राजनैतिकशिक्षा

लोकतंत्र के लिए जरूरी आजाद मीडिया

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

झारखंड में आदिवासियों के हक में लिखने वाले, गरीबों-वंचितों-शोषितों की आवाज को मीडिया के जरिए समाज और सरकार तक पहुंचाने वाले स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को 17 जुलाई की सुबह अचानक गिरफ्तार कर लिया गया। रामगढ़ में उनके घर सुबह छह से सात गाड़ियों में भरकर पुलिस पहुंची, उन्हें तलाशी का वारंट दिखाया और उसके बाद उनके पूरे घर की तलाशी ली गई। इसके बाद दो लैपटॉप, दो मोबाइल फोन, एक चादर, उनकी पत्नी ईप्सा शताक्षी के नाम पर पंजीकृत कार की रिटेल इनवायस, एक बाइक के कागजात, एक पुरानी कॉपी और एक नोटबुक पुलिस ने जब्त किए। लैपटॉप और मोबाइल की जब्ती कुछ खुफिया जानकारी खंगालने के काम आ सकती है, लेकिन चादर को जब्त करने के पीछे का रहस्य शायद आने वाले वक्त में खुले। रूपेश कुमार की गिरफ्तारी भारत में मीडिया की आजादी पर एक और प्रहार की तरह देखी जा रही है। बताया जा रहा है कि रूपेश कुमार की गिरफ्तारी सरायकेला खरसांवा ज़िले के कांड्रा थाने में नवंबर 2021 में दर्ज एक पुराने मामले में की गई है। उन पर यूएपीए की धाराएं भी लगाई गई हैं।

खबरों के मुताबिक रूपेश की गिरफ्तारी उसी केस में की गई है, जिसके तहत पिछले साल 13 नवंबर को एक करोड़ रुपये के इनामी नक्सली प्रशांत बोस और उनकी पत्नी शीला मरांडी को उनके कुछ कथित सहयोगियों के साथ गिरफ्तार किया गया था। ये सब अभी जेल में हैं। अब रूपेश भी पुलिस की गिरफ्त में हैं और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ये जानकारी नहीं है कि उन्हें कहां ले जाया गया है। कभी आदिवासी इलाकों में कार्पोरेट की लूट, कभी कारखानों का प्रदूषण, कभी अवैध उत्खनन और कभी फर्जी मुठभेड़ों पर रूपेश कुमार लिखते रहे हैं। इस वजह से सत्ता के निशाने पर भी स्वाभाविक ही बने हुए हैं। हमारा लोकतंत्र अभी इतना परिपक्व शायद नहीं हुआ है, जहां सत्ता की निगरानी करने वालों की कद्र हो।

निंदक नियरे राखिए वाला भारत अब सपनों में ही आता है। कड़वा सच ये है कि सत्ता की आलोचना हो, ये सत्ताधीशों को जरा भी बर्दाश्त नहीं है। सत्ता को कठघरे में खड़ा करने वालों को सत्ता पलटवार करते हुए उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर देती है। पिछले कुछ अरसे से ऐसे लोगों को जेल भेजा जा रहा है, जो न्याय के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, लोकतंत्र के गिरते स्तर पर चिंता जतला रहे हैं। रूपेश कुमार भी इन्हीं लोगों में से एक हैं। तीन साल पहले 6 जून 2019 को भी उन्हें गिरफ्तार कर बिहार की जेल में छह महीना रखा गया था। तब भी उन पर यूएपीए लगाया गया था। उस वक्त झारखंड में भाजपा की सरकार थी। उस दौरान एक आदिवासी मोतीलाल बास्के की फर्जी मुठभेड़ में मौत पर उन्होंने रिपोर्टिंग की थी। उस वक्त तय समय के अंदर पुलिस आरोपपत्र दाखिल नहीं कर पाई थी और कुछ महीने जेल में रहने के बाद रूपेश कुमार को ज़मानत मिल गई थी। इसके बाद उन्होंने कैदखाने का आईना, जेल डायरी नाम से एक किताब लिखकर जेल के भीतर जिंदगी और कैदियों के शोषण की बातें उठाई थीं।

2019 में रघुवर दास झारखंड के मुख्यमंत्री थे, और तब रूपेश कुमार ने भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। अब सरकार झामुमो और कांग्रेस गठबंधन की है, और रूपेश कुमार एक बार फिर गिरफ्तार किए जा चुके हैं। उन पर यूएपीए लगाने का आशय ही यह है कि उन पर कोई गंभीर आरोप लगाया गया होगा और इस बार आरोपपत्र कब तक दाखिल होता है, उन्हें जमानत मिलती है या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। गौरतलब है कि रूपेश कुमार का नाम पेगासस जासूसी कांड में भी आया है। उनके और उनकी पत्नी के फोन की जासूसी की बात उजागर होने के बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका भी दायर की थी। स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार की गिरफ्तारी से दो दिन पहले उत्तरप्रदेश के सोनभद्र में दो आंचलिक पत्रकारों पर नकाबपोशों द्वारा गोली चलाने का मामला भी आया है। हमलावरों ने उन दोनों का नाम पूछ कर फिर उन पर गोली चलाई। इससे पता चलता है कि यह हमला किसी मकसद से किया गया है।

भारत में पत्रकारों पर बढ़ते हमले और कानूनी कार्रवाईयां मीडिया की आजादी पर सवाल उठा रही हैं। दो महीने पहले विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कमिटि टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, फ्रीडम हाउस, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे दस मानवाधिकार संगठनों ने कहा था कि भारत का सरकारी तंत्र सरकार की नीतियों और कार्रवाइयों की आलोचना के लिए पत्रकारों और ऑनलाइन आलोचकों को अधिकाधिक निशाना बना रहा है, जिसमें आतंकवाद-निरोधी और राजद्रोह कानूनों के तहत मुकदमा चलाना शामिल है। भारत सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सम्मान करना चाहिए और आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के लिए मनगढ़ंत या राजनीति से प्रेरित आरोपों में हिरासत में लिए गए तमाम पत्रकारों को रिहा कर देना चाहिए। साथ ही, पत्रकारों को निशाना बनाना और स्वतंत्र मीडिया के मुंह पर ताले लगाना बंद करना चाहिए। आज इस अपील पर केंद्र और राज्य की सरकारों को फिर से गौर करना चाहिए। आजाद मीडिया के बिना सशक्त लोकतंत्र मुमकिन नहीं है।

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