किसान राजनीति को धक्का
-सिद्वार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख व पूर्व केंद्रीय मंत्री चैधरी अजित सिंह का निधन हो गया, वो कोरोना से संक्रमित थे। 82 वर्षीय अजित सिंह ने गुरुग्राम के निजी अस्पताल में अंतिम सांस ली। अजित सिंह का जाना राजनीति जगत के लिए किसी कुठाराघात से कम नहीं हैं। अजित सिंह को किसानों और जाटों का बड़ा नेता माना जाता था। उन्हें पश्चिमी यूपी के किसान हुकूम, छोटे चैधरी या छोटे सरकार के नाम से भी बुलाते थे। सियासी गलियारों में उनके लिए एक जुमला काफी मशहूर था और वो था कि सत्ता किसी की भी हो लेकिन मंत्री तो अजित सिंह ही बनेंगे। पश्चिम यूपी की राजनीति आजादी के बाद से लगातार चैधरी चरण सिंह और उनके बाद बेटे अजित सिंह के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह ने कई बार अपनी राजनीति के रंग बदले लेकिन वो हमेशा सियासत के चर्चित चेहरे बने रहे। वे कई दलों के साथ रहे लेकिन अपने दल की अलग पहचान के साथ। यूपी के मेरठ के भडोला गांव में 12 फरवरी 1939 को संभ्रात परिवार में पैदा हुए अजित सिंह को राजनीति विरासत में मिली। उनके पिता चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, अजित सिंह ने करियर के शुरू में इंजीनियरिंग को चुना था सियासत को नहीं। लखनऊ में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद वे आईआईटी खडगपुर में पहुंचे और इसके बाद अमेरिका से इलिनाइस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी पढने के बाद 17 बरस तक वहीं के कॉरपोरेट जगत में काम किया था। साल 1980 में उन्होंने पिता चरण सिंह के आग्रह पर राजनीति में कदम रखा था और फिर जीवन के अंत तक वो राजनीति से ही जुड़े रहे। मालूम हो कि अजित सिंह बागपत से सात बार सांसद रहे, जो अपने आप में बड़ी ही खास बात है। साल 1998 में बागपत का चुनाव हारने के बाद अजित सिंह ने बड़ा कदम उठाया और राष्ट्रीय लोकदल की स्थापना की। अजित सिंह साल 1999 और 2014 में दो बार भाजपा उम्मीदवार से उनकी हार को छोड़ दें तो वो लगातार बागपत सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बागपत सीट अजीत सिंह की पहचान थी। ऐसा कहा जाता था कि वो हर सरकार में फिट हो जाने का हुनर जानते थे। 1989 से 2014 तक अलग-अलग पार्टियों की सरकारों में वो मंत्री रहे। 1989 में वीपी सिंह की सरकार, 1991 में नरसिंह राव सरकार, फिर 1999 की वाजपेयी सरकार व 2011 की मनमोहन सिंह सरकार में वो मंत्री पद रहे। 2019 का चुनाव चैधरी अजित सिंह मुजफ्फरनगर से लड़े, लेकिन भाजपा प्रत्याशी संजीव बलियान ने उन्हें हरा दिया। इसके बाद कुछ दिनों के लिए वे नेपथ्य में जरूर चले गए मगर पार्टी को धार देने में भी लगे रहे। इस बीच किसान आंदोलन का उन्हें फायदा हुआ है और हाल ही में हुए जिला पंचायत चुनाव में लोकदल ने शानदार प्रदर्शन किया है। अब उनके जाने से पश्चिमी यूपी में एक रिक्तता जरूर आई है। चैधरी अजित सिंह का निधन केवल एक राजनेता का जाना नहीं है, यह उस युग की राजनीति का पटाक्षेप भी है जहां समाज और राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर रहने के बाद भी लोग जमीन से जुड़े रहते थे और सामान्य जन उनसे खुद को बेहद करीब महसूस कर पाते थे। उनके जाने से देश की राजनीति में चैधरी चरण सिंह चैधरी देवीलाल और चैधरी महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेताओं की उस किसान राजनीति को भी धक्का लगा है जो किसानों की हक की आवाज बनकर सत्ता के गलियारों में गूंजती रही है। चैधरी अजित सिंह ने पिता चैधरी चरण सिंह से केवल राजनीति की विरासत ही नहीं संभाली थी, बल्कि उनकी सादगी भी उनके व्यवहार में हमेशा झलकती रही। पश्चिम उत्तर प्रदेश का हर किसान उन्हें अपने आसपास खड़ा पाता था। जब वे केंद्र सरकार में मंत्री हुआ करते थे, तब भी हर एक किसान की चैधरी अजित सिंह के पास सीधी पहुंच हुआ करती थी। भारतीय राजनीति में इस समय शायद ही कोई ऐसा नेता हो जो खुद को किसानों का नेता कह सके। चैधरी अजित सिंह इस श्रेणी के अंतिम नेता थे।