राजनैतिक

किसान हैं वास्तविक कृषि वैज्ञानिक-अर्थशास्त्री

-प्रताप सिंह पटियाल-

(ऐजेंसी/सक्षम भारत)

अतीत से भारत के अर्थतंत्र का आधार स्तम्भ तथा देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा किसान वर्ग पूरा वर्ष अपने पुश्तैनी व्यवसाय खेती-किसानी में मशरूफ रहता है। 23 दिसंबर का दिन ‘किसान दिवस’ के तौर पर देश के किसानों को समर्पित है। हमारे देश में विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। कुछ समय तक आबादी का यह आकंड़ा 150 करोड़ तक पहुंचने वाला है। यदि देश में इतनी बड़ी जनसंख्या को जीवन की बुनियादी जरूरत अनाज, फल, सब्जियां व दुग्ध पदार्थ भरपूर मात्रा में मुहैया हो रहे हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाखों परिवारों को सस्ते अनाज की आपूर्ति हो रही है, देश के स्कूलों में करोड़ों बच्चों को मिड-डे मील उपलब्ध हो रहा है, 1965 से वजूद में आए भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लाखों मीट्रिक टन अनाज मौजूद है, खाद्यान्न संकट से उबरने के बावजूद भारत प्रतिवर्ष दुनिया के कई देशों को करोड़ों टन अनाज निर्यात कर रहा है तो यह कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की सुजात गवाही है। इस इंकलाब के वास्तविक अदीव अर्थशास्त्री व कृषि वैज्ञानिक हमारे देश के मेहनतकश किसान हैं। मगर विडम्बना यह है कि अपने बाहुबल तथा पसीने से देश के अर्थशास्त्र को मुन्नवर करने वाले किसान एक मुद्दत से खेतों के बजाय सड़कों पर किलेबंदी करके अपना भाग्य तराश रहे हैं।

देश के कई सियासी रहनुमाओं ने किसानों का सरपस्त बन कर अपने सियासी सफर का आगाज किया और जम्हूरियत की बुलंदी पर पहुंच गए, मगर अपने वोट से मुल्क के हुक्मरानों का मुकद्दर तय करके देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदलने वाले किसानों की तकदीर नहीं बदली। देश में किसानों का किरदार महज अन्नदाता से कर्जदाता व मतदाता तक ही सीमित रह गया। बेशक हमारे शासकों ने देश में कृषि सुधारों के मद्देनजर कई योजनाएं बनाई जिनमें किसानों को कृषि उपयोग उपकरण तथा उन्नत किस्म के बीज रियायती दरों पर उपलब्ध कराए जाते हैं। ‘पीएम फसल बीमा योजना’ तथा ‘किसान सम्मान निधि’ आदि योजनाएं लागू हैं, लेकिन मौजूदा दौर में किसान तीन नए कृषि कानूनों के एहतजाज में तहरीक पर उतर आए हैं। ज्यादातर किसानों की मांग है कि उनके कृषि उत्पाद के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा दिया जाए। किसानों को उनकी उपज का उचित दाम दिलाने के लिए सरकारें ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के सुझावों पर फसलों का एमएसपी तय करती हैं। इस सूची में कुल 23 फसलें शामिल हैं जिनमें 7 अनाज, 7 तिलहन, 5 दलहन तथा 4 नकदी फसलें हैं। इन्हीं फसलों में मक्का की फसल भी शामिल है। देश में धान व गेहूं के बाद मक्का की सर्वाधिक पैदावार होती है, मगर खरीफ के मौसम की फसल मक्का हिमाचल की मुख्य फसल है। हिमाचल प्रदेश के निचले जिलों में मक्की की बडे़ पैमाने पर काश्तकारी की जाती है। मक्की की औसत पैदावार के उत्पादन में प्रदेश देश के बडे़ राज्यों में शुमार करता है।

पर्वतीय प्रदेश हिमाचल के दूरदराज क्षेत्रों के किसानों को कृषि उत्पाद बेचने के लिए नजदीक पर्याप्त अनाज मंडी या मुफीद बाजार के अभाव के बावजूद राज्य से प्रतिवर्ष हजारों टन मक्की का निर्यात होता है। इस वर्ष सूखे की मार झेलने के बाद भी राज्य में मक्की की बंपर पैदावार हुई तथा सरकार ने मक्की का एमएसपी 1850 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया था। मगर वाजिब दाम के मोहताज किसानों को मक्की लागत से भी कम मूल्य पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। हिमाचल में पैदा होने वाली परंपरागत शुद्ध पहाड़ी किस्म की मक्की की गुणवत्ता व पौष्टिकता के मानकों पर कोई विकल्प नहीं है। इसी कारण इसकी भारी मांग भी रहती है, जबकि पहाड़ी किस्म की मक्की का समर्थन मूल्य हाईब्रिड या अन्य संकर प्रजाति की मक्की की अपेक्षा ज्यादा तय होना चाहिए। लेकिन राज्य में सरकारी खाद्यान्न खरीद केन्द्र या अन्य एजेंसी की दरकार के चलते किसानों को मक्की स्थानीय व्यापारियों को औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ती है। देश के किसानों का 80 फीसदी तबका सीमांत व छोटी जोत के कृषकों का है। हिमाचल के ज्यादातर किसान इसी श्रेणी में आते हैं जो अपनी फसलों को एमएसपी पर बेचने से महरूम रह जाते हैं। जब किसानों को सरकारों द्वारा घोषित फसलों का एमएसपी नहीं मिलेगा तो इसे तय करने का कोई औचित्य नहीं। अतः सूबे की हुकूमत को किसानों को राहत देने के लिए राज्य में मक्की अनाज पर आधारित उद्योग व फसल कलेक्शन सेंटर तथा भंडारण व्यवस्था जैसे किसान हितों की पैरवी वाले मुद्दों पर तवज्जो देनी होगी। किसानों के लिए परेशानी कम नहीं है। कृषि क्षेत्र खरपतवार व जंगली जानवरों तथा लावारिस पशुओं के कहर से मुतासिर, मौसम का बेरूखा मिजाज, फसलों के अवशेष जलाने पर ‘एनजीटी’ का कानून, किसानों को मिलने वाली सबसिडी पर ‘विश्व व्यापार संगठन’ की तन्कीदगी। तमाम गर्दिश के बाद कृषि उत्पादन का मोल-भाव बाजार तय करता है।

साथ ही उपज के दाम गिर जाते हैं। इन तमाम उलझनों के चलते कृषि व किसान के बीच असमंजस की स्थिति बनने से देश के मजबूत किसान मजबूर होकर मजदूर बनने पर आमादा हैं। गौर रहे किसान अक्सर फसल की वाजिब कीमत के मद्देनजर ही आगामी फसलों पर फोकस करते हैं। इसलिए जब तक किसानों को उपज का वास्तविक दाम नहीं मिलेगा, कृषक समाज गुरबत व मुफलिसी के दायरे से बाहर नहीं निकलेगा। बहरहाल कृषि क्षेत्र की सम्पन्नता के लिए आधुनिक तकनीक के साथ उम्दा कृषि नीतियों की निहायत जरूरत होती है। इसलिए कृषि कानूनों की मुखालफत में किसान इजलास में शामिल होकर अनशन पर बैठकर व सियासी तकरीरों से या अवार्ड लौटाने तथा कृषि कानून की प्रतियां फाड़ने से किसानों की समस्याएं हल नहीं होंगी। किसान हितों पर खेत-खलिहान में पुश्तैनी व्यवसाय के तजुर्बेकार किसानों को ही बेहतर ईल्म है। लाजिमी है कृषि क्षेत्र में तरमीम के लिए बनाई गई नीतियों व कानूनी मसौदे पर रायशुमारी के लिए किसानों से सलाह-मश्विरा व खुले तौर पर मुजाकरात होना चाहिए। स्मरण रहे सरहद पर जवान और खेत में किसान मजबूत चाहिए, न कि मजबूर।

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