राजनैतिकशिक्षा

बातचीत का रास्ता

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

पिछले तीन माह से भी ज्यादा समय से जारी किसान आंदोलन के खत्म होने का कोई छोर नजर नहीं आ रहा है। अब तो बयानों में तल्खी बढ़ती जा रही है। किसान महापंचायत में राकेश टिकैत संसद घेरने का ऐलान कर रहे हैं तो नरेश टिकैत सरकार पर तल्ख बयानबाजी। उन्होंने यूपी की एक पंचायत में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को पिंजरे का तोता तक बताते हुए कहा कि उन्हें सरकार फ्री हैंड दे, आंदोलन खत्म हो सकता है। निश्चित रूप से इस तरह की बयानबाजी सही नहीं है। आंदोलन खत्म कराने सरकार एक नहीं दर्जनों दौर की बात कर चुकी है, मगर किसान नहीं माने। उनकी एक ही रट है। ऐसे में राजनाथ सिंह भी कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। आंदोलन के बिंदुओं पर सरकार और किसान आंदोलन के प्रतिनिधियों के बीच असहमति के बावजूद जब तक दोनों पक्षों के बीच हल तक पहुंचने के लिए बैठकें चल रही थीं, तब तक किसी समाधान पर पहुंचने की संभावना बनी रही। लेकिन अब स्थिति यह बन चुकी है कि सरकार और किसान अपने-अपने पक्ष को सही बता रहे हैं और बातचीत तक रुक गई है। एक ओर किसान संगठन तीनों कृषि कानूनों को समूची खेती-किसानी से लेकर गरीबों और मजदूरों के जीवन पर बेहद नकारात्मक असर डालने वाला बता रहे हैं तो दूसरी ओर सरकार इसे किसानों के फायदे में बता रही है। अगर दोनों ही पक्ष अपने तर्कों को लेकर सही हैं तो ऐसा क्यों है कि एक ठोस हल तक पहुंचने पर सहमति नहीं बन पा रही है! ऐसे में स्वाभाविक ही आंदोलन को लेकर एक बड़ा गतिरोध खड़ा हो गया है और निश्चित तौर पर यह सबके लिए चिंता का विषय है। खासतौर पर सरकार के साथ वार्ता का क्रम टूटने के बाद किसान नेताओं ने जिस तरह आंदोलन को विस्तारित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है, उसका असर साफ देखा जा रहा है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि राज्यों के अलग-अलग इलाकों में आयोजित किसान महापंचायतें और उसमें शामिल होने वाले लोगों की तादाद यह बताने के लिए काफी है कि दिल्ली की सीमाओं पर केंद्रित आंदोलन अब धीरे-धीरे कई राज्यों के स्थानीय इलाकों तक फैल रहा है। तीन दिन पहले हरियाणा में हिसार के बरवाला और उसके बाद मंगलवार को राजस्थान के चुरु और सीकर में आयोजित किसान महापंचायतों में आंदोलन से जुड़े लोगों और नेताओं ने जिस स्वर में अपने मुद्दों को उठाया है, उससे साफ है कि वे फिलहाल झुकने या समझौता करने का संकेत नहीं दे रहे हैं और आंदोलन के लंबा खिंचने के लिए भी तैयार हैं। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आंदोलन का नेतृत्व समूह किसानों के दायरे से आगे बढ़ कर अब मजदूरों और दलित समुदाय जैसे समाज के अलग-अलग तबकों को भी इस मुद्दे पर हो रहे प्रदर्शनों में शामिल करने की कोशिश कर रहा है। संभव है कि तीनों नए कृषि कानूनों को लेकर सरकार अपने पक्ष को पूरी तरह सही मानती हो। लेकिन एक लोकतांत्रिक ढांचे में सरकार की यह भी जिम्मेदारी होती है कि वह जनता की ओर से किसी मसले पर उठाए गए सवालों पर गौर करे और आम लोगों का व्यापक हित तय करने के मकसद से काम करे।

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