राजनैतिकशिक्षा

आपातकाल: लोकतंत्र पर लगा पहला आधिकारिक ताला

-डॉ. सत्यवान सौरभ-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

25 जून 1975 को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक ऐसा धब्बा लगा, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की। यह घोषणा किसी बाहरी खतरे की वजह से नहीं, बल्कि सत्ता की व्यक्तिगत कुर्सी बचाने के लिए की गई थी। संसद मूकदर्शक बनी रही, मीडिया पर सेंसर लगा दिया गया, न्यायपालिका दबा दी गई और नागरिक अधिकारों को रद्द कर दिया गया। लोकतंत्र की आत्मा को कुचलकर सत्ता की जिद्द को सर्वोपरि बना दिया गया। इसे ‘संविधान की हत्या’ कहा गया और ठीक ही कहा गया। मगर आज जिन लोगों ने इसे ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया है, उन्हें खुद अपने दामन पर पड़े दागों को भी देखना चाहिए।

इमरजेंसी: गलती स्वीकार की गई थी

इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ किया, यह निर्विवाद है। लेकिन उन्होंने उस ऐतिहासिक भूल को अंततः स्वीकार किया। 1977 के चुनावों में उन्होंने हार स्वीकार की, सत्ता छोड़ी और फिर दोबारा सत्ता में लौटकर देश से माफी माँगी। यह लोकतंत्र की परिपक्वता थी और एक नेता का आत्मस्वीकृति वाला साहस भी। इस आत्मस्वीकार की संस्कृति में आज भयंकर गिरावट आई है। आज के सत्ताधारी भूल को भूल मानने से भी इनकार करते हैं।

आज के रंगमंच पर पुराने संवाद

आज जो नेता, मंत्री, और प्रवक्ता आपातकाल के नाम पर कांग्रेस को कोसते हैं, उनमें से कई कल तक कांग्रेस में थे और इंदिरा गांधी को भारत की ‘मां दुर्गा’ बताया करते थे। आज वही नेता बीजेपी की सत्ता में हैं और इंदिरा को ‘तानाशाह’ बताकर नारेबाज़ी कर रहे हैं। अवसरवाद की यह पराकाष्ठा है-न कोई विचारधारा, न कोई सिद्धांत, बस सत्ता की भक्ति और विरोधियों की निंदा। यह कौन नहीं जानता कि कांग्रेस से निकले कई नेता आज बीजेपी में हैं? क्या उनके विचार बदले हैं या सिर्फ कुर्सियाँ? ये वही लोग हैं जो कल तक इंदिरा गांधी की तस्वीर पर माला चढ़ाते थे और आज संविधान की दुहाई देकर उसी अतीत को गालियाँ दे रहे हैं। जनता यह सब देख रही है, समझ रही है।

आज की सत्ता क्या सच में लोकतांत्रिक है?

आपातकाल की घोषणा भले स्पष्ट थी, मगर आज की स्थिति छिपी हुई आपातकाल जैसी है। आज न कहीं लिखित सेंसर है, न घोषित दमन, लेकिन व्यावहारिक तौर पर हालात उससे भी गंभीर हैं। मीडिया मालिकों पर दबाव है, पत्रकार आत्म-सेंसरशिप में हैं, और जो भी सरकार की नीतियों पर सवाल उठाता है, उस पर देशद्रोह या यूएपीए की तलवार लटक जाती है। अगर इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ‘संविधान हत्या’ थी, तो आज का शासन कौन सा ‘संविधान पुनर्जन्म’ है?

आज विपक्ष को चुनाव से पहले ईडी और सीबीआई के नोटिस मिलते हैं, सरकार विरोधी आवाजों को दबाने के लिए देशद्रोह के केस थोपे जाते हैं, और सोशल मीडिया पर आलोचकों को गालियों और ट्रोलिंग की बाढ़ में डुबा दिया जाता है। क्या यह नया रूप नहीं है ‘लोकतंत्र की हत्या’ का?

जो इंदिरा से नाराज़ थे, वही आज वैसा ही कर रहे हैं

बीजेपी ने हमेशा इंदिरा गांधी के एकछत्र शासन की आलोचना की, लेकिन आज खुद का शासन उसी दिशा में जाता दिखता है। संसद में बिना बहस के विधेयक पास करना, अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाना, न्यायपालिका को सरकारी नियुक्तियों में बाध्य बनाना-यह सब किस संविधान का पालन है? संविधान सिर्फ एक किताब नहीं, एक सोच है-विचारों की आज़ादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय। मगर आज जो हो रहा है वह संविधान की आत्मा को छलनी कर रहा है। यदि आपातकाल को संविधान की हत्या कहा जाए तो आज की स्थितियाँ किस श्रेणी में रखी जाएँगी?

जनता को मूर्ख समझने की भूल

वर्तमान राजनीति में नेता यह मानकर चल रहे हैं कि जनता सब भूल जाएगी, या उसे समझ में ही नहीं आएगा। लेकिन इतिहास गवाह है कि जनता देर से समझती है, मगर जब समझती है तो सत्ता के पहाड़ भी हिल जाते हैं। जनता ने इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाया था, फिर माफ भी किया। आज भी वह देख रही है कि जो नेता कल तक एक विचारधारा के समर्थक थे, आज दूसरी विचारधारा के सबसे बड़े प्रवक्ता बन गए हैं। यह विचारों का परिवर्तन नहीं, यह अवसरों का शोषण है।

असली संविधान विरोधी कौन?

क्या केवल इंदिरा गांधी ही संविधान की हत्यारी थीं? या वे तमाम सरकारें भी जो अदालतों के आदेशों को नज़रअंदाज़ करती हैं, सूचना के अधिकार को कुचलती हैं, विरोध को देशद्रोह कहती हैं, और असहमति को अपराध मानती हैं? जो अपने समर्थकों से यह कहलवाते हैं कि ‘देश के लिए एक ही नेता काफी है’, जो मंत्रियों को संसद में बोलने से पहले सोचना सिखाते हैं, और जो न्यायपालिका को ‘सरकारी महकमा’ समझने लगे हैं-वे संविधान के सच्चे हत्यारे हैं।

जनता ही असली प्रहरी है

संविधान की रक्षा न तो किसी दल का एजेंडा है, न किसी नेता की बपौती। यह जनता की जिम्मेदारी है-अपने अधिकारों के लिए जागरूक रहने की, सत्ता से सवाल पूछने की, और यह तय करने की कि कौन उसे भ्रमित कर रहा है, कौन सच बोल रहा है। ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने वालों को पहले अपने भीतर झांकना चाहिए-क्या वे सच में संविधान के प्रहरी हैं या सत्ता के पुजारी? भारत को आज भी संविधान की उतनी ही ज़रूरत है जितनी 1950 में थी। और उसे बचाने के लिए साहसी नागरिकों, सच्चे पत्रकारों और ईमानदार नेताओं की जरूरत है-न कि पलटीमार मौकापरस्तों की भीड़ की।

इतिहास अगर खुद को दोहराता है, तो इसका कारण यह होता है कि हमने उससे सीखा नहीं। और जब हम सीखने से इनकार करते हैं, तो लोकतंत्र खुद को बचाने के लिए जनता को आगे लाता है। यह जनता की चेतना ही है जो लोकतंत्र की अंतिम गारंटी है। इसलिए अब वक्त है आंखें खोलने का, और यह पूछने का-संविधान की हत्या सच में किसने की?

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