न्यायपालिका पर विधायिका का नियंत्रण क्यों….?
-ओम प्रकाश मेहता-
-: ऐजेंसी/अशोका एक्स्प्रेस :-
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में संवैधानिक आधार पर प्रजातंत्र के तीन अंग माने गए हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका…. और साथ ही हमारे संविधान ने इन तीनों अंगों को बिना एक दूसरे के हस्तक्षेप के स्वतंत्रता पूर्वक अपने कर्तव्य व दायित्व पूरे करने की छूट भी दी है, फिर आखिर विधायिका (सरकार) हमारे संविधान की भावना की कद्र नहीं करते हुए न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में क्यों रखना चाहती है? क्यों उसे अपने स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दे रही, कार्यपालिका तो विधायिका के नियंत्रण में है ही, अब आजादी के 75 साल बाद भारतीय जन-जन की आशा उम्मीदों का केंद्र बनी न्यायपालिका पर विधायिका क्यों अपनी आंखें गड़ाए हुए हैं? यदि इस अंग से भी देश की निराश जनता की आस टूट जाएगी तो फिर वह अपनी गुहार किसके सामने लगाएगी?
पिछले कुछ वर्षों से विधायिका अर्थात सरकार के ये भरसक प्रयास चल रहे हैं कि वह किसी भी तरह न्यायपालिका को अपने कब्जे में ले ले, जिससे कि फिर सरकार निरंकुश रूप से अपनी मनमानी देश में चला सके, अभी न्यायपालिका उसके मार्ग का रोड़ा बनी हुई है, जो सरकार के फैसलों की निष्पक्ष समीक्षा कर अपना फैसला सुनाती है, इसलिए सरकार के कई फैसले वह खारिज भी कर देती है, जिससे सरकार पूरे देश के सामने मजाक बनकर रह जाती है, इस स्थिति से बचने के लिए सरकार के न्याय व कानून मंत्री न्यायालय को अपने नियंत्रण में मानकर उल्टी सुल्टी ब्यानबाजी कर निर्देश देते रहते हैं, यद्यपि न्यायपालिका का मौजूदा रूख सरकार के सामने झुकने या आत्मसमर्पण का नहीं है, किंतु सरकार तो ऐसा लगता है कि यही चाहती है?
यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की खींचतान कोई नई नहीं है, यह नेहरू व इंदिरा जी के समय से चली आ रही है, इंदिरा जी ने तो आपातकाल के 19 महीनों में सभी संवैधानिक सीमा पार कर ली थी, किंतु उसके बाद भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं, बाद की सरकारों ने भी न्यायपालिका के साथ वैसा ही व्यवहार करने की कोशिश की जो मौजूदा सरकार में भी जारी है। अब मौजूदा कानून मंत्री ना सिर्फ न्यायालयों को नित नए निर्देश देते रहते हैं, बल्कि न्यायपालिका के अपने कुछ अधिकार भी छीन कर अपने पास रखना चाहते हैं, जबकि हमारे संविधान ने वह सब अधिकार स्वयं न्यायपालिका को सौंपे हैं अब कानून मंत्री सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में भी हस्तक्षेप करने का प्रयास कर रहे हैं….। और अपनी इस मंशा को पूरी करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तावित न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिशे अपने पास लंबे समय तक रोक कर रखते हैं और न्यायाधीशों के अभाव में भारतीय न्यायालयों में दिनोंदिन प्रकरणों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करने वाली संस्था कॉलेजियम महीनों तक नियुक्ति का इंतजार करती रहती है।
सही बात तो यह है कि संविधान ने चाहे तीनों अंगों को स्वतंत्र रूप से काम करने का उल्लेख किया हो किंतु सरकार जो भी आती है, वह अपनी हर जगह सत्ता चाहती है, जिसमें उसने न्यायालयों को भी शामिल कर रखा है और न्यायपालिका अपना संवैधानिक स्वतंत्र रूप चाहती है, आज की यही मुख्य खींचतान है क्योंकि सत्ता में कोई भी रहे वह अपना स्वयंभू शासन चाहता है और किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं चाहता, जिसमें सभी के लिए न्यायपालिका अवरोधक बनी हुई मानी जाती रही है, इसलिए हर सरकार न्यायपालिका पर कब्जे के प्रयास करती नजर आती है। आज की सबसे बड़ी और अहम जरूरत ही यही है कि प्रजातंत्र के तीनों अंगों को स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए और कोई भी अंग दूसरे किसी के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप ना करें, यह होने पर ही हमारा देश सच्चा लोकतंत्र देश कहा जा सकता है और फिर इस का परचम पूरे विश्व में फेरा सकता है।