राजनैतिकशिक्षा

विपक्षी एकता मजबूरी या राष्ट्रहित का कदम…?

-ओमप्रकाश मेहता-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

यह एकदम सही है कि “इतिहास अपने आप को दोहराता है”, इसका एहसास आज देश की उस बुजुर्ग पीढ़ी को हो रहा है जो आजादी के बाद से अब तक का भारत के राजनीतिक घटनाक्रमों के चश्मदीद गवाह रहे हैं, क्योंकि आज देश में उसी राजनीतिक घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति हो रही है, जो आज से करीब 50 साल पहले इंदिरा गांधी के शासनकाल में हुई थी, इंदिरा जी ने आपातकाल देश में घोषित करने के बाद जिस तानाशाही शासन के स्वरूप के दर्शन कराए थे, उससे आज प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी प्रेरणा ग्रहण कर प्रतिपक्ष को वही सब सोचने को मजबूर कर रहे हैं, जो उनके नेता स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई व बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोचा था और उन्ही के नक्शे कदम पर आज भी प्रतिपक्ष बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चलने का प्रयास कर रहे है।

आज जिस तरह का देश में राजनीतिक माहौल है उसके तहत ऐसा हर कहीं महसूस किया जा रहा है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में मोदी ही अपनी दबंगता से अपनी सरकार फिर कायम करेंगे और बिखरा हुआ विपक्ष हाथ मलता ही रह जाएगा? और चूंकि इसी आशंका से प्रति पक्षी दल व उनके नेता भी घिरे हुए हैं, इसलिए अकेले किसी भी विपक्षी दल में मोदी की आंधी का सामना करने की हिम्मत नजर नहीं आ रही है, इसलिए प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहयोग से मोदी की आंधी का सामना करने की तैयारी कर रहा है।

प्रयास अपनी जगह जारी जरूर है किंतु हर किसी के मन में यह तीव्र आशंका भी है कि क्या उनके प्रयासों को राष्ट्रीय स्तर पर सफलता मिल पाएगी? किंतु “मरता क्या नहीं करता” की तर्ज पर प्रति पक्षी दलों के सामने एकजुट होने और मोदी की आंधी का सामना करने के अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं है? यद्यपि हर दल व उसका नेता अपने स्वयं के प्रयास के प्रति काफी आशंकित भी है, किंतु समय की पुकार सुन हर दल यही करने को मजबूर है।

इसमें संदेह नहीं कि फिलहाल विपक्षी एकता राजनीतिक विमर्श का केंद्र बन रही है, यह कोई नई बात भी नहीं है जब भी विभिन्न दलों के नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की बात करते हुए मेल मिलाप करते हैं, तो वह चर्चा में आने के साथ ही मीडिया में भी स्थान बना लेते हैं, लेकिन फिर बात आगे बढ़ती नहीं दिखती। आज भी यही हो रहा है कितने प्रति पक्षी दलों ने नीतीश जी के नेतृत्व को स्वीकार कर उनके साथ खड़े होने की स्वीकृति प्रदान की है? क्या कांग्रेस के मां-बेटे (सोनिया-राहुल) ने खुलकर नीतीश जी का नेतृत्व स्वीकार किया है? क्या नए राष्ट्रीय दल आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल या समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने नीतीश जी के प्रयासों में सहयोगी बनने की मंजूरी दी है? सिर्फ अकेले नीतीश जी के शंखनाद से क्या होने वाला है? उल्टे नीतीश के प्रयास तो यह सिद्ध कर रहे हैं कि उन्होंने अभी से मान लिया है कि अगले आम चुनाव के बाद भी केंद्र में मोदी जी की ही सरकार बनेगी? और इसी डर के कारण वे प्रति पक्षी एकजुटता का जीतोड़ प्रयास कर रहे हैं?

इधर यदि देश पर राज कर रही भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो वह तो उत्तरी भारत पर अपना ‘एकछत्र राज’ मानकर चल रही है, और अब उसकी नजर दक्षिण पर है जिसकी शुरुआत वह तेलंगाना व कर्नाटक से करने जा रही है, आज कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत व वहां भावी सरकार उसका प्रथम लक्ष्य है और इसी में वह जी जान से जुटी है, प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा दोनों का ही एकमात्र लक्ष्य दक्षिण पर कब्जा कर पूरे देश पर ‘चक्रवर्ती राज’ कायम करने का है, यदि दक्षिण पर भाजपा ने कब्जा कर लिया तो फिर उसे चक्रवर्ती बनने से कोई नहीं रोक सकता।

इस प्रकार कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि आज की सरकारों पर काबिज राजनीतिक दल देश या राष्ट्र जनहित के उद्देश्य से सरकार नहीं बनाते बल्कि अपना अगला भावी राष्ट्रीय राज मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं, तो कतई गलत नहीं होगा? अब इसे देश हित में कहा जाए या देश हित के विरोध में यह देशवासियों व भारत के बारे में सोचने वालों की सोच पर निर्भर है? हां, इस वक्त यह एक विचार जरूर हर आम व खास के दिल दिमाग में कौंधता है कि आजादी के बाद के अब तक के 75 सालों में देश का आम वोटर अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग क्यों नहीं हो पाया?

 

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