राजनैतिकशिक्षा

13 जून : महान स्वतंत्रता सेनानी महाराणा प्रताप

-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540- 19 जनवरी 1597) उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया। उनका जन्म वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था।, 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 500 भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान सराहनीय रहा। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने अपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। हल्दीघाटी के युद्ध में और देवर और चप्पली की लड़ाई में प्रताप को सबसे बड़ा राजपूत और उनकी बहादुरी के लिए जाना जाता था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद, उन्हें मेवाड़ी राणा माना गया। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिन्ताजनक होती चली गई। 24,000 सैनिकों के 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।

जन्म स्थान
महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है। पहली महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता, भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे, भील अपने पुत्र को किका कहकर पुकारते है इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे। लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नहीं था। जोधपुर का राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत में सबसे शक्तिसम्पन्न था। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शासक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था। इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था। अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध में बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।

हल्दीघाटी का युद्ध
यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी। मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नहीं निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी।

समर्पण विचार
वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की। इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए।

दिवेर-छापली का युद्ध
राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है। मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था। यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। चीकली के पहाड़ी भागों में आज भी देवड़ा राजपूत बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। देवड़ाओं के पश्चात यहां रावत शाखा के राजपूत बस गये।

महाराणा प्रताप छप्पन के पहाड़ी स्थानों में बस्तियां बसाने और मेवाड़ के समतल भागों में खेतों को उजाड़ने में व्यस्त थे त्यों अकबर दिवेर के मार्ग से उत्तरी सैनिक चौकियों का पोषण भेजने की व्यवस्था में संलग्न रहा। प्रताप की नीतियों छप्पन की चौकियों को हटाने में तथा मध्यभागीय मेवाड़ की चौकियों को निर्बल बनाने में अवश्य सफल हो गये, परंतु दिवेर का केंद्र अब भी मुगलों के लिए सुदृढ़ था। इस पृष्ठभूमि में दिवेर का महाराणा प्रताप का व मुगलों का संघर्ष जुड़ा हुआ था। इस युद्ध की तैयारी के लिए प्रताप ने अपनी शक्ति सुदृढ़ करने की नई योजना तैयार की। वैसे छप्पन का क्षेत्र मुगल से युक्त हो चला था और मध्य मेवाड़ में रसद के अभाव में मुगल चौकियां निष्प्राण हो गई थी अब केवल उत्तरी मेवाड़ में मुगल चौकियां व दिवेर के संबंध में कदम उठाने की आवश्यकता थी।

इस संबंध में महाराणा ने गुजरात और मालवा की ओर अपने अभियान भेजना आरंभ किया और साथ ही आसपास के मुगल अधिकार क्षेत्र में छापे मारना शुरू कर दिया। इसी क्रम में भामाशाह ने, जो मेवाड़ के प्रधान और सैनिक व्यवस्था के अग्रणी थे, मालवे पर चढ़ाई कर दी और वहां से 2.3 लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी दौरान जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना दिवेर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था।

अचानक महाराणा की फौज दिवेर पहुंची तो मुगल दल में भगदड़ मच गई। मुगल सैनिक घाटी छोड़कर मैदानी भाग की तलाश में उत्तर के दर्रे से भागने लगे। महाराणा ने अपने दल के साथ भागती सेना का पीछा किया। घाटी का मार्ग इतना कंटीला तथा ऊबड़-खाबड़ था कि मैदानी युद्ध में अभ्यस्त मुगल सैनिक विथकित हो गए। अन्ततोगत्वा घाटी के दूसरे छोर पर जहां कुछ चौड़ाई थी और नदी का स्त्रोत भी था, वहां महाराणा ने उन्हें जा दबोचा। दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तानखां को कुं. अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तानखां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। महाराणा ने भी इसी तरह बहलोलखां और उसके घोड़े का काम तमाम कर दिया। एक राजपूत सरदार ने अपनी तलवार से हाथी का पिछला पांव काट दिया। इस युद्ध में विजयश्री महाराणा के हाथ लगी।

सफलता और अवसान
पू. 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585ई. में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा जी की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरन्त ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।
महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परन्तु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई। महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद आगरा ले आया। एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए। शत शत नमन ऐसे वीर योध्या को।

 

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