पर कानून बनाए और अधिकार-क्षेत्रों को परिभाषित करे। यह काम केजरीवाल सरकार की सहमति से भी किया जा सकता था। ऐसे में ‘आप’ नेताओं के सवाल वाजिब लगते हैं कि यदि तमाम फैसले एलजी के स्तर पर कराने थे, तो फिर चुनाव की नौटंकी क्यों खेली जाती रही है? सरकार क्यों चुनी जाती है? मुख्यमंत्री और कैबिनेट को शपथ दिलाने का ढोंग क्यों रचा जाता है? आखिर जनोपयोगी योजनाओं और आम आदमी की तकलीफों के लिए निर्वाचित सरकार ही जिम्मेदार होती है, न कि एलजी। एलजी को तो कोई चुनाव नहीं लड़ना, तो वह जनता के प्रति ईमानदारी से जवाबदेह कैसे हो सकते हैं?

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