महागठबंधन में दलित
-प्रेमकुमार मणि-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
23 जून को गैरभाजपा दलों की पटना में प्रस्तावित बैठक के ठीक पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी का नीतीश सरकार से अलग हो जाना प्रभावकारी भले न हो, अपशकुन तो है ही। संस्कृत में इसे ही कहते हैं प्रथमग्रासे मक्षिकापात। प्रथम कौर में ही मक्खी का गिरना। राजनीति के पेचोखम से परिचित कोई भी कह सकता है कि इस घटना ने 23 जून की बैठक का जायका ख़राब कर दिया है। राजनीति और कुछ नहीं एक मनोवैज्ञानिक युद्ध है और इसमें छोटी दिखने वाली घटनाएं भी महत्व रखती हैं। 1920 की एक ऐसी ही छोटी घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर ऐसा प्रभाव डाला कि अंततः भारत का विभाजन हुआ। इसे रोकने की लाख कोशिशें विफल हो गईं। घटना का ब्यौरा जानना हर हिंदुस्तानी केलिए जरूरी है। 3 अक्टूबर 1920 को होमरूल की बैठक मुंबई में हो रही थी। कुल जमा 61 लोग शामिल थे। गांधी सभापतित्व कर रहे थे। जिन्ना भी बैठक में थे। गांधी ने खिलाफत और असहयोग का समर्थन सम्बन्धी प्रस्ताव लाया। जिन्ना खिलाफत का समर्थन नहीं चाहते थे क्योंकि यह एक दूसरे मुल्क का मामला था और उस पर भारतीय हस्तक्षेप बेमानी था। जिन्ना की मांग थी कि इस विषय पर बहस हो। उस समय हिंदुस्तान के मुसलमानों का दकियानूसी तबका गांधी का अंध समर्थन कर रहा था और जिन्ना एक तरह से उपहास के पात्र बने हुए थे। गांधी ने वोटिंग का प्रस्ताव ला दिया और वोट में 43 के मुकाबले केवल 18 सदस्य जिन्ना के पक्ष में रहे। यहाँ तक तो ठीक था। लेकिन हद यह हुई कि गांधी ने घोषणा की कि बहुमत का फैसला न स्वीकार करने वाला व्यक्ति या समूह इस संगठन से इस्तीफा देने केलिए स्वतंत्र है। यह सीधे जिन्ना को धकेलना था। जिन्ना ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन यह बात कभी नहीं भूल सके। दुनिया जानती है कि इसका नतीजा क्या हुआ।
राजनीति को अल्पकालिक और दीर्घकालिक नतीजों के अनुमान के साथ देखा जाना चाहिए। बहुमत और शक्ति का अहसास लेकर जो चलते हैं, वे हमेशा जीतते ही नहीं हैं। महाभारत कथा में कौरव इस अभिमान में हार गए कि पांडव ताकत और संख्या बल दोनों में कमजोर हैं। लेकिन अक्षौहिणी सेना धरी रह गई। रामायण कथा में पुजारी तबियत के विभीषण के विद्रोह को रावण ने महत्व नहीं दिया। लेकिन वही विभीषण रावण की हार का कारण बना।
जीतनराम को सतह से ऊपर स्वयं नीतीश कुमार ने लाया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरे प्रदर्शन के बाद जब नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया तब जीतनराम को यह कहते हुए मुख्यमंत्री बनाया कि पार्टी को प्राप्त कुल पंद्रह फीसद वोट में से आधे वोट महादलितों के हैं इसलिए इस पद पर आने के योग्य आप ही हैं। यह एक बड़ी समझदार राजनीतिक उद्घोषणा थी। नीतीश कुमार केलिए पूरे देश के दलितों में एक सम्मान-भाव आया था। बाद में मतभेद की खबरें आईं। उस वक्त भी एक खुला पत्र लिख कर मैंने नीतीश कुमार से अनुरोध किया था कि राजनीतिक पेचोखम को समझें। आप शम्बूक का नहीं, हनुमान का वध करने जा रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार के कान में जहर भर दिया गया था। जीतनराम को नीतीश कुमार से कोई शिकायत नहीं थी। उन्हें शिकायत थी उनके मंत्रियों से जिनमें एक आज नीतीश कुमार की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और दूसरे उनकी सरकार के महाधिवक्ता हैं। इन दोनों को जीतनराम ने सरकार से निकाल बाहर किया था। दरअसल वही लड़ाई आज भी है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष उस दंश को आज भी नहीं भूल सके हैं कि किस तरह जीतनराम ने उन्हें सरकार से बाहर कर दिया था। जीतनराम को तो असली मुकाम पर पहुंचा दिया गया। बदला लिया जा चुका कि हमने भी तुम्हें सरकार से बाहर होने पर मजबूर कर दिया। लेकिन इसका राजनीतिक प्रभाव क्या पड़ेगा और परिणाम कौन भुगतेगा।
बिहार में भाजपा विरोधी सबसे जोरदार सामाजिक समूह यदि कोई है तो वह दलितों का है। कोई सत्रह फीसद वोट हैं। लालू और नीतीश दोनों की राजनीति ने दलितों को हाशिए पर रखा। कांग्रेस में भी कोई कद्दावर दलित नेता इस बीच नहीं उभरा। पुराने लोहिया कर्पूरी प्रभाव काल में बिहार की सोशलिस्ट राजनीति में अनेक दलित नेता कार्यकर्ता थे। रामसुंदर दास,रामविलास पासवान, शिवनंदन पासवान,से लेकर हाल के रमई राम तक सक्रिय भूमिका में होते थे। कांग्रेस में भी जगजीवन राम, मुंगेरीलाल, भोला पासवान शास्त्री और जाने कितने नेता थे। आज सबकी जगह खाली है। महागठबंधन में दलितों का थोड़ा सरोकार भाकपा माले के साथ है। जदयू और राजद से दलितों का मोहभंग हो चुका है। वहां जो दलित नेता अभी बचे हुए हैं स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे हैं। वे घुटन में जीने केलिए अभिशप्त हैं। जदयू और राजद ने अपने दलित नेताओं को एक एक कर बारी बारी से अपमानित किया है। दिवंगत रामविलास पासवान, रामसुंदर दास,रमई राम से लेकर जीतन राम और दूसरों का हाल कोई भी जान समझ सकता है।
और ऐसे में आप चले हैं भाजपा की चुनौती स्वीकार करने। क्या यह संभव है? जीतनराम को लोभी -लालची स्वार्थी कहा जा रहा है। वह दलितों की नहीं अपने परिवार की राजनीति करते हैं। बात गलत नहीं है। लेकिन यह सब किस से सीखा। लालू प्रसाद का दोनों बेटा मंत्री बने तो सामाजिकन्याय और जीतनराम का बेटा बने तो जीतनराम स्वार्थी। यह जुमला कैसे चल सकता है। मैं नहीं जानता महागठबंधन में भीतर क्या चल रहा है। लेकिन जो घटनाएं हो रही हैं वे दुर्भाग्यपूर्ण है। कांग्रेस ने अपने यहाँ दलितों को हासिये पर ला दिया है। राजद और जदयू उनकी जानी दुश्मन बनी दिखती हैं। ऐसे में दलित वोट, जो स्वाभाविक तौर पर भाजपा विरोधी हैं, क्योंकि हिंदुत्व के सांस्कृतिक राजनीति का सबसे कारगर विरोध वही कर रहे हैं, का इस तरह महागठबंधन से पलायन उसके लिए खतरनाक हो सकता है।