राजनैतिकशिक्षा

नीतीश की अमर्यादित भाषा

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दोनों सदनों में महिला के प्रजनन अधिकारों पर ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया है, जिसे अभद्र, अमर्यादित, असंसदीय और अंतत: अश्लील करार दिया जा सकता है। वह भाषा न तो लिख कर दोहराई जा सकती है और न ही कही जा सकती है। परिवार में भी इतनी मर्यादा और परदा रखा जाता है कि ऐसी भाषा को साझा नहीं किया जा सकता। ऐसे शर्मसार और निर्लज्ज बयान देने वाले नीतीश कुमार कमोबेश देश के पहले मुख्यमंत्री हैं। वह नौसीखिया राजनीतिज्ञ नहीं हैं, बल्कि बीते 18 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। ‘सुशासन बाबू’ विशेषण उनकी शख्सियत के साथ चिपका दिया गया है। बेशक ‘लड़कियों के लिए साईकिल’ और ‘शराबबंदी’ सरीखी योजनाएं उन्होंने बिहार में लागू कीं और पंचायत स्तर पर भी महिलाओं को आरक्षण दिया, लिहाजा नीतीश कुमार महिला वर्ग के ‘चहेते मुख्यमंत्री’ बने रहे हैं। उन्हें महिलाओं का भरपूर समर्थन भी मिलता रहा है, लेकिन स्त्री-पुरुष संबंधों और प्रजनन पर वह ऐसे ‘प्रोफेसर’ की मुद्रा में आ गए मानो मेडिकल के छात्रों को पढ़ा रहे हों! प्रोफेसर की भाषा भी ऐसी नहीं होती। मर्यादा क्यों जरूरी है आखिर? विधानसभा और विधान परिषद में इसकी क्या जरूरत थी? वे सदन सरकार की नीतियों पर विमर्श करने के लिए हैं। वहां मुख्यमंत्री ‘गुप्त ज्ञान’ नहीं बांट सकते। मुख्यमंत्री ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल नहीं कर सकते कि एक महिला मंत्री को मुंह छिपाना पड़े और एक महिला विधायक की रुलाई फूट पड़े। मुख्यमंत्री का चरित्र देखिए कि जब वह मर्यादाओं को लांघ रहे थे, तब मुस्करा भी रहे थे और सदन में कुछ पुरुष विधायकों ने ठहाके भी लगाए थे। लैंगिक अधिकारों के संदर्भ आते हैं, तो यह भारतीय राजनीति का चरित्र बार-बार उभर कर सामने आता है।

नीतीश को ‘सज्जन नेता’ माना जाता रहा है, लेकिन अब उससे भी मोहभंग हो गया है। बेशक मुख्यमंत्री ने खुद अपनी निंदा की है, शर्म महसूस की है, दुख भी प्रकट किया है और माफी मांगते हुए अपने शब्द वापस लिए हैं, लेकिन साथ में यह भी जोड़ दिया गया है कि ‘अगर किसी को तकलीफ…।’ यह हास्यास्पद राजनीति है। दरअसल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातीय सर्वेक्षण के संदर्भ में मांग की थी कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का कुल आरक्षण 65 फीसदी किया जाए। सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण भी है, लिहाजा आरक्षण की कुल सीमा 75 फीसदी की जाए। बिहार के ‘पिछड़ावादी’ मुख्यमंत्री लालू यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार कोटे के अलावा और क्या जानते हैं? और इसके अलावा बिहार को उन्होंने क्या दिया है? बिहार में सबसे अधिक करीब 35 फीसदी लोग गरीब हैं। प्रति व्यक्ति आय 54,383 रुपए है। औसतन 55 फीसदी छात्राएं ही साक्षर हैं, जबकि ग्रेजुएट का औसत मात्र 7 फीसदी है। बहुत बड़ी संख्या में बिहारी लोग मजदूरी करने या रिक्शा चलाने बड़े शहरों को पलायन कर जाते हैं। ग्रेजुएशन की डिग्री 4-5 साल में भी मिल जाए, तो गनीमत है। मुख्यमंत्री ने इन सब तथ्यों से आंख मूंद रखी है। अच्छा है कि ज्यादा महिलाएं शिक्षित हो रही हैं, लिहाजा प्रजनन दर को कम किया गया है। जनसंख्या की दर 4.3 से घटकर 2.9 हो गई है। ये आंकड़े बिहार के अधिकृत ब्योरे हो सकते हैं, लेकिन हम इन तथ्यों पर भी भरोसा नहीं करते। गंभीर सवाल यह है कि मुख्यमंत्री को ऐसी फूहड़ और भद्दी भाषा तथा छिछले इशारे करने की जरूरत क्या थी? हास्यास्पद है कि उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और उनके पार्टी प्रवक्ता मुख्यमंत्री के कथनों को ‘सही’ मान रहे हैं, बल्कि मुख्यमंत्री का महिमा-मंडन किया जा रहा है। आश्चर्य यह है कि विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन ने ऐसी भाषा पर टिप्पणी तक नहीं की।

 

 

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