राजनैतिकशिक्षा

कश्मीर में हालात बेहतर, पर चुनाव दूर!

-मनु श्रीवत्स-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

वर्ष 2023 भी आधा बीतने को है मगर विधानसभा चुनाव का इंतज़ार कर रहे जम्मू-कश्मीर के लोगों का इंतज़ार फिलहाल समाप्त होता दिखाई नही देता। विधानसभा चुनाव कब होंगे? किसी को कुछ नही पता। चुनाव जल्द होने का कोई संकेत भी नही मिल रहा। ऐसे में विधानसभा चुनाव के लिए इंतज़ार अभी और लंबा हो सकता है। उल्लेखनीय है कि पांच साल पहले 19 जून 2018 को महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार को भंग कर जम्मू-कश्मीर पर केंद्रीय शासन लागू किया गया था। केंद्रीय शासन के अधीन आने के बाद लगातार प्रदेश ने कई बड़े बदलाव देखे हैं। इन पांच वर्षों ने जम्मू-कश्मीर के उथल-पुथल भरे इतिहास में कई नए अध्याय जोड़ने का काम किया है। इस दौरान प्रदेश का भूगोल व स्वरूप ही नही बदला बल्कि कई बड़े राजनीतिक व प्रशासनिक बदलाव भी हुए।

केंद्रीय शासन लगने के बाद एक बड़ा व अहम फैसला लेते हुए केंद्र ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद-370 को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इसी के साथ जम्मू-कश्मीर प्रदेश का पूर्ण राज्य का दर्जा भी खत्म कर उसे दो हिस्सों में बांट दिया गया था। अब जम्मू-कश्मीर एक अलग केंद्र शासित प्रदेश है जबकि किसी समय प्रदेश का हिस्सा रहा लद्दाख एक अलग केंद्र शासित प्रदेश के रूप में आकार ले चुका है। प्रदेश का पुनर्गठन करते समय जम्मू-कश्मीर के लिए दिल्ली और पुडुचेरी की तरह उसकी अपनी विधानसभा का प्रावधान रखा गया था जबकि लद्दाख के लिए इस तरह का कोई प्रावधान नही है। लेकिन केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद अभी तक जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव नही करवाए गए हैं और प्रदेश अभी भी केंद्रीय शासन के अधीन ही है। आखिर जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव क्यों नही हो रहे? यह सवाल लगातार पूछा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में देरी किस बात की है। जबकि सरकार से लेकर सरकार के आलोचक तक यह मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति बहुत अधिक समान्य है और शांति स्थापित हो चुकी है।

कसा गया है आतंकवाद पर शिकंजा

गत चार-पांच वर्षों के हालात यह साफ तौर पर बताते हैं कि आज जम्मू-कश्मीर के हालात बहुत ही बेहतर हैं और कानून व व्यवस्था कई अन्य प्रदेशों की तुलना में बहुत ही अच्छी है। केंद्र सरकार की बड़ी सफलता यह रही है कि उसने आतंकवाद से निपटने के लिए जो दृढ़ता दिखाई है उसमें निरंतरता रही है।अगर एक तरफ आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों पर नकेल कसी गई है तो साथ ही साथ उनके समर्थकों को भी बख्शा नही गया है। हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन अब इतिहास का हिस्सा हो चुके और उनका नाम लेने तक को भी कोई तैयार नही है। हुर्रियत कांफ्रेंस व कुछ अन्य संगठन अक्सर चुनाव बहिष्कार का दबाव बनाया करते थे, मगर आज ऐसे संगठनों का अपना कोई अस्तित्व तक नहीं बचा है।

हाल ही में जी-20 के सफल आयोजन ने मोदी सरकार के आलोचकों को भी कश्मीर को लेकर अपनी राय बदलने पर मजबूर किया है। बड़ी संख्या में पर्यटकों का लगातार कश्मीर आना भी बताता है कि पहले के मुकाबले हालात बहुत तेज़ी से बदलें हैं और लगभग हर दिन लगातार बदल भी रहे हैं। हालात को बेहतर बनाने में यहां सरकार व सुरक्षा बल बधाई के हकदार हैं वहीं प्रदेश विशेषकर कश्मीर घाटी के आम लोगों की भी तारीफ़ की जानी चाहिए जिन्होंने हालात को बेहतर बनाने में अपना पूरा सहयोग दिया है। इन कुछ वर्षों में कश्मीर के आम लोग किसी भी तरह के बहकावे में नहीं आए हैं। बदलते हालात व बदलते कश्मीर को देखते हुए कहा जा सकता है कि आम लोगों ने सरकार और उसके प्रयासों को अपनी पूरी हिमायत दी है।

जिस तरह से आतंकवाद पर शिकंजा कसा गया है और प्रदेश में लगभग स्थिति सामान्य है उसे देखते हुए कोई कारण शेष नहीं बचता कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव न हों और एक लोकप्रिय सरकार का गठन न हो। प्रदेश के वर्तमान हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव करवाने का यह सबसे अधिक अच्छा समय हो सकता है। लेकिन हालात सामान्य होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव नहीं करवाए जा रहे हैं। जिस वजह से कई सवाल लगातार उठते रहे हैं। गाहे-बगाहे किसी केंद्रीय मंत्री की तरफ से बयान आने के बाद चुनाव को लेकर कुछ दिनों के लिए उम्मीद जग जाती है। मगर वास्तविकता में ऐसा अभी तक हो नही पाया है। विधानसभा चुनाव न करवाए जाने को लेकर कुछ समय पहले तक सरकार की ओर से कहा जाता रहा था कि जब तक परिसीमन आयोग अपनी रिपोर्ट नही दे देता चुनाव करवाना संभव नही है। लेकिन गत वर्ष पांच मई को परिसीमन आयोग की रिपोर्ट भी सामने आ गई मगर एक एक साल से अधिक बीत जाने के बावजूद भी चुनाव नही करवाए गए हैं।

विपरीत हालात में हो चुके हैं चुनाव

जम्मू-कश्मीर का इतिहास बताता है कि पूर्ण राज्य रहते जम्मू-कश्मीर में बेहद विपरीत परिस्थितियों और आतंकवादियों की धमकियों के बावजूद चुनाव होते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में जब अचानक 1989 के अंत में पाक प्रायोजित आतंकवाद ने खतरनाक ढंग से दस्तक दी थी तो खराब हालात को देखते हुए 19 जनवरी 1990 को जम्मू-कश्मीर में लंबे समय के लिए केंद्रीय शासन लागू कर दिया गया था। यह केंद्रीय शासन 6 साल 264 दिन तक चला। इस केंद्रीय शासन की समाप्ति 9 अक्तूबर 1996 को उस समय हुई जब प्रदेश में कठिन हालात के बावजूद विधानसभा चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हुए व लोकप्रिय सरकार का गठन हुआ। उस समय के हालात में चुनाव करवाना एक हिम्मत भरा फैसला था। इस चुनाव ने कश्मीर के हालात को नई दिशा देने में अहम भूमिका निभाई थी, चुनाव के सफल आयोजन से आतंकवाद और अलगाववादियों को एक ज़बरदस्त झटका लगा था।

1996 में जब प्रदेश में चुनाव करवाए गए थे तो उस समय चुनाव करवाना अगर असंभव नही तो कम से कम मुश्किल ज़रूर था। प्रदेश के हालात बहुत ही खराब थे। आतंकवाद लगातार जारी था और आतंकवादियों की ओर से लगभग पूरे प्रदेश में हमले किए जा रहे थे। यही नही हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठन बहुत ताकतवर थे और लगातार सक्रिय थे। मगर बावजूद इसके विधानसभा चुनाव संपन्न हुए और डॉ फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। इस सरकार ने सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा भी किया। इसी तरह से बाद में 2002, 2008 और 2014 में भी विधानसभा चुनाव हुए और लोकप्रिय सरकारों का गठन भी हुआ। यह सभी चुनाव आतंकवाद के साये में ही संपन्न हुए। इन सभी चुनावों को आतंकवादियों और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठनों की बहिष्कार की धमकियों का भी सामना करना पड़ा। मगर बावजूद इस सब के सभी चुनाव सफलतापूर्वक हुए और बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी भी रही। इसमें कोई संदेह नही है कि 1996, 2002, 2008 और 2014 के हालात के मुकाबले आज के हालात में ज़मीन-आसमान का अंतर है।

हो चुके हैं नगर निकायों व विकास परिषद के चुनाव

ऐसा भी नही है कि 19 जून 2018 को जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय शासन लगने के बाद कभी कोई चुनाव हुआ ही नही। सितंबर-अक्तूबर-2018 में सफलतापूर्वक प्रदेश में नगर निकायों के चुनाव हो चुके हैं। यही नही 5 अगस्त 2019 को केंद्र शासित बनने के बाद जिला विकास परिषदों के चुनाव भी करवाए गए थे। दिसबंर 2020 में हुए जिला विकास परिषदों के चुनाव में पूरे प्रदेश में भारी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया था। जम्मू-कश्मीर जैसे पर्वतीय और भौगोलिक रूप से अति दुर्गम प्रदेश मं जिला विकास परिषद के चुनाव भी अपने-आप में कम चुनौतिपूर्ण काम नही था।

कामयाबी के साथ जिला विकास परिषद के चुनाव संपन्न करवा लिए जाने के बावजूद विधानसभा चुनाव को लेकर अपनाई जा रही खामोशी किसी के भी गले नही उतर रही है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है इसे लेकर किसी के पास कोई सपष्ट जवाब नही है। जब केंद्र सरकार खुद मानती है कि हालात बेहद अच्छे हैं तो विधानसभा चुनाव का न हो पाना राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम लोगों में निराशा पैदा कर रहा है।

विधानसभा चुनाव को लेकर बनी हुई अस्पष्टता के कारण राजनीतिक दल भी राजनीतिक रूप से बहुत अधिक सक्रिय नही हैं। ज़मीनी स्तर पर बहुत अधिक राजनीतिक सरगर्मियां न के बराबर हैं। राजनीतिक नेताओं व दलों की निष्क्रियता के परिणामस्वरूप बाबूशाही का पूरे प्रदेश में बोलबाला है, जिस कारण आम आदमी परेशान है और आम लोगों व प्रशासन के बीच खाई लगातार बढ़ रही है बनी हुई है। उधर केंद्र और प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व के बीच एक संवादहीनता की स्थिति भी लगातार बनी हुई है। यहां तक कि सामान्य संवाद भी दोनों ओर से नही हो पा रहा है।

अनुच्छेद-370 की समाप्ति और प्रदेश के पुनर्गठन के बाद केंद्र की तरफ से प्रदेश के राजनीतिक नेताओं के साथ संवाद स्थापित करने की एकमात्र जो पहल की गई थी, उसे भी दो साल हो चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ 24 जून 2021 को दिल्ली में प्रदेश के सभी महत्वपूर्ण व बड़े नेताओं की एक लंबी बैठक हुई थी। इस बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती,उमर अब्दुल्ला सहित कई नेता शामिल हुए थे। इस बैठक को केंद्र की तरफ से उठाए गए एक बड़े कदम के रूप में देखा देखा गया था। मगर केंद्र और प्रदेश के नेताओं के बीच हुई इस एकमात्र बैठक के बाद दोबारा कभी प्रदेश के नेताओं व केंद्र सरकार के बीच औपचारिक संवाद स्थापित नही हो सका।

 

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