बदली-बदली सुप्रीम कोर्ट नज़र आती है….!
-ओमप्रकाश मेहता-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
आज के राजनीति के आपाधापी भरे इस माहौल में हर भारतवासी की आस्था, विश्वास और आशा का केन्द्र सिर्फ और सिर्फ न्याय पालिका ही रह गई है, अब प्रजातंत्र की वास्तविक परिभाषा ‘‘जनता का शासन, जनता के लिए शासन और जनता के द्वारा शासन’’ की रक्षा का दायित्व भी न्याय पालिका पर ही केन्द्रीत हो गया, अब देश के आम आदमी का न विधायिका पर भरोसा रहा है और न कार्यपालिका पर, इसलिए न्याय पालिका ही शेष बची है जिस पर देश को भरोसा है…. और यह एक सुखद अवसर है जब देश की न्याय पालिका के सर्वोच्च शिखर सर्वाच्च न्यायालय ने देश की भावना को अच्छी तरह समझ लिया है और आम जनभावना के अनुसार देशवासियों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में काम करना भी शुरू कर दिया है। जिसके ताजा उदाहरण ‘‘हेट स्पीच’’ के चलन के प्रति सुप्रीम कोर्ट की नाराजी और केन्द्र सरकार के कतिपय फैसलों व केन्द्र के कथित असहयोग के प्रति अपनी खुलकर नाराजी व्यक्त करना है।
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सम्बंधित प्रजातांत्रिक क्षेत्र की सेवा, वहां के निवासियों के अधिकारों की रक्षा तथा क्षेत्रीय कल्याण का दायित्व मुख्य रूप से सरकार पर होता है और इस सरकार के क्षेत्र में केन्द्र व राज्य दोनों शामिल है और प्रजातंत्र का एक प्रमुख अंग विधायिका अपना दायित्व सरकार के माध्यम से ही पूर्ण करती है और जहां तक प्रजातंत्र के दूसरे अंग कार्य पालिका का सवाल है, वह तो विधायिका या सरकार के नियंत्रण में ही रहता है, अब बचा सिर्फ तीसरा अंग जिसे न्याय पालिका कहा गया है, अब आज जब प्रजातंत्र के दो अंगों कार्य पालिका व विधायिका ने अपने मूल दायित्व जनसेवा, जनरक्षा व जनकल्याण से पल्ला झाड़ लिया है, तब पूरे देशवासियों की नजर न्याय पालिका पर ही आकर ठहरा गई है और यह न्याय पालिका पर अहम् दायित्व आ पड़ा है जिसे न्याय पालिका पूरा करने का प्रयास कर रही है।
इसीलिए अब न्याय पालिका ने जहां केन्द्र सरकार के आदेशों व फैसलों पर तीखी टिप्पणियां शुरू कर दी है, वहीं बहुत कुछ अंशों तक न्याय पालिका व विधायिका (सरकार) एक-दूसरे के सामने खड़ी हो गई है, इसका एक अहम् कारण यह भी बताया जा रहा है और वह है विधायिका अर्थात् सरकार का प्रजातंत्र के दूसरे अहम् अंग न्याय पालिका के क्षेत्राधिकार में गैर संवैधानिक हस्तक्षेप। इसका ताजा उदाहरण केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट से लेकर नीचे तक के सभी न्यायधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथों में लेने की कौशिश है जबकि अभी तक यह अहम् दायित्व एक सर्वोच्च समिति ‘कॉलेजियम’ का था, अब केन्द्रीय कानून मंत्री ने बयान दिया है कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर सभी न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्तियां केन्द्र सरकार का कानून मंत्रालय ही करेगा, सरकार के इस फैसलें से सरकार व न्याय पालिका के बीच तलवारें तन गई है, न्याय पालिका व संविधान विशेषज्ञों की दलील है कि यदि न्यायधीशों की नियुक्ति व तबादलों का अधिकार केन्द्र के अधीन आ जाएगा तो फिर निष्पक्षता के लिए अब तक लोकप्रिय न्याय पालिका निष्पक्ष नहीं रह पाएगी और उसे भी सरकार के साथ ताल-मेल बनाकर चलना पड़ेगा, जबकि अभी न्याय पालिका प्रजातंत्र का एक निष्पक्ष अंग है, शायद सरकार के फैसलों पर न्याय पालिका द्वारा प्रकट की जा रही नाराजगी को देखते हुए केन्द्र सरकार संसद-विधान सभाओं व कार्यपालिका की तरह न्याय पालिका को भी अपने कब्जें में रखना चाहती है, इसलिए सरकार ने यह एक तरफ फैसला लिया है, केन्द्रीय कानून मंत्री ने तो न्यायधीशों पर अपनी थौंथी दलील पेश करते हुए उन पर राजनीति करने तक का आरोप लगा दिया है। जबकि हमारे संविधान ने सिर्फ देशहित के कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार या विधायिका को दी है, न्याय प्रक्रिया व न्यायालयों के संचालन की नहीं, मूलतः सरकार में विराजित राजनेता यह जानते है कि उनका नियंत्रण न्याय पालिका पर ही नहीं है, इसलिए वे येन-केन-प्रकारेण न्याय पालिका को अपने अधीन करने के प्रयास में जुटे है जिससे कि न्यायाधीशगण सरकार के नियंत्रण में आ जाए और सरकार के फैसलों के विरोध में फैसले जारी न करें? और एक क्षण के लिए यह सोचिये कि केन्द्र सरकार अपने इस गैर संवैधानिक प्रयास में सफल हो जाती है तो फिर देश की जनता का विश्वास केन्द्र कौन रहेगा और फिर प्रजातंत्र की मूल भावनाओं को मूर्त रूप कैसे मिल पाएगा?
अब यह एक ऐसी अजीब स्थिति निर्मित हो गई है, जिस पर देश के बुद्धिजीवी मतदाताओं को गहन चिंतन कर अपना फैसला लेना होगा, वर्ना यदि यह हो गया तो फिर देश का प्रजातंत्र के तानाशाही के रूप में बदलने में देरी नहीं लगेगी और इस पर गहन चिंतन कर फैसला केवल और केवल देश की जागरूक जनता ही कर सकती है, वर्ना देश में तानाशाही तंत्र पैदा हो जाएगा।