राजनैतिक

25 दिसम्बर मालवीय जयंती पर महात्मा गांधी ने बनाया था मदन मोहन को मालवीय

-डा श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

महान शिक्षाविद् एवम स्वााधीनता संग्राम सेनानी पं. मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. को सूर्य कुण्ड या लालडिंग के कूंचा सावल-दास मोहल्ले में बृजनाथ के घर संध्या को 6 बजकर 54 मिनट पर प्रयाग में हुआ। इनकी माता भूना देवी थी। बी.जे. अकद के कथानुसार – ‘यह भारत माता के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, जब 25 दिसम्बर 1861 को इलाहाबाद में पं. बृजनाथ के घर एक नन्हें से बच्चे ने जन्म लिया था।’ कौन जानता था कि वह छोटा-सा निर्बल बालक एक दिन देश की स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भरता के लिए सिंह गर्जना करेगा। बचपन से ही इनके माता-पिता को ऐसा प्रतीत होता था कि भविष्य में यह बालक बहुत ही होनहार होगा। एक कहावत भी चरितार्थ है कि ‘होनहार बिखान के होत चिकने पात’ मालवीय जी ने इस कहावत को अपने जीवन में चरितार्थ किया था। पाँच वर्ष की आयु से ही उनकी शिक्षा आरम्भ हुई थी। उस समय प्रयाग में अहिपापुर मौहल्ले में कोई पाठशाला न थी। लाला मनोहर दास रईस की कोठी के चबूतरे पर, जो तीन सवा तीन फीट चैड़ा और दस पन्द्रह फीट लम्बा था, उसी पर टाट बिछा कर एक गुरु जी लड़कों को पढ़ाया करते थे। उन्हें वहां से हरदेव जी की पाठशाला जिसका नाम धर्मोपदेश पाठशाला था। जहाँ से स्थायी रूप से मदन मोहन मालवीय जी ने अपना विद्याध्ययन शुरू किया था। मदन मोहन मालवीय जी ने संस्कृत काव्य, गीता एवं अन्य धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया था। इनमें से मालवीय जी को संस्कृत काव्य ने अधिक प्रभावित किया था।
पंडित मदन मोहन मालवीय का एक सामाजिक-राजनीतिक सुधारक के रूप में ऐसे समय उदय हुआ जब पूरा देश विकट परिस्थितियों में गुजर रहा था। युगपुरुष महामना मदनमोहन मालवीय का जीवन अत्यंत उतार-चढ़ाव भरा रहा। गरीबी झेलते हुए उन्होंने न सिर्फ ज्ञानार्जन किया, बल्कि स्वयं को शिखर पर पहुंचाया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कवि, शिक्षक, पत्रकार, वकील के रूप में ऐसी अमिट छाप छोड़ी, कि हर कोई आज भी उससे प्रेरणा ले रहा है। 15वीं सदी में वे उत्तर प्रदेश चले आए। मालवा का होने के कारण वे लोग मल्लई कहलाते थे, जो बाद में मालवीय हो गया। मालवीय जी की आरंभिक शिक्षा इलाहाबाद में पूरी हुई। उन्होंने मकरंद के नाम से 15 वर्ष की आयु में कविता लिखना आरंभ कर दिया था और सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में उन्होंने एंट्रेंस की परीक्षा पास की। ऐंट्रस पास करने के बाद मालवीय जी म्योर सेंट्रल कालेज में पढ़ने लगे। परिवार के लिए कालेज की पढ़ाई का आर्थिक बोझ वहन करना कठिन था, पर माता ने कठिनाई सहकर, अपने जेवर गिरवी रखकर अपने बच्चे को पढ़ाने का निश्चय किया। प्रिंसीपल हैरिसन ने उन्हें एक मासिक वजीफा दिया। फिर भी मदनमोहन मालवीय को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। चाहे मालवीय जी के शिक्षा क्षेत्र में कितनी भी कठिनाई क्यों न आई हो, उन्होंने बैरिस्टर तक की शिक्षा ग्रहण की। विनोदः कालेज में एक बार आर्यनाटक मण्डली की ओर से ‘शकुंतला’ नाटक का अभिनय हुआ, इसमें मदन मोहन मालवीय को शकुन्तला का पार्ट दिया गया। परदा उठने पर प्रियम्वदा और अनुसूया सखियों के साथ शकुन्तला हाथ में घड़ा लिए रंगमंच पर आयी, तब दर्शक दंग रह गये।
उनका का विवाह 16 वर्ष की आयु में उनके चाचा पंडित गजाधर प्रसाद जी के माध्यम से मिर्जापुर के पंडित नन्दलाल जी की कन्या कुनन देवी से हुआ। वे माता-पिता के दुलार में पली थी। लड़कपन में उन्हें किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं था। ससुराल की आर्थिक दशा ने उन्हें बड़े धैर्य और साहस से निर्धनता के कष्ट सहन करने को बाध्य किया। उन्हें आधा पेट खा कर संतोष करना पड़ता था। फटी धोतियों सी कर पहननी पड़ती थी।
वर्ष 1868 में उन्होंने प्रयाग सरकारी हाई स्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास की। इसके उपरान्त उन्होंने मायर सेंट्रल कालेज में प्रवेश लिया। कालेज में पढ़ाई करते हुए वर्ष 1880 में उन्होंने अपने गुरु पं॰ आदित्यराम भट्टाचार्य के नेतृत्व में हिंदू समाज नामक सामाजिक सेवा संघ स्थापित किया। वे स्कूल के साथ-साथ कालेज में भी कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। उन्होंने लिखा है, ‘मैं एक गरीब ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ। इसलिए पढ़ाई का खर्च पूरा करने के लिए एक सेठ के छोटे बच्चे को पढ़ाने जाता था। धार्मिक भावों के प्रति मेरा रुझान बचपन से था। स्कूल जाने के पहले मैं रोज हनुमान जी के दर्शन करने जाता था।’ वे भारतीय विद्यार्थी के मार्ग में आने वाली भावी मुसीबतों को जानते थे। उनका कहना था, ‘छात्रों की सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भूभाग में उन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।’
भारतीय स्वातंत्रय आन्दोलन के इतिहास में महामना का व्यक्तित्व स्वतः साक्ष्य रूप में प्रत्येक आन्दोलन से संबंधित रहा है चाहे राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रश्न रहा हो अथवा अछूतोद्धार या दलित वर्ग की समस्या रही हो या हिन्दू-मुस्लिम एकता की। चाहे औद्योगिक, आर्थिक अथवा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विषय रहा हो या राष्ट्रीय शिक्षा के उन्नयन का अथवा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का। इन सभी क्षेत्रों में महामना एक सच्चे सिपाही की भाँति अग्रणी रहे हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय महापुरुष और श्रेष्ठ आत्मा थे। उन्होंने समर्पित जीवन व्यतीत किया तथा धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि बहुत से क्षेत्रों में अपने लोगों की उत्कृष्ट सेवाएं की। धमकियों से निडर और प्रलोभनों से अनाकृर्षित उन्होंने अन्याय और क्ररताओं से संघर्ष किया तथा साहस और दृढ़तापूर्वक अपने उद्देश्य की नैतिकता पर दृढ़विश्वास के साथ अपने देशवासियों के सामूहिक हित और उत्कर्ष के लिए 50 वर्ष से अधिक काम किया निःसंदेह उनका व्यक्तित्व उनकी महान् उपलब्धियों से कहीं अधिक प्रतिष्ठित था।
मदनमोहन मालवीय का पूरा जीवन भले ही गरीबी में बीता हो लेकिन उसने कभी भी अपने मन में हीन भावना नहीं आने दी और सदा राजा कर्ण जैसी दानवीर की सोच रखी। अपने आप में यह बहुत बड़ी बात है कि अगर किसी के पास धन हो तो वह दान कर सकता है। उसमें कोई बड़ी बात नहीं लेकिन जो आदमी अपने परिवार को तीनों समय का भोजन भी पूर्णरूपेण न दे सके और वह आदमी फिर भी दानवीर की सोच रखता हो, यह सबसे बड़ी बात है। मालवीय जी ने चाहे विद्या का दान हो, चाहे किसी गरीब आदमी की मदद की बात हो, समाज उत्थान की बात हो, समाज की कुरीतियों की बात हो, किसी भी क्षेत्र में वे पीछे नहीं हटे।
महात्मा गाँधी का महामना के लिए बहुत आदर था और मदनमोहन का हृदय से सम्मान करते थे वह उनकी कोई बात नहीं टालते थे। उन्होंने ही मदनमोहन मालवीय को ‘महामना’ की उपाधि दी।। उन्होंने महामना के लिए लिखा- ‘जब मैं अपने देश में कर्म करने के लिए आया तो पहले लोकमान्य तिलक के पास गया। वे मुझे हिमालय से ऊँचे लगे। मैंने सोचा हिमालय पर चढ़ना मेरे लिए संभव नहीं और मैं लौट आया। फिर मैं गोखले के पास गया। वे मुझे सागर के समान गंभीर लगे। मैंने देखा कि मेरे लिए इतने गहराई में बैठना संभव नहीं और मैं लौट आया। अंत में मैं महामना मालवीय के पास गया। मुझे वे गंगा की धारा के समान पारदर्शी निर्मल लगे।
मदन मोहन मालवीय अहिंसा के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी के श्रद्धा पात्र एवं नियम विधान के पाबंद थे। मालवीय जी उन चंद महापुरुषों में से थे, जिनके गांधी जी चरणस्पर्श करते थे। दोनों ही अपने सिद्धांतों पर अटल रहा करते थे और कभी-कभी इसके चलते उनमें वैचारिक मतभेद भी उत्पन्न हो जाते थे।
महामना मदन मोहन मालवीय ने अपनी वेशभूषा, व्यक्तित्व विचारों और अपने संपूर्ण जीवन से भारतीय संस्कृति और धर्म का जो आदर्श हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उसका अनुसरण करना तो दूर रहा, आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम ठीक उसकी विपरीत दिशा में पागलों की तरह भागकर अर्द्धपतित हुए चले जा रहे हैं, जिसमें महामना द्वारा प्रतिपादित नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को कोई स्थान नहीं है। महामना राष्ट्र की स्वतंत्राता के अडिग पुजारी, शिक्षा के अनन्य सेवी, कुशल पत्राकार एवं विधिवेत्ता तथा समस्त भारतीय समाज में चेतना का स्पफुर्लिंग प्रज्ज्वलित करने वालों में प्रमुख कर्णधार थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने महामना के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘भारत को अभिमान तुम्हारा, तुम भारत के अभिमानी।’ महामना ने भारतीय राजनीति के नीलाकाश पर अपने शुभ्र धवल व्यक्तित्व की पुनीत आभा से विराट भास्कर की भाँति दिप्ती बिखेरी थी। धर्म, समाज, राजनीति सभी क्षेत्रों में अजातशत्रु महामना का व्यक्तित्व निष्कलंक था। वे जब तक जिये मनसा, वाचा, कर्मणा जनता की सेवा की। ‘सागरः सागरोयम’ भाँति उनका व्यक्तित्व अनुपमेय था। 28 दिसम्बर 1886 को कलकत्ता के टाउन हाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता ब्रिटिश संसद के प्रथम भारतीय सांसद दादा भाई नैरोजी ने की। महामना की आयु तब केवल 25 वर्ष की थी और इस अधिवेशन में अपने प्रथम भाषण में उन्हेांने अपने श्रोताओं को मंत्रामुग्ध कर दिया। उनके भाषण के बारे में कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम ने 1886 की रिपोर्ट में लिखा, ‘जिस भाषण को श्रोताओं ने अत्यन्त उत्साह से सुना, संभवतः वह भाषण पं. मदन मोहन मालवीय का था जो एक उच्च जातीय ब्राह्माण थे और जिनके मोहक सुकुमार और गौर वर्ण व्यक्तित्व तथा विद्वतापूर्ण संबोधन ने सभी को आकर्षित किया।

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