परिवारवाद की व्याख्या राजशाही से
-सनत जैन-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भोपाल आए थे। उन्होंने पत्रकारों के सवाल के जवाब में परिवारवाद की राजनीति को जहर करार देते हुए कहा, परिवारवाद की व्यवस्था में जब किसी पार्टी और उसके नेतृत्व वाली सरकार पर नियंत्रण, एक ही परिवार के हाथों में होता है। उसे ही परिवारवाद कहा जाता है। अभी तक परिवारवाद को लेकर यह कहा जा रहा था कि राजनीति में एक ही परिवार के सदस्यों को टिकट देने और पद देने को परिवारवाद कहा जाता है। 1977 के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों का गठन होना शुरू हुआ जिन राजनेताओं ने नई पार्टी का गठन किया वह उस पार्टी के सर्वोसर्वा बन गए। क्योंकि उनका प्रभाव अपने पार्टी और मतदाताओं के बीच में बना रहता था इसके कारण वह जिसको भी टिकट देते थे वह चुनाव जीत जाता था। भारतीय जनता पार्टी ने 2012 के बाद से परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों का विरोध करना शुरू कर दिया। भोपाल में जिस तरह से उन्होंने परिवारवाद की नई परिभाषा दी है। उसके अनुसार समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, टीएमसी, शिवसेना,(उद्धव ठाकरे) एनसीपी डीएमके अन्ना डीएमके जनता दल यू जनता दल एस राजद इत्यादि सभी राजनीतिक दलों को परिवारवादी पार्टी मानकर भाजपा विरोध करती रही है। भारतीय जनता पार्टी में भी बड़ी संख्या में परिवार के कई सदस्यों विधायक सांसद और मंत्री बने हुए हैं। इसको लेकर विपक्ष ने अब भाजपा पर परिवारवाद को लेकर हमला तेज कर दिया है।अमित शाह ने बचाव करते हुए कहा, कि भाजपा में कोई यह नहीं कह सकता है। कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन बनेगा।भाजपा का कोई नेता ऐसा दावा नही कर सकता है। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी राजनाथ सिंह इत्यादि नाम का उल्लेख करते हुए कहा, कि किसी के परिवार को वह पद नहीं दिया गया है। उन्होंने गांधी परिवार पर हमला करते हुए कहा कि एक के बाद एक इसी परिवार के लोग अध्यक्ष क्यों बनते हैं। भारत में कांग्रेस सहित सभी प्रादेशिक राजनीतिक दलों में परंपरागत रूप से सत्ता स्थानांतरण होती है। वह परिवारवाद के दायरे में आती है। राजनीति में जिस तरह से बार-बार अपनी सुविधानुसार परिभाषा को राजनेताओं द्वारा बदल दिया जाता है। उसको लेकर अब आम जनों में इसकी कोई प्रतिक्रिया होती हुई नजर नहीं आ रही है। भारतीय जनता पार्टी में 2014 के बाद से 75 वर्ष की उम्र में नेताओं को रिटायर करने, उनके परिवार जनों को टिकट ना देकर नए लोगों को टिकट देने का काम शुरू किया गया है। इसके बाद से ही परिवारवाद को निशाने पर रखा जा रहा है। इसके बाद बीजेपी में एक ही परिवार से 2 लोगों को राजनीति में प्रवेश नहीं दिया गया था। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को अपने ही बनाए नियम तोड़ना पड़े। एक नई बयार भाजपा के अंदर से बहना शुरू हुई है। उसमें भाजपा नेताओं ने भी यदि 75 वर्ष की उम्र में उनकी टिकट काटने की बात कही जाती है। ऐसी स्थिति में भाजपा नेता अपने परिवार की सदस्य को ही टिकट दिलाने कर्नाटक में अड़ गए, तो भाजपा को वहां टिकिट देनी पडी। अब यही स्थिति हिंदी भाषी राज्यों में विशेष रूप से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में देखने को मिल रही है। भारतीय जनता पार्टी में भी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के परिवारजन राजनीति में बने हुए हैं। इसके कारण भाजपा को अब परिवारवाद की परिभाषा बदलना पड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी ने कह दिया है, कि परंपरागत रूप से पार्टी की सत्ता एक ही परिवार के लोगों में ट्रांसफर होती है। वही परिवारवाद है। राजशाही की तरह, लोकतंत्र में इसे परिवारवाद भाजपा ने मान लिया है। बहरहाल अपनी अपनी सुविधानुसार अपने नियम कायदे, कानून, धारणा बना लेना बड़ा आम हो गया है। जनता के बीच इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। यह तो जनता को ही तय करना है। भारत में वैसे भी कुल परंपरा सदियों से चली आ रही है। पूर्वजों के संस्कार ओर पूर्वजों के कामों को आगे बढाने का काम नई पीढ़ी करती है।कांग्रेस बहुत पुरानी पार्टी है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अभी तक गांधी परिवार सतत राजनीति में है।देश और दुनिया में उन्हें स्वीकार किया जा रहा है। मतदाता उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चलकर भेजता है। उनकी पार्टी संगठन के पदों पर उन्हें चुनती है। ऐसी स्थिति में परिवारवाद का मुद्दा पिछले 10 सालों में बना था। उसका प्रभाव अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। परिवारबाद को लेकर अब भाजपा के अंदर ही विद्रोह की स्थिति पैदा होने लगी है। अतः यह मामला अब ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है।