सुप्रीम कोर्ट का नोटबंदी पर आधा अधूरा फैसला
-सनत जैन-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
2016 में केंद्र सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया था। नोटबंदी के बाद सुप्रीम कोर्ट में 58 याचिकायें पिछले 6 वर्षों से लंबित थी। दिसंबर माह में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सभी लंबित याचिकाओं की एक साथ सुनवाई की। 2 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी आया। नोटबंदी के 6 साल बाद मामले की सुनवाई हुई। इस सुनवाई में 58 याचिकाओं में जो अलग-अलग मुद्दे उठाए गए थे। फैसले में उनका उल्लेख नहीं किया गया। जिसके कारण इस फैसले को आधा अधूरा ही माना जाना चाहिए। 6 वर्ष बाद नोटबंदी के फैसले को सही या गलत ठहराने से आम आदमी को कोई राहत मिलने वाली नहीं थी। लेकिन नोटबंदी के फैसले में जो अनियमितताएं हुई हैं। उनके बारे में जरूर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को अलग-अलग मुद्दों पर भी फैसला देना था। जिससे आम आदमी नोटबंदी के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आश्वस्त होता कि सुप्रीम कोर्ट ने न्याय किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के नोटबंदी के फैसले में सरकार के निर्णय को सही ठहरा दिया है। इसके जो नतीजे निकले हैं उस पर कोई चर्चा या फैसले में उल्लेख नहीं है। विभिन्न याचिकाओं में नोटबंदी से आतंकवाद कम होने काला धन खत्म होने 500 और 1000 रुपए के नोट बंद करके 2000 रुपए के नोट जारी करना अर्थव्यवस्था का तबाह होना नोटबंदी के दौरान जो सैकड़ों नियम समय-समय पर कुछ ही दिनों में बदले गए। संसद को इस मामले में अंधेरे में रखा गया। देश का कालाधन सफेद धन में बदल गया। रिजर्व बैंक और सरकार ने संसद में डिटेल जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं कराई है। लाखों लोग नोटबंदी के बाद बेरोजगार हो गए। सैकड़ों लोगों की मौत हो गई। इन सब मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 4 जजों ने निर्णय में सरकार के फैसले को सही ठहराया है। 58 याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों के संबंध में कोई निर्णय नहीं आने से आम जनता को फैसले से निराश हुई है।
2016 एवं 17 में दायर याचिकाओं में 6 साल बाद सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। यह अपने आप में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। सरकार के नोटबंदी के फैसले से 130 करोड़ आबादी प्रभावित हुई है। इसके बाद भी 6 वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी सुनवाई टालते रहना कहीं ना कहीं सरकार के दबाव को स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। फैसले में भी यही दबाव स्पष्ट रूप से देखने को मिला है। न्यायपालिका को लेकर आम आदमी का जो विश्वास न्यायपालिका पर बना रहता है वह कहीं ना कहीं कमजोर हुआ है। अब तो यह आम धारणा बनने लगी है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को ढाल बनाकर अपने फैसलों पर मुहर लगवाने का काम कर रही है। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने इस फैसले से जरूर असहमति दर्ज कराई है। उनका फैसला काफी हद तक डिटेल में आया बहुमत के आधार पर सरकार को नोटबंदी के फैसले पर जरूर सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट मिल गई है। लेकिन इससे आम जनता में न्यायपालिका के प्रति अविश्वास बढ़ा है।
मोदी सरकार की नोटबंदी के फैसले को समय-समय पर जो जानकारी संसद एवं अधिकारिक रुप से दी गई है। उसके बाद उस पर हमेशा से प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। उसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने लंबित सभी याचिकाओं में जो अलग-अलग मुद्दे उठाए गए थे। फैसले में उनका उल्लेख ना करते हुए सरकार को क्लीन चिट देने के कारण यह आम धारणा बनने लगी है कि सरकार के दबाव में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी काम करते हैं। बहुत सारी ऐसी याचिकाएं अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ी हुई हैं। जिनमें करोड़ों लोगों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के हनन होने जैसे मामलों में यह याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी। वर्षों महत्वपूर्ण याचिकाओं पर सुनवाई नहीं होना न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इस पर जरूर न्यायपालिका को सोचने की जरूरत है। आम जनता में यह धारणा बनने लगी है कि छोटे-छोटे मामलों की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट जो तत्परता बरतती है। जिन याचिकाओं में करोड़ों लोगों के हित एवं स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से जुड़े रहते हैं। उन मामलों को सुनवाई में क्यों लंबित रखा जाता है। कुछ वर्षों के बाद सरकार को न्यायपलिका की क्लीन चिट क्यों मिल जाती हैं। होईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में सरकार के पक्ष में फैसले देने वाले जजों को सरकार पुर्ननियुक्ति देकर उन्हें क्यों उपकृत करती है। जिन जजों के फैसले सरकार के खिलाफ होते है। उन्हें समय-समय पर उपेक्षित क्यों किया जाता है। इससे न्याय पलिका के प्रति आम लोगों का विश्वास खत्म हो रहा है निराशा बढ़ रही है।