राजनीति की परिणिति : ‘संविधान’ पर राजनीति कितनी संवैधानिक….?
-ओमप्रकाश मेहता-
-:ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
हमारे देश के संविधान के ‘‘हीरक जयंती’’ वर्ष में मौजूदा राजनेताओं ने इसे अपने ‘राजनीतिक अस्त्र’ के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया है और इसकी शुरूआत स्वयं केन्द्र में आसीन सत्तापक्ष ने अब हर वर्ष पच्चीस जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा के साथ की है, सन् 1975 की पच्चीस जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अर्धरात्रि में अचानक पूरे देश में ‘आपातकाल’ लागू करने की घोषणा की थी और सारी प्रशासनिक राजनैतिक शक्तियों को अपने हाथों में लेकर प्रतिपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया था, देश में यह आपातकाल करीब बीस महीने रहा और इस दौरान इंदिरा जी ने पूरी मनमानी सरकार चलाई और सभी दण्ड-कानूनों का खुलकर दुरूपयोग किया, ऐसे आरोप लगाने में आज भी प्रतिपक्षी दल अग्रणी है।
भारतीय राजनीति मंे लाया गया यह चलन कुछ इसलिए अजीब लग रहा है क्योंकि अभी तक जन्म दिवस, समृति दिवस आदि हम मनाते आ रहे है, अब शायद पहली बार ही ‘हत्या दिवस’ मनाने की पहल की जा रही है और आज के राजनेता संविधान की पुस्तक का उपयोग ‘खिलौने’ के रूप में अपनी राजनीति को जीवनदान देने के लिए कर रहे है, प्रधानमंत्री जी सार्वजनिक रूप में संविधान की पुस्तक को अपने सिर से लगाते नजर आ रहे है, तो प्रतिपक्ष के नेता ‘संविधान का गुटका’ (लघु पुस्तिका) अपनी जेब में रखकर उसे हर कहीं लहराते नजर आते है, अब सवाल यह है कि यह कृत्य अपने आपमें कितना संवैधानिक है, इस पर कभी प्रतिपक्ष के नेता ने गंभीर चिंतन-मनन किया है? क्या हमारे संविधान के साथ यह सलूक उचित है? क्या संविधान को हवा में लहराने वाले अपरिपक्व नेता को संविधान के निर्माण की कहानी भी पता है, कितनी मेहनत-मशक्कत के बाद हमारी संविधान सभा ने इसकी रचना की, यह उन्हें पता है? यदि यह सब उन्हें पता होता तो वे जान-बूझकर पूरे होशों-हवास में हमारे संविधान की ऐसी बेईज्जती नही करते? उन्हें पता होना चाहिए कि हमारा संविधान हमारे लिए गीता-रामायण, कुरान या गुरूग्रंथ साहिब से कम नही है, जिसकी शपथ लेकर हमारी सरकार चलती है, आज चाहे मौजूदा नेता संविधान को ताक में रखकर अपनी मनमर्जी की सरकार चला रहे हो? किंतु हमारे संविधान का महत्व अपनी जगह है और उसे विश्व के अनेक देशों ने विश्व का ‘सर्वश्रेष्ठ’ संविधान माना है।
यद्यपि यहां यह भी बड़े दुःख के साथ कहने को मजबूर होना पड़ रहा है कि आज हमारा संविधान भी महाभारत के पितृपुरूष ‘भीष्म पितामह’ की तरह ही संशोधनों की शरशैय्या पर पड़ा कराह रहा है अब तक इसे सवा सौ से अधिक संशोधनों के तीरों से बेधा गया है, हर सत्तारूढ़ दल ने अपनी सुविधानुसार संशोधनों के तीरों से इसे बेधा है, फिर भी आखिर यह है तो हमारा संविधान ही, क्या आज अपनी मौत की बांट जोह रहे, इस संविधान की हत्या दिवस मनाना उचित कहा जा सकता है? किंतु आज के राजनेता किसी की हत्या में ही अपनी राजनीति का ‘नवजीवन’ देख रहे है, तो इसे क्या कहा जाए? आज एक तरफ ‘विश्वगुरू’ का सपना देखा जा रहा है तो दूसरी ओर राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी के लिए ऐसे हथकण्ड़े अपनाए जा रहे है और बैचारे संविधान को मोहरा बनाया जा रहा है? अब इस स्थिति को क्या कहा जाए? ….अब तो बस गांधी जी के अंतिम शब्द ‘हे-राम’ ही दोहराने का विकल्प शेष बचा है?