राजनैतिकशिक्षा

इजराइल में न्यायपालिका के अधिकारों को नियंत्रित करने के विरोध में जनसैलाब सड़कों पर

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

इजराइल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए एक प्रस्ताव जारी किया है। यदि यह प्रस्ताव संसद में पारित हो जाएगा। तो सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने का अधिकार मिल जाएगा। संसद में जिस किसी सरकार के पास जब भी बहुमत होगा। वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपने अनुसार बदल सकेगी। सरकार के इस प्रस्ताव पर इजरायल की जनता सड़कों पर आ गई है। इजराइल के नागरिकों का मानना है कि इससे देश का लोकतंत्र और सुप्रीम कोर्ट की न्याय प्रणाली कमजोर हो जाएगी। भ्रष्टाचार बढ़ेगा और अल्पसंख्यकों के अधिकारों में मनमानी शुरू हो जाएगी। सरकार मनमाने कानून लागू कर लोकतांत्रिक व्यवस्था खत्म कर तानाशाही करेगी। इजरायल की जनता हजारों की संख्या में सड़कों पर आ चुकी है वह बेंजामिन नेतनयाहू की तुलना रूसी राष्ट्रपति पुतिन से कर रही है।

यह तो हुई इजराइल की बात भारत में भी कुछ इसी तरीके की स्थिति देखने को मिल रही है। भारत में न्यायपालिका को लेकर आम आदमियों में विश्वास बना हुआ है। पिछले 2 वर्षों से कॉलेजियम प्रणाली को लेकर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति सरकार अपने हिसाब से करना चाहती है। उसको लेकर सुप्रीम कोर्ट के साथ विवाद बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनकर ने जिस तरह से कॉलेजियम सिस्टम को बदलने की बात कही है। इसके बाद सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच में पिछले 2 वर्षों से चल रहा विवाद अब अपने चरम पर पहुंच गया है। इस मसले पर उपराष्ट्रपति जयदीप धनखड़ सबसे ज्यादा विपक्ष और मीडिया के निशाने पर हैं। उन्होंने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहते हुए जिस तरह से निर्वाचित प्रतिनिधियों और सरकार के फैसले को रोका था। वह राज्यपाल की भूमिका में सरकार के अधिकारों को नियमित करते हुए मुख्यमंत्री और मंत्रीमंडल के अधिकारों को सुपरसीड करने लगे थे। अब वही विधायिका को सुप्रीम बताकर अदालत के अधिकारों को कम करने की बात कह रहे हैं। वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न प्रदेशों में जो भी राज्यपाल और उपराज्यपाल हैं। वह निर्वाचित प्रतिनिधियों को काम नहीं करने दे रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह नजारा लगभग लगभग हर प्रदेश में देखने को मिल रहा है। कॉलेजियम की अनुशंसा 2 वर्षों से सरकार के पास लंबित पड़ी हैं। सरकार उन्हीं जजों के बारे में निर्णय ले रही है जो उनकी विचारधारा अथवा केंद्र सरकार के साथ सद्भाव रखते हैं। बाकी अनुशंशा को लंबित रखते है। जबकि समयनुसार दूसरी बार कॉलेजियम की अनुशंशा मानने सरकार बाध्य है।

भारत में जिस तरह से सरकार और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर विवाद हो रहा है। उससे आम जनता भी कहीं ना कहीं प्रभावित हो रही है। आम जनता अभी भी सबसे ज्यादा भरोसा न्यायपालिका पर हो करती है। वर्तमान स्थिति में यदि इसमें फेरबदल किया गया तो इजरायल जैसी स्थिति भारत में भी बन सकती है। भारत में संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों से छेड़छाड़ करने का अधिकार ना तो विधायिका के पास है। और ना ही न्यायपालिका के पास है। पिछले 75 वर्षों में कई मौकों पर यह स्पष्ट हो चुका है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका के साथ सरकार का टकराव को देखते हुए यदि आमजन का विश्वास न्यायपालिका से घटा तो स्थितियां विस्फोटक हो सकती हैं। आस्था और विश्वास पर ही संविधान और लोकतंत्र टिका हुआ है। यह सभी राजनीतिक दलों और सरकारों को समझना होगा। हमारे संविधान निर्माताओं ने ब्रम्हा-विष्णु और महेश के रुप में आदिशक्ति के स्वरुप पर संविधान का निर्माण कर चेक एण्ड बेलेन्स की अवधारणा पर लोकतंत्र की स्थापना की थी। जैसे ब्रम्हा विष्णु और महेश में कोई सर्वोपरि नहीं है। इसी तरह न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की जिम्मेदारी तय है। सभी को अपनी सीमा और सम्मान का स्वयं ध्यान रखना होगा।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *