टाटा जैसे लोग ही हैं वास्तव में भारत के रत्न
-आर.के. सिन्हा-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
रतन टाटा को भारत रत्न देने के हाल में सोशल मीडिया में चले अभियान ने अपने आप में वैसे तो कतई गलत नहीं थी पर जो देश भर का रत्न हो उसे भारत रत्न या कोई अन्य पुरस्कार मिले या ना मिले, इससे क्या फर्क पड़ता है? वह तो सारे देश के नायक पहले से ही हैं। उन्हें आप नायकों का नायक कह सकते हैं। जब रतन टाटा को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग ने जोर पकड़ा तो रतन टाटा को खुद ही कहना पड़ा कि वह अपने प्रशंसकों की भावनाओं की कद्र करते हैं लेकिन ऐसे अभियान को बंद किया जाना चाहिए। मैं भारतीय होने और भारत की वृध्दि और समृद्धि में योगदान कर सकने पर खुद को भाग्यशाली मानता हूं। जाहिर हैए इस तरह की बात कोई शिखर शख्सियत ही कर सकती है। सामान्य कद का इंसान तो रतन टाटा की तरह का स्टैंड नहीं ही लेगा। कौन नहीं जानता कि बहुत सी सफेदपोश हस्तियां भी पद्म पुरस्कार पाने के लिए अनेकों तरह की लाबिंग और कई समझौते करती हैं। टाटा समूह के पुराण पुरुष जे.आर.डी. टाटा के 1993 में निधन के बाद रतन टाटा ने नमक से लेकर स्टील और कारों से लेकर ट्रक और इधर हाल के बरसों में आई.टी. सैक्टर से भी जुड़े टाटा समूह को एक शानदार और अनुकरणीय नेतृत्व दिया है। रतन टाटा को भारत ही नहीं बल्कि सारे संसार के सबसे आदरणीय कॉर्पोरेट लीडरों में से एक माना जाता है। जे.आर.डी. टाटा के संसार से विदा होने के बाद शंकाएं और आशंकाएं जाहिर की जा रही थीं कि क्या वे जे.आर.डी. की तरह का उच्चकोटि का नेतृत्व अपने समूह को देने में सफल रहेंगे।
ये सब शंकाएं वाजिब भी थीं, क्योंकि जे.आर.डी. टाटा का व्यक्तित्व सच में बहुत बड़ा था। लेकिन यह तो मानना ही होगा कि रतन टाटा ने अपने आप को सिद्ध करके दिखाया। देखिए वैसे तो सभी बिजनेस वैंचरों का पहला लक्ष्य लाभ कमाना ही होता है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर टाटा समूह का लाभ कमाने के साथ.साथ एक लक्ष्य सामाजिक परोपकार और देश के निर्माण में लगे रहना भी है। इस मोर्चे पर कम से कम भारत का तो हर बिजनेस घराना टाटा समूह का सम्मान करता है। टाटा समूह का सारा देश इसलिए ही आदर करता है कि वहां पर लाभ कमाना ही लक्ष्य नहीं रहता। रतन टाटा तो अब टाटा समूह के चेयरमैन भी नहीं हैं। उन्होंने चेयरमैन का पद टाटा कंसल्टैंसी सर्विसेज (टी.सी.एस.) के चेयरमैन एन. चंद्रशेखरन को सौंप दिया है। उनमें प्रतिभा को पहचानने की कमाल की कला है। वे सही पेशेवरों को सही जगह काम पर लगाते हैं। उसके उन्हें अभूतपूर्व नतीजे भी मिलते हैं। रतन टाटा ने एन. चंद्रशेखरन को बड़ी जिम्मेदारी देते हुए यह नहीं देखा कि वह किसी नामवर अंग्रेजी माध्यम के स्कूल या कॉलेज में नहीं पढ़े हैं। रतन टाटा ने यह देखा कि चंद्रशेखरन की सरपरस्ती में टी.एस.एस. लगातार बुलंदियों को छू रही है। इसलिए उन्होंने टाटा समूह के इतिहास में पहली बार टाटा समूह का चेयरमैन एक गैर-टाटा परिवार से जुड़े गैर-पारसी व्यक्ति को बनाया। इस तरह का फैसला कोई दूरदृष्टि रखने वाला शख्स ही कर सकता है। चंद्रशेखरन ने अपनी स्कूली शिक्षा अपनी मातृभाषा तमिल में ग्रहण की थी। उन्होंने स्कूल के बाद इंजीनियरिंग की डिग्री रिजनल इंजीनयरिंग कालेज (आर.ई.सी.) त्रिचि से हासिल की । चंद्रशेखरन के टाटा समूह के चेयरमेन बनने से यह भी साफ हो गया कि तमिल या किसी भारतीय भाषा से स्कूली शिक्षा लेने वाला विद्यार्थी भी आगे चलकर कॉर्पोरेट संसार के शिखर पर जा सकता है। वह भी अपने हिस्से का आसमान छू सकता है।
अगर आज भारत को सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया सबसे खास शक्तियों में से एक मानती है और भारत का आई.टी. सैक्टर 190 अरब डॉलर तक पहुंच गया है तो इसका श्रेय कुछ हद तक तो हमें रतन टाटा को भी देना होगा। रतन टाटा में यह गुण तो अदभुत है कि वे अपने किसी भी कम्पनी के सी.ई.ओ. के काम में दखल नहीं देते। उन्हें पूरी आजादी देते हैं कि वे अपनी कंपनी को अपनी बुद्धि और विवेक से आगे लेकर जाएं। वे अपने सी.ई.ओज. को छूट देते हैं काम करने की। हालांकि उन पर पैनी नजर भी रखते थे। उन्हें समय.समय पर सलाह.मशविरा भी देते रहते थे। इन पॉजिटिव स्थितियों में ही उनके समूह की कंपनियां औरों से आगे निकलती हैं।
आप कह सकते हैं कि जे.आर.डी. टाटा की तरह रतन टाटा पर भी ईश्वरीय कृपा रही कि वे चुन.चुनकर एक से बढ़कर एक मैनेजरों को अपने साथ जोड़ सके। इसलिए ही टाटा समूह से एन. चंद्रशेखरन (टी.सी.एस.), अजित केरकर (ताज होटल), ननी पालकीवाला (ए.सी.सी. सीमेंट), रूसी मोदी (टाटा स्टील) वगैरह जुड़े। ये सब अपने आप में बड़े ब्रांड थे। रतन टाटा के पास अगर प्रमोटर की दूरदृष्टि नहीं रही होती और वह अपने सी.ई.ओ. पर भरोसा नहीं करते तो फिर बड़ी सफलता की उम्मीद करना ही व्यर्थ था। टाटा अपने सी.ई.ओज. को अपना विजन बता देते हैं । फिर काम होता है सी.ई.ओ. का कि वह उस विजन को अमली जामा पहनाए और उससे भी आगे जाने की सोचे।
देखिए अगर रतन टाटा का सम्मान सारा देश करता है तो इसके पीछे उनकी बेदाग शख्सियत है। याद करें, पिछले साल जनवरी में मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में रतन टाटा से इंफोसिस समूह के संस्थापक एम. नारायणमूर्ति चरण स्पर्श करते हुए आशीर्वाद ले रहे थे। रतन टाटा और नारायणमूर्ति के बीच 9 साल का अंतर है। मूर्ति टाटा से 9 साल छोटे हैं लेकिन फिर भी मानते हैं कि उपलब्धियों के स्तर पर रतन टाटा उनसे बहुत आगे हैं।
दरअसल रतन टाटा का संबंध भारत के उस परिवार से है जिसने आधुनिक भारत में औद्योगीकरण की नींव रखी थी। यह मान लीजिए कि बिल गेट्स या रतन टाटा जैसे कॉर्पोरेट लीडर रोज-रोज पैदा नहीं होते। ये किसी भी सम्मान या पुरस्कार के मोहताज नहीं है। इनसे पीढियां प्रेरित होती हैं। इनके सामने कोई भी पुरस्कार या सम्मान बौना है। यह सच में भारत का सौभाग्य है कि रतन टाटा हमारे हैं और हमारे बीच में अभी भी सक्रिय हैं। उनका हमारे बीच होना ही बहुत सुकून देता है।