राजनैतिकशिक्षा

गलत निर्णयों का दंश झेलती आबकारी नीति

-प्रवीण कुमार शर्मा-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

प्रदेश का विकास सरकार की नीतियों और नियत पर निर्भर करता है। नीतियों का निर्माण और उसमें सुधार एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। ऐसे में नीति निर्माण में कमियों की भरपाई संभव है, परंतु गलत नीति अपनाई जाए तो यह विकास की प्रक्रिया पर गहरी चोट करता है। प्रदेश में वित्तीय कुप्रबंधन के लिए भले ही कांग्रेस और भाजपा आज एक-दूसरे पर प्रहार कर रही हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि गलत नीतियों की संस्कृति ने आज प्रत्येक हिमाचली के सिर पर लगभग एक लाख रुपए का बोझ चढ़ा दिया है और वर्तमान स्थिति यह है कि पहले से लिए गए कर्ज के ब्याज को चुकाने के लिए भी सरकार को नया कर्ज लेना पड़ रहा है।

हिमाचल प्रदेश के कुल राजस्व में आबकारी विभाग एक बड़ा अंशदाता है। राज्य की आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा शराब के ठेकों की नीलामी से आता है। आबकारी विभाग इसके लिए तीन तरह की प्रक्रिया को अपनाता रहा है। पहला टेंडर और नीलामी, जिसमें विभाग गत वर्ष में ठेकों की नीलामी में हुई आय में कुछ प्रतिशत वृद्धि करने के पश्चात टेंडर जारी करता है और साथ में नीलामी प्रक्रिया को भी अपनाता है, जिससे उसे किसी भी ठेके की नीलामी की सर्वाधिक कीमत मिल जाती है। यह एक विश्वसनीय प्रक्रिया है जिसमें सरकार कभी घाटे में नहीं रहती है। पर शराब के ठेकेदारों को प्रतिस्पर्धा के कारण यह प्रक्रिया कभी रास नहीं आती है।

वर्ष 2018 में सत्ता संभालने के पश्चात जयराम सरकार ने गत वीरभद्र सरकार के दौरान आबकारी नीति में अनियमितताओं के लिए अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की घोषणा की और पूर्व सरकार द्वारा गठित हिमाचल प्रदेश बेवेरेजिस लिमिटिड (एचपीबीएल) को भी भंग कर दिया जो एक सही कदम था और एक नई आबकारी नीति के तहत वित्तीय वर्ष 2018-19 के लिए शराब के ठेकों की नीलामी की जगह एक दूसरी प्रक्रिया अपनाते हुए गत वर्ष की नीलामी में कुछ प्रतिशत की वृद्धि के साथ लॉटरी सिस्टम के द्वारा प्रदेश के सभी ठेकों को आवंटित कर दिया। वर्ष 2019-20 में तीसरी तरह की प्रक्रिया को आजमाया गया जिसमें पूर्व मंक आवंटित ठेकों को मात्र 4 फीसदी की वृद्धि के साथ नवीनीकरण कर दिया गया । शायद इससे बड़ा धोखा प्रदेश के साथ पहले कभी हुआ हो।

वर्ष 2020-21 और 22-23 के लिए कोरोना के नाम पर पुन: नवीनीकरण की प्रक्रिया अपनायी गयी जिसका परिणाम यह निकला कि जो आबकारी विभाग वर्ष 2012 से 2017 के बीच औसतन प्रतिवर्ष 12 फीसदी वृद्धि दर के साथ राजस्व प्राप्त कर रहा था, उसकी आय में वृद्धि दर वर्ष 2018-19 में 4.70 फीसदी, वर्ष 2019-20 में 5.83 और वर्ष 2021 में 3.65 फीसदी तक सिमट कर रह गयी। दूसरी तरफ ठेकेदारों की पौ बारह हो गयी। एक तरफ वो नीलामी प्रक्रिया से बच गए जिसके कारण उन्हें प्रतिस्पर्धा के चलते अधिक कीमत पर ठेके मिलते थे। दूसरा लंबे समय से एक ही जगह पर जमे होने के कारण बन गए एकाधिकार के चलते शराब की कीमतों पर आसानी से नियंत्रण कर पा रहे थे। इतने लाभ की स्थिति में ठेकेदार शायद ही कभी रहे हों।

पूर्व सरकार द्वारा टेंडर व नीलामी न करवा कर नवीनीकरण की नीति के कारण प्रदेश के राजस्व को काफी हानि पहुंची। शराब के ठेकों की नीलामी न हो पाने के कारण प्रदेश को अरबों रुपयों का चूना लगा। वर्तमान प्रदेश सरकार ने इस बार नवीनीकरण फार्मूले को दरकिनार करके एक बार पुन: टेंडर और नीलामी की प्रक्रिया को अपनाया, फलस्वरूप प्रदेश के इतिहास में शराब के ठेके पहली बार 40 फीसदी अधिक दाम पर नीलाम हुए। प्रदेश सरकार को इससे गत वर्ष की तुलना में इस बार 518 करोड़ रुपये अधिक मिले। वर्ष 2022-23 में प्रदेश सरकार को जहां 1296.93 करोड़ रुपये प्राप्त हुये थे, टेंडर और नीलामी प्रक्रिया के कारण यह राशि बढक़र 1815.35 करोड़ रुपये पहुंच गयी।

पिछले पांच वर्षों में शराब के ठेकों का आवंटन अगर टेंडर व नीलामी प्रक्रिया के तहत हुआ होता तो आबकारी विभाग की वार्षिक आय में वृद्धि 4 फीसदी के बजाय 10 फीसदी के आसपास होती। इस स्थिति में बोली के लिए इस बार रिजर्व प्राइस 1444.27 करोड़ रुपये से कहीं अधिक होता और परिणामस्वरूप अब तक आबकारी विभाग की आय 3000 करोड़ रुपये से कहीं अधिक हो चुकी होती, जो कि प्रदेश की वित्तीय दशा को सुधारने की दिशा में एक बड़ा कदम होता। वर्ष 2018 में लाटरी सिस्टम के द्वारा ठेकों का आवंटन ठीक था या गलत, यह नीतिगत निर्णय बहस का विषय हो सकता है, पर आगामी वर्षों में मात्र 4 फीसदी की वृद्धि के साथ शराब के ठेकों का नवीनीकरण सरकार की गलत नीति का ज्वलंत उदाहरण है। पूर्व सरकार द्वारा पांच वर्षों के दौरान ठेकों की नीलामी न किए जाने के पीछे क्या कारण रहे, यह तो पूर्व सरकार के कार-कारिंदे ही बेहतर बता पाएंगे, पर इस बार की नीलामी ने पूर्व सरकार की कार्यप्रणाली को पूरी तरह नीलाम कर दिया है। चंद ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने के चक्कर में प्रदेश के हितों को दाव पर लगाने का भले ही यह पहला मामला न हो, पर ठेकेदारों, अधिकारियों और राजनेताओं की मिलीभगत किस तरह से प्रदेश को हानि पहुंचाती रही है, उसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह भी तय है कि एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, अधिकारियों को गलत ठहराए जाने से अधिक इस मामले में भी कुछ नहीं होगा क्योंकि नैतिकता का अवमूल्यन अब अपराध नहीं, बल्कि राजनीति का हिस्सा माना जाने लगा है।

 

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