राष्ट्रद्रोह कानून बीती बात
-सिद्धार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रद्रोह कानून की धारा 124 ए पर रोक लगा दी है। शीर्ष कोर्ट ने इसके तहत दायर सभी लंबित मामलों पर भी रोक लगा दी गई है। कोर्ट ने कानून पर केंद्र सरकार को पुनर्विचार का निर्देश दिया है। साफ कहा है कि इस धारा के तहत अब कोई नया केस दर्ज नहीं होगा और इसके तहत जेल में बंद लोग कोर्ट से जमानत मांग सकेंगे। शीर्ष कोर्ट ने केंद्र व राज्यों को भादवि की धारा 124 ए के पुनरीक्षण की इजाजत देते हुए कहा कि जब यह काम पूरा न हो, कोई नया केस इस धारा में दर्ज नहीं किया जाए। इससे पहले राष्ट्रद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर बुधवार को भी सुनवाई हुई। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र का पक्ष रखा। अपनी दलीलें पेश करते हुए उन्होंने कहा कि एक संज्ञेय अपराध को दर्ज करने से रोकना सही नहीं होगा। हर केस की गंभीरता अलग होती है। किसी मामले का आतंकी कनेक्शन तो किसी का मनी लॉन्ड्रिंग कनेक्शन हो सकता है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा था कि वह देशद्रोह के लंबित मामलों को लेकर 24 घंटे में अपना मत स्पष्ट करे। कोर्ट ने पहले से दर्ज ऐसे मामलों में नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए औपनिवेशिक युग के इस कानून के तहत नए मामले दर्ज नहीं करने पर भी अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था। वर्ष 2014 से 2019 के बीच देश में इस विवादित कानून के तहत कुल 326 मामले दर्ज किए गए थे। इनमें से केवल छह लोगों को दोषी ठहराया गया। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार कुल 326 मामलों में से सबसे ज्यादा 54 मामले असम में दर्ज किए गए थे। हालांकि, 2014 से 2019 के बीच एक भी मामले में दोष सिद्ध नहीं हुआ था। लंबे समय से कहा जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट भी अपनी टिप्पणियों में जता चुका है कि औपनिवेशिक काल के इस कानून को अब जारी रखने का कोई तुक नहीं है। बावजूद इसके, किसी न किसी कारण से यह मामला टलता रहा है। जहां जिस पार्टी की सरकार है, वही विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए इसका दुरुपयोग कर रही है। असल में यह कानून है भी ऐसा कि इसे इस मकसद से इस्तेमाल करने में कोई अड़चन नहीं आती। आईपीसी की धारा 124-ए उन शब्दों और कार्यों के लिए तीन साल से लेकर आजीवन कैद तक की सजा का प्रावधान करती है जो सरकार के खिलाफ नफरत, अवमानना और विद्रोह भड़काने का प्रयास करते हों। एक तो नफरत, अवमानना और विद्रोह जैसे शब्द काफी व्यापक अर्थ रखते हैं। सो, किसी भी तरह के भाषण को इसके अंतर्गत डाला जा सकता है। अगर अंग्रेजी शासन का संदर्भ याद रखते हुए देखें तो तत्कालीन सरकार के लिए यह कानून बड़े काम की चीज था। अपने लेखों और भाषणों में अंग्रेज सरकार की तीखी आलोचना के अलावा स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ कोई और मामला बनाना मुश्किल था। सो, अंग्रेजी सरकार इसी कानून के सहारे आजादी के योद्धाओं को लंबी अवधि के लिए जेल भेज दिया करती थी। मगर आज हमारा राजनीतिक और सामाजिक परिवेश पूरी तरह से बदल चुका है। देश अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। ऐसे में, इस कानून का भला क्या औचित्य है? यह सवाल विभिन्न प्रकार की जनहित याचिकाओं में सर्वोच्च अदालत के सामने उठाए गए हैं। इसकी वजह थी पिछले कई वर्षों से इस कानून का हो रहा दुरुपयोग। न सिर्फ राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने और उनको परेशान करने के लिए, बल्कि आलोचना के स्वर को शांत करने के लिए भी इसका जमकर इस्तेमाल हो रहा है। आलम यह है कि अगर कोई व्यक्ति हनुमान चालीसा का पाठ करने जा रहा हो, तो उसके ऊपर भी देशद्रोह कानून लगा दिया जाता है, जिसका न कोई औचित्य है और न धारा 124 (ए) का कोई प्रावधान उस पर लागू होता है। सुप्रीम कोर्ट इस कानून के दुरुपयोग को लेकर ही चिंतित था। 2021 में भी उसने एक सुनवाई के दौरान सरकार से इसको निरस्त करने को कहा था। उसके तर्क थे कि इनमें जिन प्रावधानों का जिक्र है, वे औपनिवेशिक युग के हैं, जो स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल होते थे। अब स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देश में सरकार की आलोचना पर सजा देना वास्तव में कानून का दुरुपयोग ही है। अंतिम सुनवाई की बात करते हुए भी कोर्ट ने यही कहा कि उसे सबसे ज्यादा चिंता इस कानून के दुरुपयोग की है। इसीलिए यह भी जरूरी है कि अब इस चरण में आकर कानून का दुरुपयोग रोकने संबंधी प्रावधान करने जैसी दलीलों के चक्कर में न पड़ा जाए। वक्त का तकाजा है कि और देर किए बगैर राजद्रोह (देशद्रोह) कानून को तत्काल समाप्त कर दिया जाए। वैसे जब इस कानून की समीक्षा की बात होती है, तो तीन तरह की सोच सामने दिखती है। पहली, इस तरह के कानूनी प्रावधान खत्म कर देने चाहिए, क्योंकि इनकी अब कोई प्रासंगिकता नहीं बची। दूसरी, इस कानून को बनाए रखना चाहिए, क्योंकि देश को इसकी सख्त जरूरत है, खासकर राष्ट्रविरोधी ताकतों को देखते हुए। और तीसरी सोच उन लोगों की है, जो मानते हैं कि यह कानून तो कायम रहना चाहिए, लेकिन इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए इसके इस्तेमाल पर कुछ वाजिब अंकुश लगाया जाना चाहिए। इस सोच के समर्थक मानते हैं कि अगर कानूनी किताब से इसे पूरी तरह से हटा दिया जाएगा, तो देश की संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता को नुकसान पहुंच सकता है।