राजनैतिकशिक्षा

क्या सावित्रीबाई फुले की विरासत भूल गया देश

-चिंटू कुमारी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

किसी भी समाज में व्यक्ति के संपूर्ण विकास की पहली और जरूरी शर्त शिक्षा होती है। शिक्षा किसी भी देश के सजग और समग्र विकास का मजबूत बेस होती है। हमारे देश में भी समावेशी शिक्षा की नींव रखने वाली सावित्रीबाई फुले की गौरवमयी विरासत मौजूद है। आज यानी 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले के जन्म के 192 साल हो चुके हैं। सवाल है कि आज के हमारे पढ़े-लिखे सभ्य समाज ने अपनी इस विरासत का क्या किया?

ढेरों संस्थाएं और सरकारें सावित्रीबाई की 200वीं जयंती का समारोह मनाएंगी। लेकिन उनके शैक्षणिक, साहित्यिक चेतना, सामाजिक और राजनीतिक विरासत को बचाने की न तो सुगबुगाहट है और न ही कोई इच्छाशक्ति दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है मानो उनकी क्रांतिकारी चेतना को जिंदा न रहने देने में ही वर्ग विशेष की भलाई है। जबकि शिक्षा को लेकर सावित्रीबाई की परिकल्पना बहुत गहरी, दूरदर्शी और समावेशी थी। शिक्षा से उनका तात्पर्य शोषण आधारित मानसिकता की जगह वैज्ञानिक आधार और मानवीय मूल्यों को सुनिश्चित करना था।

आज जब शिक्षा के मौलिक अधिकार का दायरा बढ़ाने के लिए तरह-तरह के मंच, आयोग और समितियां संघर्ष कर रहे हैं, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इसका डंका सावित्रीबाई फुले बहुत पहले ही बजा चुकी थीं। उनका मानना था कि क्रांतिकारी चेतना न हो तो समाज के बदलने का हर रास्ता बंद हो जाता है। 19वीं शताब्दी के भारत में जब महिला, खासकर शूद्र महिला के लिए पढ़ पाना एक सपना था, तब सावित्रीबाई फुले ने बहुसंख्यक शोषित-पीड़ित लोगों और महिलाओं को इसका सपना देखना और साकार करना सिखाया। जब भी सबाल्टर्न इतिहास लेखन की परंपरा की बात होगी तो फुले दंपती के योगदान को दरकिनार करना मुश्किल होगा।

समाज के निम्न वर्गों, किसानों, गरीबों, शूद्रों, अतिशूद्रों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के अगुआ दस्ते के रूप में उन्होंने नया समाज बनाने का सपना देखना सिखाया। सावित्रीबाई फुले पहली असाधारण महिला पॉलिटिकल थिंकर भी थीं, जिन्होंने न्याय के सिद्धांतों को वास्तव में धरातल पर स्थापित करने का काम किया। उनकी इसी दूरदर्शिता के चलते 1852 में महिला सेवा मंडल नाम से महिलाओं का एक संघ बना। इस संगठन ने महिलाओं के बुनियादी अधिकारों और ह्यूमन राइट्स के प्रति जागरूक किया। वह जाति और पितृसत्ता के गठजोड़ को उसकी संपूर्णता में समझती थीं, इसलिए उन्होंने महिलाओं के प्रति दोहरे मापदंड को तो उठाया ही, साथ ही यह पितृसत्ता से कैसे जुड़ा हुआ है उसको भी उजागर किया।

उन्होंने विधवाओं के प्रति समाज की असंवेदनशीलता, शोषण और दमन के खिलाफ लोहा लिया। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह का न केवल समर्थन किया बल्कि इसे एक आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने ऐसी महिलाओं और विधवाओं के बच्चों के लिए आश्रम खोले। उनके तथाकथित ‘नाजायज’ बच्चों को भी संरक्षण दिया। ऐसे बच्चों के लिए उन्होंने अनाथालय खोले और उनको सम्मान की जिंदगी दी। उन्होंने विधवा महिलाओं के बाल काटकर गंजे करने के खिलाफ नाई लोगों को संगठित कर इसके खिलाफ हड़ताल कराई।

सावित्रीबाई फुले का जन्म एक ऐसे समय में हुआ, जब बंगाल में राजा राम मोहन रॉय, दयानंद सरस्वती और ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे महान समाज सुधारकों ने लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया था। उनके सामाजिक सुधार कार्यक्रमों की गूंज महाराष्ट्र तक भी पहुंचने लगी थी। इसी कड़ी में ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसे समाज सुधारक आगे आए। सावित्रीबाई फुले की जनचेतना और दूरदृष्टि हर मायने में उन तमाम सुधारकों से कहीं आगे थी।

हमारे देश में समाज सुधारकों की लंबी विरासत होने बावजूद महिलाओं को ध्यान में नहीं रखा गया। आज भी किसी कमांडिंग पोजिशन पर उन्हें स्थापित करने में हिचकिचाहट होती है। स्कूल, विश्वविद्यालय और अदालतों में महिला प्रिंसिपल, कुलपति या जजों की संख्या बेहद कम है तो इसलिए क्योंकि हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को किसी महिला से कमांड लेने की आदत नहीं। लेकिन इसके उलट हमारी ऐतिहासिक विरासत जेंडर रोल्स को तोड़कर एक व्यापक नजरिए के प्रति अगर सजग करती है, तो उसमें सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख जैसी महान नायिकाओं का बड़ा रोल है।

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