तेल की तलब व पश्चिम एशिया का संकट
-राम पुनियानी-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
सात अक्टूबर 2023 को ‘हमास’ द्वारा इजराइल के कुछ ठिकानों पर हमले और करीब 200 यहूदियों को बंधक बना लिए जाने के बाद से इजराइल फिलिस्तीन पर हमले कर रहा है। दोनों ही तरफ के हमलों में सबसे ज्यादा नुकसान हिंसा का शिकार होने वालों का होता है, चाहे वे सैनिक हों या नागरिक। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस समेत कई पश्चिमी देशों ने इजराइल के साथ एकजुटता प्रदर्शित की है। यहां तक कि हमास के हमले के कुछ ही घंटों बाद, भारत ने उसका समर्थन कर दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मणिपुर के बारे में मुंह खोलने में कई महीने लगा दिए, लेकिन इजराइल के साथ हमदर्दी जताने में उन्होंने जरा भी देरी नहीं की। पूरे मामले में अपराधी बताया जाने वाला हमास (इस्लामी प्रतिरोध आन्दोलन) सन् 1987 में गठित फिलिस्तीनियों की एक सशर्स संस्था और मुख्य पार्टी है। इसके सशस्त्र विभाग का गठन 1992 में हुआ था। इस मामले में कई स्तंभकार केवल हमास को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और युद्ध की स्थितियां निर्मित करने के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी स्वागतयोग्य है कि इंग्लैंड और अमरीका में इजराइल के खिलाफ कई बड़े प्रदर्शन हुए हैं, हालांकि मीडिया ने उनकी बहुत कम चर्चा की है।
कई यहूदियों ने भी पश्चिम एशिया में इजराइल की नीतियों की कड़ी आलोचना की है। जहां तक भारत का सवाल है, उसकी नीतियां इस मुद्दे पर महात्मा गांधी के विचारों पर आधारित रही हैं। गांधी जी ने 1938 में लिखा था, ‘फिलिस्तीन उसी तरह से अरब लोगों का है, जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रांसीसियों का है।’ उन्होंने यह भी लिखा कि ईसाइयों के हाथों यहूदियों ने प्रताडऩा भोगी है, मगर इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें मुआवजा देने के लिए फिलिस्तीनियों से उनकी जमीन छीन ली जाए। यहूदी यूरोप में व्याप्त यहूदी-विरोधवाद के शिकार रहे हैं। यहूदियों के प्रति ईसाइयों के बैरभाव के कई कारणों में से एक यह है कि ऐसा माना जाता है कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाये जाने के लिए यहूदी जिम्मेदार थे। आगे चलकर व्यापारिक होड़ के कारण यह बैर और बढ़ा। यहूदी-विरोधवाद का सबसे क्रूर और सबसे हिंसक पैरोकार था एडोल्फ हिटलर, जिसने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया था। अकेले गैस चैम्बरों में 60 लाख यहूदी मारे गए थे। यूरोप में यहूदियों को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता था। इसी के नतीजे में ‘जोयनिज्म’ या ‘यहूदीवाद’ का जन्म हुआ। थियोडोर हट्र्सजल ने ‘दि ज्यूइश स्टेट’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी और इस मुद्दे पर स्विट्जरलैंड में कुछ यहूदियों की बैठक हुई। ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के हवाले से उन्होंने घोषणा की कि फिलिस्तीन की भूमि यहूदियों की है। उनका नारा था, ‘भूमि-विहीन मानवों (यहूदियों) के लिए मानव-विहीन भूमि (फिलिस्तीन)। ’ जाहिर है, यह नारा उस भूमि पर 1000 साल से रह रहे उन फिलिस्तीनियों के साथ बेरहमी करने का आह्वान था जो केवल मुसलमान नहीं थे। उनमें से 86 फीसदी मुसलमान, 10 फीसदी ईसाई और 4 फीसदी यहूदी थे। बहरहाल एक ‘ज्यूइश नेशनल फण्ड’ स्थापित किया गया और दुनिया भर से यहूदी फिलिस्तीन आकर वहां जमीन खरीदने लगे। शुरुआत में अधिकांश यहूदी भी यहूदीवाद के खिलाफ थे। जो यहूदी फिलिस्तीन में बसे, उनसे कहा गया कि वे अपनी जमीन न तो किसी अरब को किराये पर दें और न किसी अरब को बेचें।
उनका इरादा साफ था- धीरे-धीरे फिलिस्तीन पर कब्जा जमाते जाओ। यहूदियों की संख्या बढ़ती गयी, फिर एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते के अंतर्गत फिलिस्तीन का शासन इंग्लैंड के हाथ में आ गया और वहां की आतंरिक समस्याएं बढऩे लगीं। सन 1917 में इंग्लैंड ने ‘बेलफोर घोषणापत्र’ जारी कर ‘फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए गृहराष्ट्र की स्थापना’ का समर्थन किया। इस तरह फिलिस्तीन की समस्या की जड़ में ब्रिटिश उपनिवेशवाद है। यहूदी लेखक आर्थर केस्लेर ने ‘बेलफोर घोषणापत्र’ के बारे में लिखा, ‘इससे विचित्र दस्तावेज दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था। ’ अमरीकी-इजराइली इतिहासवेत्ता मार्टिन क्रेमर के अनुसार, ‘यह दस्तावेज संकीर्ण और तरह-तरह के प्रतिबंधों पर आधारित राजनैतिक यहूदीवाद की ओर पहला कदम था। ’ अरब लोगों ने 1936 के बाद से इस घुसपैठ का प्रतिरोध करना शुरू किया, परन्तु उसे ब्रिटेन ने कुचल दिया। हिटलर द्वारा यहूदियों की प्रताडऩा के चलते द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद यहूदी और बड़ी संख्या में यहां बसने लगे। यह दिलचस्प है कि यूरोप के देशों और अमरीका ने यहूदियों को उनके देश में बसने के लिए कभी प्रोत्साहित नहीं किया। कुछ वक्त बाद फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया गया- फिलिस्तीन और इजराइल, और यह तय हुआ कि येरुशलम और बेथलेहम को अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में रखा जाएगा।
जमीन का यह बंटवारा अरबों के हितों के खिलाफ था। लगभग 30 प्रतिशत यहूदी, जो सात प्रतिशत जमीन पर रह रहे थे, को 55 प्रतिशत जमीन दे दी गयी और फिलिस्तीनियों को केवल 45 प्रतिशत। फिलिस्तीनियों ने इस निर्णय को ‘अल-नकबा’ (तबाही) कहा। इजराइल को अमरीका और ब्रिटेन का पूरा समर्थन मिला। युद्धों के जरिये वह धीरे-धीरे अपने कब्जे की जमीन का विस्तार करता गया और आज स्थिति यह है कि वह मूल फिलिस्तीन की 80 प्रतिशत से भी ज्यादा जमीन पर काबिज है। फिलिस्तीनी अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बन गए हैं और आज 15 लाख फिलिस्तीनी सुविधा-विहीन कैम्पों में रहने पर मजबूर हैं। शुरुआती विस्थापनों में से एक में 14 लाख फिलिस्तीनियों को अपने घर-बार छोडऩे पड़े थे। इन्हीं विस्थापितों में से प्रतिरोध की एक नायिका लैला खालिद उभरी थीं। वे ‘पॉपुलर फ्रंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ पेलेस्टाइन’ की सदस्य थीं। प्रतिरोध के एक अन्य बड़े नायक थे- यासेर अराफात, जिन्होंने बीच का रास्ता चुना और फिलिस्तीन को वैश्विक मुद्दा बनाया। समाधान के कई प्रयास असफल हो गए जिनमें ‘ओस्लो समझौता’ शामिल है। जमीन को बांटकर वहां दो देशों- फिलिस्तीन और इजराइल, की स्थापना का प्रस्ताव इजराइल को मंज़ूर नहीं है, बल्कि इजराइल तो एक तरह से फिलिस्तीन को मान्यता ही नहीं देता। इजराइल की एक प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने कहा था ‘फिलिस्तीन जैसी कोई चीज नहीं है।’ इजराइल की मूल नीति यही है।
इजराइल लगातार फिलिस्तीन की भूमि पर कब्जा बढ़ाता जा रहा है और इस बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) के कई प्रस्तावों को इजराइल नजरअंदाज करता आ रहा है। अमरीका इजराइल की यहूदीवादी नीतियों का खुलकर समर्थन करता रहा है और इसके बदले इजराइल पश्चिम एशिया में कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा जमाने में अमरीका की मदद करता रहा है। दुनिया में शायद ही कोई समुदाय इतना प्रताडि़त हो, जितना कि फिलिस्तीनी हैं। वे उनकी ही भूमि पर कुचले जा रहे हंै, उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा है। फिलिस्तीनी ब्रिटिश उपनिवेशवाद और अमरीका साम्राज्यवाद के शिकार हैं। पिछले कुछ दशकों में यूएनओ को बहुत कमजोर बना दिया गया है। ऐसे में इन प्रताडि़त लोगों को कौन न्याय देगा? यह दुखद है कि हिटलर ने यहूदियों के साथ जो किया, वही यहूदी फिलिस्तीनियों के साथ कर रहे हैं। यह अन्याय यदि और गंभीर होता जा रहा है तो इसका कारण है पश्चिमी देशों का इजराइल को अंध-समर्थन। वे स्वीकार नहीं करना चाहते कि समस्या के मूल में यहूदी विस्तारवाद और फिलिस्तीनियों का दमन है। आवश्यकता इस बात की है कि पश्चिम एशिया के संकट के सुलझाव के लिए शांति और न्याय पर आधारित आंदोलन चलाया जाए। वर्तमान स्थिति में एकमात्र अच्छी बात यह है कि इजराइल की मनमानी के खिलाफ प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में यहूदी भी हिस्सा ले रहे हैं।