राजनैतिकशिक्षा

फिक्रमंद सियासत, शिवराज की वसीयत में ‘कर्ज’….?

-ओमप्रकाश मेहता-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

मध्यप्रदेश में पिछले अठारह सालों से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, इस दौरान सिर्फ पन्द्रह महीनें कांग्रेस की सरकार रही, शेष पौने सत्रह साल शिवराज सिंह ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, अब मध्यप्रदेश में नई सरकार के लिए राज्य के मतदाताओं ने अपनी पसंद मत पेटियों में बंद कर दी है, अब बारह दिन बाद पता चलेगा कि राज्य का नेतृत्व कौनसा दल व कौन सा नेता करेगा? इस बीच इन दिनों ‘‘खाली दिमाग शैतान की दूकान’’ में एक सवाल ही कौंध रहा है कि शिवराज जी ने अपने डेढ़ दशक लम्बे शासनकाल में प्रदेश को क्या दिया और उससे क्या छीना? खैर, छीनने की बात तो अगला नेतृत्व आने के बाद वही करेगा, किंतु क्या दिया? इस पर तो प्रदेश का हर जागरूक नागरिक विचार कर ही सकता है, वैसे स्वयं शिवराज अपनी सरकार की अनेक उपलब्धियां गिनाते है, किंतु उनमें चूंकि राजनीति छलकती नजर आ रही है, इसलिए प्रदेश के जागरूक मतदाताओं को निस्पृह व निष्पक्ष भाव से इस मसले पर विचार करना होगा, यदि शिवराज जी के डेढ़ दशक के शासनकाल की उपलब्धियों पर नजर डालें तो उन्होंने प्रदेश की महिलाओं सहित हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ किया अवश्य है, किंतु उनकी इन उपलब्धियोें पर एक मुद्दा है जो पूरी तरह ‘‘पानी फैर’’ देता है और वह है प्रदेश पर कर्ज या आर्थिक भार। अब शिवराज जी का मात्र दस दिन का ही शासनकाल शेष बचा है, ऐसे में यही इस मूल्यांकन का सही वक्त है, आज जबकि शिवराज जी विदाई की बेला में है, इस समय प्रदेश पर सवा चार लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है, अब इससे यह अनुमान स्वाभाविक ही है प्रदेश का हर शख्स कितने कर्ज में दबा है? साथ ही इस चुनावी मौसम में भाजपा द्वारा पचास हजार करोड़ के चुनावी वादे किए जा रहे है, तो अब अगली सरकार कर्ज पर ही चलेगी? और यह कर्ज अगली सरकार कैसे चुका पाएगी? इस मसले पर राज्य के दोनों प्रमुख दलों कांग्रेस व भाजपा के बीच गंभीर मंथन चल रहा है, इसी मंथन में कांग्रेस में यह अहम् सवाल उठाया जा रहा है कि कांग्रेस यदि सत्ता में आ भी गई तो वह सत्ता प्राप्ति के माह में ही प्रदेश के कर्मचारियों को वेतन कहां से देगी? वेतन के अलावा सरकार पर और भी कई तरह की आर्थिक जिम्मेदारियां होती है, अपनी चुनावी घोषणाएं पूरी करने का भी दायित्व रहता है, वह सब कैसे हो पाएगा? इसी मुख्य प्रश्न का जवाब हर पार्टी खोज रही है और इसका जवाब खोजते-खोजते दोनों दलों के नेताओं में नैराश्य की भावना घर कर गई है, और इसी प्रश्न के संभावित उत्तर के कारण भाजपा-कांग्रेस दोनों का ही चुनावी उत्साह कम नजर आने लगा है और चुनावी परिणामों का आकर्षण भी कम हो गया है। एक ओर जहां मतदान व उसके परिणामों के बीच समय की इतनी दूरी रखने से राजनेता तो ठीक स्वयं मतदाता परेशान है, वहीं मतदान व परिणामों के बीच की लम्बी दूरी आम मतदाता को इस प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कोसने को मजबूर कर रही है, कहीं यह कारण प्रजातांत्रिक प्रणाली के प्रति अविश्वास का कारण न बन जाए? इस दिशा में चुनाव आयोग तथा सरकार को गंभीर चिंतन करना होगा? क्योंकि इतिहास गवाह है कि आमजन की बेसब्री देश व उसकी राजनीति के लिए कितनी घातक होती है। हाँँ, तो हमारी आज की मूल चर्चा का विषय प्रदेश पर आर्थिक भार या सच पूछो तो भाजपा-कांग्रेस दोनों ही सत्ता प्राप्ति का प्रयास व घोषणाएं अवश्य कर रही है, किंतु अर्न्तमन से दोनों ही दलों के नेता प्रदेश में सरकार नहीं चाहते और वह भी सिर्फ इस कर्ज के सवाल का उत्तर नहीं खोज पाने के कारण, क्योंकि इस पहाड़ जैसे कर्ज से मुक्ति और फिर प्रदेश का ठीक से आर्थिक संचालन हर दल के सामने सत्ता में आने से भी बड़ी चुनौती है।

 

 

 

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