ममता का खेला
-सिद्वार्थ शंकर-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
पांचों राज्यों में सबसे ज्यादा चर्चा बंगाल की हो रही है, जहां ममता बनर्जी ने खेला कर दिखाया। कोरोना त्रासदी के बीच जब देश भर में जब मोदी सरकार की जमकर आलोचना हो रही है, यहां तक कि भाजपा समर्थक भी सरकार और पार्टी नेतृत्व से नाराज हैं। इस सबके बीच पश्चिम बंगाल की हार भाजपा के लिए कोरोना की पॉजिटिव रिपोर्ट जैसी है। यहां भाजपा को वोटों की पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाई है। हालांकि, असम असम के जरिए पार्टी वेंटिलेटर पर जाने से जरूर बच गई है। कोरोना की सुनामी के बीच लग रहा है कि मोदी लहर ठहर गई है। इन नतीजों का क्या मोदी के कद पर कोई असर पड़ेगा? जानकार कहते हैं कि मोदी और भाजपा ने अपनी पूरी ताकत बंगाल में झोंक रखी थी। ऐसा माहौल भी बनाया कि भाजपा जीत रही है। इसके बावजूद टीएमसी की जीत भाजपा और मोदी के लिए किसी सेटबैक से कम नहीं है। हां, दीदी ममता बनर्जी यदि नंदीग्राम में हारती हैं तो भाजपा को खुश होने का मौका जरूर मिल सकता है। भाजपा की इस हार के पीछे कई वजह हैं, सबसे बड़ी वजह है अति आत्मविश्वास। बंगाल पूर्वोत्तर भारत का सबसे बड़ा राज्य है। विधानसभा सीटों के लिहाज से भी यूपी के बाद सबसे ज्यादा 294 सीटें यही हैं। ऐसे में देश के दूसरे सबसे बड़े सियासी राज्य को जीतना मोदी और भाजपा के लिए सपने के सच जैसा होना ही था। इसके साथ ही भाजपा के लिए अगले साल मार्च-अप्रैल में यूपी, उत्तराखंड और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव में दोगुने मनोबल के साथ जाने का रास्ता खुल जाता, लेकिन बंगाल में हार के बाद इन राज्यों में भाजपा को वोटों के वैक्सीन की जरूरत पड़ेगी। देश के सबसे बड़े सियासी राज्य यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा ने 2017 में यहां 312 सीटें जीती थीं। 2014 और 2019 में आम चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में भी यूपी का बड़ा योगदान रहा है। 2014 में एनडीए यूपी में 80 में 73 सीटें जीती थीं। 2019 में एनडीए को 62 सीटों पर जीत मिलीं। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव मोदी और भाजपा के भविष्य के लिए काफी अहम हैं। मोदी खुद भी यूपी से ही सांसद हैं, ऐसे में भाजपा का यूपी में सब कुछ दांव पर रहेगा। देवभूमि उत्तराखंड में भाजपा के लिए सब कुछ सामान्य नहीं है। भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 70 में से 57 सीटें मिली थीं। इसके बावजूद आगामी चुनाव से पहले पार्टी को अपना मुख्यमंत्री बदलना बड़ा है। त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया है। अब देखना है कि क्या नए मुख्यमंत्री दोबारा भाजपा को सत्ता में वापस ला पाएंगे? भाजपा को 2019 आम चुनाव में भी राज्य की सभी पांच सीटों पर जीत मिली थी। यहां भी 2022 में मार्च-अप्रैल में चुनाव होने हैं। ऐसे में उत्तराखंड को बचाना मोदी और भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है। पंजाब में भी यूपी और उत्तराखंड के साथ अगले साल चुनाव होने हैं। यहां भाजपा हमेशा से अकाली दल के साथ गठबंधन में रही है। अब यहां किसान आंदोलन के चलते अकाली दल भाजपा से अलग हो चुकी है। ऐसे में भाजपा के लिए यहां सीटें जीतना बिल्कुल आसान नहीं है। भाजपा के पास राज्य में कोई चेहरा भी नहीं है। ऐसे में भाजपा यहां मोदी के चेहरे के साथ ही मैदान में जाएगी। असम की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और 5 साल में हुए विकास कार्य बीजेपी की वापसी का अहम कारण बने जबकि कांग्रेस गठबंधन की सत्ता में वापसी के लिए प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के अरमानों पर पानी फिरता नजर आ रहा है। कांग्रेस गठबंधन की सत्ता में वापसी के लिए प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के अरमानों पर पानी फिरता नजर आ रहा है। असम में न तो प्रियंका गांधी का चेहरा चला और न ही भूपेश बघेल की चाल। असम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी ने संभाल रखी थी। छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को उन्होंने असम चुनाव की जिम्मेदारी दे रखी थी। बघेल असम में डेरा जमाए हुए थे और उन्होंने अपने राज्य के तमाम नेताओं को लगा रखा था। इसके बावजूद बघेल की चाल काम नहीं आ सकी थी जबकि प्रियंका गांधी का चेहरा भी पार्टी के काम नहीं आ पाया। हालांकि, प्रियंका गांधी ने यहां पूरी ताकत झोंक दी थी, फिर भी पार्टी जीत नहीं सकी। इस बार के चुनाव में नतीजे ऐसे ही आते नजर आ रहे हैं। ये हाल तब है जब सीएए के खिलाफ असम में लोगों का जबरदस्त गुस्सा था। इसके अलावा चाय बागानों की मजदूरों की दिहाड़ी को कांग्रेस ने सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था। इसके बावजूद असम में भाजपा दोबारा से सत्ता में वापसी करने में सफल हो गई। भाजपा असम के ऊपरी इलाके, मध्य क्षेत्र और उत्तर क्षेत्र में अपनी राजनीतिक पकड़ को मजबूत बनाए रखने में कामयाब रही। असम के ऊपरी हिस्से में भाजपा का जीतना यह बता रहा है कि सीएए का कोई सियासी असर नहीं दिख रहा है। कांग्रेस असम विधानसभा चुनाव में उम्मीद लगाए हुए थी कि सीएए के खिलाफ हुए आंदोलनों, चाय बागानों के मजदूरों की नाराजगी, बेरोजगारी, महंगाई के मुद्दों के कारण उसे असम में राजनीतिक मदद मिलेगी। इसके अलावा एआईयूडीएफ और बीपीएफ जैसे अहम दलों के साथ आने के कारण भी कांग्रेस सत्ता में अपनी वापसी की उम्मीद कर रही थी, लेकिन नतीजे से कांग्रेस की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि मुस्लिम वोट एकमुश्त मिलेंगे, लेकिन भाजपा के ध्रुवीकरण के आगे उसके सारे समीकरण फेल हो गए हैं।