राजनैतिकशिक्षा

भारत से रिश्ते अच्छे ही रखना चाहेंगे प्रचंड

-संजय कुमार भारद्वाज-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

2022 में हुए चुनाव नेपाल को किस दिशा में ले जाएंगे, यह महत्वपूर्ण मुद्दा है। चुनाव के लिए जैसा गठबंधन बना था, उसके हिसाब से अगर सरकार गठित होती तो खास असमंजस न होता, क्योंकि वह गठबंधन 2021 से सत्ता में था और उसके घटक दलों में आपसी समझ बन चुकी थी। लेकिन पहले पीएम बनने के सवाल पर माओइस्ट सेंटर के पुष्प कमल दहाल प्रचंड ने इस चुनाव पूर्व गठबंधन को तोड़कर उन्हीं केपी ओली की पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया, जिससे वह 2021 में अलग हुए थे। इस नए गठबंधन को 14 सीटों वाली राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी भी समर्थन दे रही है। 20 सीटें जीतकर राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी नाम से जो नई पार्टी आई है, उसने भी प्रचंड को समर्थन दिया। पहले की सरकार में होम मिनिस्टर रहे संदीप लामिछाने ने यह पार्टी बनाई है। इसके अलावा जो छोटे दल समर्थन कर रहे हैं, उनमें नागरिक उन्मुक्त पार्टी, जनमत पार्टी और जनता समाजवादी पार्टी है। नतीजा यह कि जहां बहुमत के लिए 138 सीटें चाहिए, वहां प्रचंड को 170 सदस्यों का समर्थन मिल चुका है।

आपसी मतभेदः ऐसा क्यों हुआ, इसे समझने के लिए नेपाली कांग्रेस में चल रहे अंदरूनी मतभेदों पर नजर डालनी होगी। लामिछाने का अपना एक झुकाव था, इसके अलावा गगन थापा भी उनसे बहुत ज्यादा कंफर्टेबल नहीं थे। देउबा भी अपने फैमिली मेंबर्स को पावर देने की ज्यादा जुगत में थे। गगन थापा को विकल्प के रूप में देखा जा रहा था और कहते हैं कि उनको यूएस और यूके का भी समर्थन हासिल था। लेकिन देउबा नहीं मान रहे थे। आंतरिक फूट के चलते ही नेपाली कांग्रेस 89 सीटों पर सिमट गई।

चीनी राजदूत की भूमिका : अब सवाल आता है कि नेपाल में चीन की क्या भूमिका है? चीन निश्चित रूप से केपी ओली की सरकार का समर्थन कर रहा था। 2018 से 2021 तक ओली सरकार ने चीन से कई महत्वपूर्ण समझौते किए। 9 एमओयू हुए, जिनमें पोखरा पोर्ट का डिवेलपमेंट का था, रेलवे कनेक्टिविटी के कई प्रॉजेक्ट थे। फिर केपी ओली ने भारत के साथ सीमा और नदी जल विवाद उठाए। उस वक्त चीन की राजदूत थीं हाओ यांकी। नेपाल की राजनीति में वह सक्रिय भूमिका निभा रही थीं। कहा यह भी जाता है कि प्रचंड और केपी ओली में जो मेल हुआ, उसमें भी उनकी भूमिका है। अभी वहां चीन के नए राजदूत आने वाले हैं जेन शांग। देखने वाली बात होगी कि वह कैसी भूमिका निभाते हैं।

मजबूत रहेंगे संबंध : एक राय ऐसी सामने आ रही है कि प्रचंड के सत्ता में आने से अब भारत के नेपाल के साथ संबंध उतने अच्छे नहीं रहेंगे जितने कि देउबा के समय में थे। लेकिन यह राय सही नहीं लगती। प्रचंड हमेशा से भारत के साथ जुड़े रहे, वह दोनों देशों की जरूरतों को समझते हैं। प्रचंड को मोनार्की के खिलाफ भारत से बड़ा समर्थन मिला। 2008 में जब नेपाल रिपब्लिक बना, तब भी प्रचंड और उनकी पार्टी को भारत का काफी समर्थन रहा। यह ठीक है कि उन पर केपी ओली का दबाव रहेगा। लेकिन ओली भी जानते हैं कि अगर प्रचंड से उन्होंने समर्थन वापस ले लिया तो नेपाली कांग्रेस के पास 89 सीटें हैं और वह भी उनको समर्थन दे सकती है। चूंकि प्रचंड पहले ही पीएम बन चुके हैं और जो स्टैंडऑफ था वह खत्म हो चुका है, तो अब नेपाली कांग्रेस के लिए प्रचंड की सरकार को समर्थन देना खास मुश्किल नहीं होगा। इसलिए भारत नेपाल संबंध बिगड़ने की आशंकाओं में ज्यादा दम नहीं है।

अभी प्रचंड भारत और पश्चिमी देशों के साथ एक बैलेंस बनाकर रखेंगे और चीन की वह बहुत ज्यादा नहीं सुनेंगे, क्योंकि उनके पास बारगेनिंग का ऑप्शन है। अगर ओली दबाव बनाते हैं तो उन्हें नेपाली कांग्रेस का समर्थन मिलने का पूरा चांस है। प्रचंड के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती यह है कि 25 लोगों की कैबिनेट में वह किस-किस को शामिल करते हैं। अगर वह इसे मैनेज करने में सफल हो गए तो उनकी सरकार को तत्काल कोई खतरा नहीं है।

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