राजनैतिकशिक्षा

निचले इलाकों में सेब उत्पादन की संभावनाएं

-डा. चिरंजीत परमार-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

इसमें कोई शक नहीं है कि सेब मूलतः शीत यानी टैंपरेट इलाके का फल है। इसकी उत्पत्ति और फिर खेती भी विश्व के शीत भाग में ही शुरू हुई और यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा था। हिमाचल में भी सेब की खेती का आरंभ एक टैंपरेट फ्रूट के रूप में हुआ। पर पिछले कुछ दशकों में फल वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसा कर दिखाया कि सेब अब टैंपरेट फ्रूट नहीं रह गया है। इसकी खेती अब लगभग सभी जगह संभव हो गई है। भारत में न केवल दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे स्थानों पर ही सेब के पेड़ फल दे रहे हैं, बल्कि कर्नाटक और केरल जैसे ऊष्णकटिबंधीय भागों पर भी ये फल उगाया जाना शुरू हो चुका है। भारत के बाहर इंडोनेशिया के बातू इलाके में, जो लगभग भूमध्य रेखा पर स्थित है, पिछले 70 वर्षों से सेब की बागबानी हो रही है और यहां सैकड़ों एकड़ में सेब के बाग लगे हैं। इन्होंने अपनी टेक्नीक को इतना विकसित कर लिया है कि ये लोग एक ही पेड़ से वर्ष में सेब की दो फसलें प्राप्त करते हैं और वह भी सारा साल। इसलिए अब सेब की खेती पहले जैसी नहीं रह गई है। शायद यह बात बहुतों को मालूम नहीं होगी कि हमारे प्रदेश में सेब की खेती को कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ले जाने के प्रयास आज से साठ वर्ष पूर्व शुरू कर दिए गए थे। साठ के दशक में प्रदेश में इस काम के लिए सिरमौर जिला के बागथन में एक विशेष फल अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया था और वहां सेब की कोई पचास से ज्यादा किस्में लगाई गई थीं जिनमें अमरीका और इजरायल में विकसित लो चिलिंग किस्में भी थीं। बागथन पूर्व मुख्यमंत्री स्व. डा. परमार का गांव भी है और वे इस कार्यक्रम में स्वयं बहुत दिलचस्पी लिया करते थे

। पर पता नहीं किस कारण से नौणी यूनिवर्सिटी ने इस कार्यक्रम को आगे नहीं बढ़ाया और यह स्टेशन ही बंद कर दिया गया। मेरे विचार से इस विषय पर आगे जाने से पहले पाठकों को थोड़ा पौधों की चिलिंग आवश्यकता के बारे में थोड़ी जानकारी देना उचित होगा। जिन पेड़ों का सर्दी के मौसम में पतझड़ हो जाता है, उनको डेसीडुअस या पर्णपाती पेड़ कहते हैं। सेब, आड़ू, प्लम आदि के पेड़ इसी वर्ग में आते हैं। असल में सर्दी के शुरू होते ही ये पेड़ सुषुप्त अवस्था में चले जाते हैं। फिर सर्दी बीतते और बसंत आरंभ होते ही पुनः जागृत हो जाते हैं। पहले सुषुप्त होने और फिर जागृत हो जाने की यह क्रिया बहुत जटिल है। सुषुप्त पेड़ों को जागृत अवस्था में आने के लिए उनको 45 डिग्री फारेनहाइट के तापमान के नीचे एक निश्चित अवधि के लिए ठंड लगनी जरूरी होती है, तभी ये पेड़ सुषुप्त अवस्था से बाहर आ पाते हैं। इस ठंड की मात्रा को हम घंटों में नापते हैं। इसलिए इसको चिलिंग घंटे कहते हैं। विभिन्न फलों और उनकी वैराइटियों के चिलिंग घंटे निश्चित होते हैं। ठंडे इलाकों में उगने वाली को अधिक चिलिंग चाहिए होती है। रॉयल डेलीशियस सेब के पेड़ों को 900-1000 घंटों की चिलिंग चाहिए होती है। अगर ठंड कम पड़ेगी तो इस सेब के पेड़ों में सर्दी की ऋतु के बाद फूल-पत्तियां ठीक से नहीं आएंगी। सेब की अन्ना किस्म के पेड़ों को केवल 300 घंटों की ही चिलिंग की जरूरत होती है, इसलिए सेब की यह वैराइटी निचले इलाकों में भी फल जाती है। हिमाचल के उन भागों में जहां पहले गुठलीदार फल जैसे आड़ू, प्लम आदि और आम तथा नींबू प्रजाति की ही खेती की जाती थी, अब सेब की बागबानी भी की जा सकती है। इसमें अब कोई भी शक नहीं रह गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि अब पूरे हिमाचल में सेब लगाए जा सकते हैं। इसके कुछ विशेष लाभ भी हैं। इन इलाकों के सेब जून के महीने से पकने शुरू हो जाते हैं और इसलिए ये बहुत अच्छे दामों पर बिक जाते हैं।

हां, इन इलाकों में सेब की पारंपरिक किस्में नहीं लग सकती। इन क्षेत्रों के लिए निम्न तीन किस्में उपयुक्त हैं और इन्हीं के पेड़ लगाए जाने चाहिए। नंबर एक, अन्ना: सेब की यह किस्म इजरायल के फ्रूट ब्रीडर अब्बा स्टीन ने वहां के आइन शेमर सामूहिक फार्म में पचास के दशक में विकसित की थी। इसको केवल 300 घंटों की चिलिंग चाहिए होती है, इसलिए यह किस्म सारे हिमाचल में उगाई जा सकती है। अन्ना सेब का रंग-रूप गोल्डन डेलीशियस से मिलता-जुलता होता है। नंबर दो, डॉर्सेट गोल्डन: इस किस्म की उत्पत्ति मध्य अमरीकी देश बहामास में 1960 के आसपास हुई मानी जाती है। इस किस्म का पेड़ वहां की एक महिला, मिसेज डॉर्सेट को अपने गोल्डन डेलीशियस सेबों के पेड़ों के बीच नजर आया था और उन्होंने इसे ‘डॉर्सेट गोल्डन’ का नाम देकर प्रसारित किया। इस किस्म को 150 घंटों की ही चिलिंग चाहिए होती है, इसलिए यह बहुत कम ठंड में भी हो जाती है। यह किस्म भी अब लोकप्रिय होती जा रही है। इसके फल गोल्डन डेलीशियस जैसे ही होते हैं। नंबर तीन, हरिमन: यह हिमाचल की ही किस्म है और इसकी उत्पत्ति कोई बीस साल पहले बिलासपुर जिला के घुमारवीं के पास के एक गांव पनियाला के किसान हरिमन शर्मा के फार्म पर हुई थी। हरिमन शर्मा ने इसके गुणों से प्रभावित होकर इसके कुछ पौधे तैयार करके अपने फार्म पर लगाए जो वहां बहुत सफलतापूर्वक फले।

इससे प्रोत्साहित होकर हरिमन ने इस सेब के बारे में औरों को बताया। धीरे-धीरे इस सेब का प्रचार होता गया। इस वक्त भारत के विभिन्न भागों में इस किस्म के कोई पांच लाख पेड़ लग चुके हैं। भारत के अतिरिक्त इस किस्म के पेड़ नेपाल, जर्मनी और साउथ अफ्रीका में भी लग चुके हैं। ये सेब भी हरे रंग के, थोड़ा पीलापन लिए हुए, होते हैं। ये 15 जून के आसपास तैयार हो जाते हैं। यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि क्या गरम इलाकों में पैदा किए सेब खाने और देखने में वैसे ही होते हैं जैसे कि ऊपरी इलाकों के सेब। तो इस बारे में मेरा कहना यह है कि ये सेब उतने स्वादिष्ट तो नहीं होते जितने कि किन्नौर या कोटगढ़ के सेब। पर ये ऐसे भी बुरे नहीं होते कि इनको कोई खरीदे ही नहीं। ये खूब बिकते हैं और ठीक भाव पर बिकते हैं। यदि बागबान की उपज को ग्राहक स्वीकार कर लेता है और इसके उसे वाजिब दाम मिल जाते हैं तो उसका काम सफल हो गया। उसे अपनी उपज का मूल्य मिलना चाहिए क्योंकि वह फल आमदनी के लिए पैदा कर रहा है, किसी फ्रूट शो में ईनाम पाने के लिए नहीं। देखा गया है कि इन सेबों को दूसरे सेबों की तरह अधिक दिनों तक नहीं रखा जा सकता और यह 15 दिनों के बाद खराब होने शुरू हो जाते हैं। इसलिए बागबानों को चाहिए कि वे इनको जल्दी से जल्दी मंडी में पहुंचा दें।

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