राजनैतिकशिक्षा

आर्थिक मंदी को क्यों नहीं समझ पाए अर्थशास्त्री?

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

सारी दुनिया के देश सबसे बड़ी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। 2008 में लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद भी अर्थशास्त्रियों ने कोई सबक नहीं लिया। इंग्लैंड की महारानी ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स की एक बैठक में आर्थिक शिक्षाविदों से पूछा था कि अमेरिका में इतनी बड़ी मंदी आ गई। लेकिन उसे कोई समझ क्यों नहीं पाया। इसका किसी ने जवाब नहीं दिया। 15 साल बाद एक बार फिर यही स्थिति पूरी दुनिया के सामने बन गई है। आर्थिक विशेषज्ञ इसका कोई जवाब नहीं खोज पाए हैं। य‎दि जवाब है, तो भी वह बोलना नहीं चाहते हैं।
विश्व बैंक ने कर्ज लेकर आर्थिक विकास की जो नई परिकल्पना सारी दुनिया के देशों को दी थी। वैश्विक व्यापार संधि के माध्यम से जो सपना सारी दु‎निया को दिखाया था, वह सपना वास्तविक रूप में धरातल पर कहीं पर भी नहीं दिख रहा है। पिछले 20 वर्षों में सारी दुनिया के देशों ने बड़ी मात्रा में कर्ज लिया। दुनिया के देशों ने आम नागरिकों को भी कर्ज के बोझ से दबा दिया। विकास के नाम पर विनाश की नई आधारशिला खुद विश्व बैंक ने सारी दुनिया के सामने रखी है। यही एक कारण है कि सारी दुनिया के अर्थशास्त्री चाहकर भी बोलने की स्थिति में नहीं है। वै‎श्विक अर्थ व्यवस्था की इस हालत से ‎‎विश्व बैंक जैसी संस्था ‎जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहती है। इससे अर्थशास्त्री खामोश हैं।
कर्ज की अर्थव्यवस्था से जब तक कर्ज में दी गई राशि को जहां पर भी उसे खर्च किया गया है, वहां से यदि कोई आय नहीं हैं। आय भी ऐसी हो, ‎जिसमें कर्ज और ब्याज की अदायगी की जा सके। यदि ऐसा नहीं होगा, तो कर्ज का ब्याज उसे कुछ ही वर्षों में दिवालिया बना देगा। जिसमें पूंजी भी डूबेगी और जो पैसा कर्ज में लिया है। उसमें कर्जदाता का भी पैसा नियम से डूबना तय है।
पिछले 2 दशक में बड़े पैमाने पर कर्ज की वैश्विक अर्थव्यवस्था के नियम ने सारी दुनिया के देशों और वहां के नागरिकों को कर्ज से दबा दिया है। आय कहीं बढ़ नहीं रही है। कर्ज के ऊपर ब्याज और किस्त का बोझ दुनिया भर के सभी देशों की सरकारों और आम आदमियों को परेशानी में डाल चुका है। कर्जदार अपनी कर्ज और ब्याज की किस्ते नहीं चुका पा रहे है।
पिछले तीन दशकों में वैश्विक अर्थव्यवस्था ने जिस तरीके का लालच और अफरा-तफरी का माहौल वित्तीय संस्थाओं द्वारा तैयार किया गया था। सब भेड़ चाल की तरह उसके पीछे भाग रहे थे। कर्ज पर राजनीति हावी हो गई थी। विकास के नाम पर सरकार में बैठे राजनेताओं ने बहुत कर्ज लिया। इस कर्ज से भारी भ्रष्टाचार किया। कर्ज ली गई राशि को ऐसी जगह पर निवेश किया गया, जहां से उसकी पुर्नअदायगी संभव ही नहीं थी। इसको वर्तमान अर्थशास्त्री जानते हुए भी खुलकर बोलने के लिए तैयार नहीं है।
पिछले दो दशकों में बैंकों ने जमाकर्ताओं की जमा राशि को सुरक्षित निवेश करने के स्थान पर ज्यादा ब्याज कमाने के चक्कर में जोखिम वाले लोन पर ज्यादा निवेश किया है। जैसे ही जमाकर्ता को पता लगता है कि उसका जमा निवेश जोखिम में पहुंच गया है, वह बैंकों से पैसा निकालने के लिए पहुंच जाता है। जिसके कारण बैंकों में भगदड़ की स्थिति बन जाती है। अमेरिका के साथ-साथ अब जर्मनी जैसे देश के बैंक भी आर्थिक संकट के शिकार हो रहे हैं। जमाकर्ता द्वारा अपना पैसा निकाला जा रहा है। वहीं बैंकों में पैसा जमा नहीं हो रहा है। बैंकों का कर्ज जोखिम में पहले ही चला गया है। कर्ज की वसूली नहीं हो पा रही है। जिसके कारण सारी दुनिया का अर्थ तंत्र बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं ही सबसे बड़ी जिम्मेदार हैं। वैश्विक अर्थ तंत्र को यदि बनाए रखना है तो वैश्विक वित्तीय संस्थाओं को नई स्थितियों पर ध्यान देना होगा। व्यवस्था बनानी होगी, जो कर्जदार देश या जो व्यक्ति कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं, उन्हें कुछ समय दिया जाना होगा। ब्याज और किस्त की वसूली स्थगित करनी होगी। जमाकर्ताओं को भी नुकसान ना हो, इसका भी ध्यान रखना होगा। तभी जाकर वैश्विक आर्थिक संकट से निपटा जा सकता है। आने वाले दिन सारी दुनिया के देशों और उसमें रहने वाले नागरिकों के लिए बहुत भयानक होंगे। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया का कोई भी आ‎र्थिक सिस्टम ना तो कभी सफल हुआ है, ना कभी होगा। कर्ज से मु‎क्ति अथवा आय के अनुरुप कर्ज की अदायगी के व्यवहा‎रिक ‎नियम बनाने होंगे। अन्यथा आ‎र्थिक कारणों से सारी दु‎निया एक नई मु‎श्किल में फंसने जा रही है।

 

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