राजनैतिकशिक्षा

अपराधियों से मुक्त संसद दूर की कौड़ी

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

स्वस्थ लोकतंत्र का आधार साफ-सुथरे चरित्र के जनप्रतिनिधि होते हैं। प्राचीन काल से अब तक यह मान्यता है कि जो भी व्यक्ति ऊंचे ओहदे पर बैठा हो, उसका चरित्र और व्यवहार बेदाग हो। आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों से न तो कानूनों के निर्माण में ईमानदारी बरतने की उम्मीद की जा सकती है और न ही उसके क्रियान्वयन की। अगर वे देश की सबसे ऊंची पंचायत यानी संसद में बैठे हों जहां से देश की तमाम गतिविधियों का संचालन होता हो, तो उनके निर्मल व उज्ज्वल चरित्र की अपेक्षा सर्वाधिक होना अपेक्षित ही है। किसी भी देश की परिस्थितियों का निर्धारण संसद में जनता की नुमाइंदगी करने वालों के चरित्र से होता है। देश व समाज को दिशा देने वाले तथा उसकी नियति तय करने वाले ही अगर भ्रष्ट हों तो, हत्यारे हों, अपहरणकर्ता हों तो वे कैसा समाज बनायेंगे, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

भारत की मौजूदा दुर्दशा के अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन उनमें से एक प्रमुख कारण यह है कि हमारी संसद अपराधी तत्वों से भरी पड़ी है। दुनिया के विकसित एवं लोकतांत्रिक तौर पर परिपक्वराष्ट्रों की संसदों में चरित्रवान और कुशाग्र लोगों को भेजने की होड़ होती है। अपवाद स्वरूप कुछ लोग हो सकते हैं जो आपराधिक रिकार्ड के साथ संसद में जा बैठते होंगे, परन्तु भारतीय संसद में उनका जैसा बड़ा जमावड़ा है वह देश के लिये बहुत घातक है। कानून तोड़ने वाले और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते। जिस बड़े पैमाने पर अपराधी चुनकर संसद में बैठते हैं, अगर जनता की वही पसंद है तो कहा जा सकता है कि ऐसी जनता अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार रही है और उसे खुद के या अपनी भावी पीढ़ियों के लिये अच्छे भविष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिये।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) की ताज़ा रिपोर्ट जो संकेत दे रही है, उससे ऐसी चिंता होनी स्वाभाविक है। यह रिपोर्ट लोकसभा व राज्यसभा की 776 सीटों में से 763 मौजूदा सांसदों के हलफनामों का अध्ययन कर तैयार की गई है जिनमें उन्होंने अपनी जानकारी चुनावी प्रपत्र के साथ प्रस्तुत की थी। लोकसभा की चार एवं राज्यसभा की एक सीट खाली है तथा जम्मू-कश्मीर की सीटों की स्थिति अभी साफ नहीं है। इसलिये इन सीटों के सांसदों का अध्ययन इस रिपोर्ट में शामिल नहीं है।

जो जानकारी इन सांसदों ने दी है, उसके मुताबिक मौजूदा 763 सांसदों में से 306 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें भी 194 के विरूद्ध प्रकरण गम्भीर किस्म के हैं जो हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध आदि से सम्बन्धित हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं का साम्राज्य एक तरह से देश भर में फैला हुआ है जिसके लिये राज्य और पार्टियों की कोई सीमाएं नहीं हैं। गम्भीर किस्म के आपराधिक रिकार्ड वाले सांसद अनेक राज्यों और ज्यादातर दलों के है। यानी हमाम में सारे नंगे हैं। पार्टीवार आपराधिक रिकार्ड के सांसद इस प्रकार हैं- भारतीय जनता पार्टी के 385 में 139 (36 प्रतिशत), कांग्रेस 81 में 43 (53 प्रश), तृणमूल कांग्रेस के 36 में 14 (39 प्रश), राष्ट्रीय जनता दल के 6 में 5 (83 प्रश), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 8 में 6 (75 प्रश), आम आदमी पार्टी के 11 में 3 (27 प्रश), वाईएसआर कांग्रस पार्टी के 31 में 13 और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के 8 में 3 (36 प्रश)।

यह किसी भी देश के लिये शुभ संकेत नहीं है। संसद को अपराधियों की शरण स्थली न बनाने के लाख दावों के बावजूद प्रमुख दल इसका पालन करते नहीं दिखते। एडीआर की ही पहले की एक रिपोर्ट में बतलाया गया था कि अपराधियों को राजनैतिक दल इसलिये टिकट देते हैं क्योंकि उनके जीतने की सम्भावना का प्रतिशत काफी अधिक होता है। फिर, यह ट्रेंड संसद तक ही सीमित नहीं है। राज्य स्तर पर विधानसभाओं और स्थानीय निकायों तक यही सिलसिला है जो ग्राम पंचायतों तक बदस्तूर कायम है। राजनीति में सारे हथकण्डों को जायज मान लेने का फैशन इस परम्परा को सघन कर रहा है। आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के पास बाहुबल और धनबल का अभाव न होने से पार्टियां टिकट देने के मामले में उन्हें तरज़ीह देती हैं। इससे पार्टी नेतृत्व का काम हल्का हो जाता है। ऐसे उम्मीदवारों को मदद देने के मामले में संगठन चिंतामुक्त हो जाते हैं। वे जानते हैं कि ऐसे लोग अपना इंतज़ाम स्वयं कर लेंगे।

अनेक मायनों में ये बुरे वक्त के संकेत हैं। लोकतंत्र के लिये बड़ा आवश्यक है कि प्रतिनिधि सभाएं अपराधियों से पूर्णत: मुक्त हों ताकि वे जनहित में साफ-सुथरे व निष्पक्ष निर्णय लें। आपराधिक तत्वों का संसद या विधायिका में बैठने का मतलब होता है कि वे अपने गिरोहों और गैरकानूनी कामों के लिए संरक्षण प्राप्त करते हैं। निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में उनकी ताकत बेइंतिहा बढ़ जाती है।

केन्द्र की हो या राज्य की सरकार, जिला प्रशासन हो या पुलिस प्रशासन- सारे उसके रूआब तले दबे रहते हैं। इसके कारण उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। या तो उनके विरूद्ध मामले वर्षों लम्बित रहते हैं या फैसला उनके पक्ष में होता है। हाल के वर्षों में कई ऐसे प्रकरण सामने आये हैं जिनमें कोई बलात्कार के आरोप से बेदाग छूटता है तो किसी में रिश्तेदार हत्या करके भी जेल जाने से बच जाते हैं। कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वे ऐसी न्याय व्यवस्था चाहते हैं जिसमें इन सदनों में बैठे लोगों के आपराधिक प्रकरणों का निपटारा थोड़े दिनों में अनिवार्य रूप से हो सके। ऐसा तो नहीं हुआ, उलटे आपराधिक रिकार्डधारी जनप्रतिनिधि कहीं अधिक दिख रहे हैं।

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