राजनैतिकशिक्षा

भारतीय जनतंत्र को कुलीनतंत्र बनाने का दोषी संविधान

-भानु धमीजा-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

यह अब स्पष्ट है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत एक कुलीनतंत्र द्वारा चलाया जा रहा है। यह सरकार की वह प्रकार है जहां वास्तविक शक्ति कुछ एकल व्यक्तियों और परिवारों के पास होती है। भारत के कृषि सुधारों की ताजा गाथा से यह दुखद रूप से सामने आ गया है। केंद्र में एक कोटरी द्वारा तीन कृषि कानून लागू कर दिए गए बिना यह देखे कि संविधान के अंतर्गत खेतीबाड़ी राज्यों का अधिकार क्षेत्र है। और ऐसा संसद में बिना किसी सार्वजनिक बहस या किसान संगठनों से चर्चा किए बगैर किया गया।

अधिकतर भारतीय एक हाथ पर उन नेताओं की गणना कर सकते हैं जो इन दिनों हमारे समूचे राष्ट्र को नियंत्रित कर रहे हैं। इनमें केंद्र में दो महानुभाव, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह, और कुछेक स्वतंत्र विचारों वाले राज्यों के मुख्यमंत्री जैसे कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल शामिल हैं। ज्यादातर लोग तीन या चार अन्य पार्टी राज्य वंशियों, जैसे कि कांग्रेस से गांधी परिवार और शिव सेना से ठाकरे परिवार का नाम भी ले सकते हैं।

व्यक्तियों के ऐसे छोटे समूहों को समस्त शक्ति सौंपने का दोष हमारे नागरिकों या राजनेताओं को नहीं बल्कि हमारे संविधान को जाता है। यह हमारी सरकार को केंद्रीकृत करता है, हमारी पार्टियों को नियंत्रित करने में असफल है और एक शक्तिहीन संघीय ढांचे का निर्माण करता है।

हमारा संविधान सही शब्दों में एक कुलीनतंत्र बनाता है जहां मुट्ठी भर राजनेता अपनी मनमानी कर सकते हैं। यह एक खतरनाक शासन प्रणाली है क्योंकि यह सच्चे कुलीनतंत्र से कुछ ही कदम दूर है जहां राजनेताओं के छोटे समूह उनसे भी छोटे धनी व्यक्तियों के समूह द्वारा नियंत्रित होते हैं। भारत में पहले ही अंबानी और अदानी जैसे उद्योगपतियों की चर्चा है, जो पर्दे के पीछे से सारा खेल रच रहे हैं।

परंतु ‘कुछ ही लोगों की सरकार’ हमारे लोकतंत्र को इससे भी बड़े संकट में डालती है। इंग्लैंड के लॉर्ड एक्टन ने कहा था ‘‘निरंकुश शक्ति निरंकुशता से भ्रष्ट बनाती है।’’ हमारा लंबा इतिहास है कि सबसे स्वच्छ राजनेता भी भ्रष्टाचार के सामने झुक गए, अगर व्यक्तिगत रूप से नहीं तो अपनी पार्टी के नाम पर या किसी अन्य काम के बहाने। निरंकुश शक्ति गलत निर्णयों की ओर भी ले जाती है। सर्व-शक्तिमान लोग यह सोचने लगते हैं कि वे सबसे बेहतर जानते हैं, और सुनना व आम सहमति बनाना छोड़ देते हैं। जवाहरलाल नेहरू का समाजवाद अपनाना, इंदिरा गांधी का आपातकाल और नरेंद्र मोदी की नोटबंदी ऐसे ही एकल-व्यक्ति के निर्णयों के कुछ उदाहरण हैं। एक कुलीनतंत्र नए नेताओं को भी उभरने से रोकता है। राजवंशी और अन्य निरंकुश नेता एक सच्ची लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भी घृणा करते हैं जो युवा करिश्माई नेता पैदा करती है।

हमारे संविधान का मुख्य दोष है ‘विजेता को सबकुछ देना’ का सिद्धांत। यह धारणा हमारी शासन प्रणाली में इतनी मूलभूत है कि इसकी उपयोगिता पर अब हम प्रश्न तक नहीं उठाते। यह सिद्धांत चुनाव जीतने वाली बहुमत पार्टियों को अनुमति देता है कि शासन करते समय हारने वाली पार्टियों को पूरी तरह उपेक्षित कर दे। इस संसदीय प्रथा की व्याख्या करते हुए सर सिडनी लोव ने लिखा, ‘‘हम आम चुनावों में हार चुकी पार्टी पर आई विपत्ति को कार्यकारी सरकार या कानून निर्माण में कोई वास्तविक हिस्सा न देकर कम करने का प्रयास नहीं करते।’’ यह देखते हुए कि सरकार अकसर सत्ता में अल्प-संख्या के वोटों के सहारे आती है कृ मोदी की भाजपा ने 2019 में मात्र 38 प्रतिशत वोट पाए कृ हमारा संविधान अगले चुनावों के बीच पांच साल के लंबे अंतराल तक अल्प-संख्या वालों को शासन में कोई अधिकार नहीं देता।

संविधान का दूसरा दोष यह है कि सभी कार्यकारी और विधायी शक्तियां प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सौंपकर उन्हें निरंकुश बना देता है। उनके पास ऐसे कानून बनाने का एकल अधिकार होता है जो विपक्ष के लिए हानिकारक हों, और उन बुरे कानूनों को मनमानी के साथ लागू कर सकें। यही कारण है कि भारत के मुख्य कार्यकारी हमारी जांच एजेंसियों, कर प्राधिकारियों और पुलिस को विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसने और उन्हें चुप करवाने के लिए प्रयोग कर सकते हैं। वे ऐसे कानून भी लागू कर सकते हैं जो बिना किसी सार्वजनिक जांच उनकी पार्टी को धन जुटाने में मदद करें।

तीसरा, हमारा संविधान राजनीतिक दलों को शक्तियां तो देता है परंतु उन्हें नियंत्रित करने के लिए कुछ नहीं करता। सांसदों और विधायकों के दलबदल के कारण अस्थिर सरकारों के लंबे सिलसिले के बाद ही पार्टी-आधारित नियंत्रण संविधान में जोड़े गए। वर्तमान संविधान में पार्टी को लेकर 50 से अधिक संदर्भों में से लगभग सभी दलबदल विरोधी प्रावधानों में सामने आते हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग के आदेश भी चुनाव करवाने तक सीमित हैं, यह पार्टियों को नियंत्रित नहीं कर सकता। परिणामस्वरूप, भारतीय राजनीतिक दल अपने ही संविधान का पालन नहीं करते। उनके नेता बिना आंतरिक संगठनात्मक चुनाव करवाए खुद को लगातार नियुक्त करवाते रहते हैं।

अंत में, भारत का संविधान प्रधानमंत्री के कार्यालय को राज्यों के धन और गवर्नरों पर महत्त्वपूर्ण नियंत्रण देकर एक कुलीनतंत्र स्थापित करता है। यह एक छद्म संघीय ढांचे की स्थापना करता है जहां राज्य सरकारें लगातार केंद्र के खतरे के साए में रहती हैं। वे मनमर्जी से राष्ट्रपति शासन का प्रयोग करते हुए एक राज्य सरकार को भंग कर सकते हैं। यह प्रथा वर्ष 1951 में नेहरू के समय पंजाब में शुरू हुई। इंदिरा गांधी ने 1967 से 1973 तक 22 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया। वर्ष 1951 से 1987 तक राष्ट्रपति शासन के 57 प्रयोगों पर सरकारिया आयोग के अध्ययन अनुसार, ‘‘लगभग 50 प्रतिशत केंद्र सरकार की अपनी इच्छा के परिणाम थे।’’ यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के बोम्मई निर्णय (1994) के बावजूद कि एक राज्य सरकार की वैधता केंद्र सरकार द्वारा नहीं बल्कि सदन में जांची जानी चाहिए, राष्ट्रपति शासन 29 बार लगाया जा चुका है। वर्ष 2016 में अरुणाचल प्रदेश में इसे मनमाने रूप से लगाने पर अदालत ने ‘‘निर्वाचित सरकार का अपमान करने पर’’ मोदी सरकार को फटकारा था। हाल ही में केंद्र द्वारा महाराष्ट्र में मर्जी से राष्ट्रपति शासन लागू करने के बाद हटा दिया गया था।

भारत की राज्य सरकारें धन को लेकर भी आत्मनिर्भर नहीं हैं। जैसा कि जीएसटी कर के भुगतान पर हुआ झगड़ा हाल ही में सामने लाया।केवल एक गंभीर संपूर्ण ओवरहॉल ही हमारे संविधान की इन मूलभूत कमियों का इलाज कर सकता है। एक व्यवहार्य दृष्टिकोण अमरीकी-प्रकार की राष्ट्रपति प्रणाली अपनाना है, जो एक वास्तविक संघीय ढांचे का निर्माण करती है, जहां राज्य सचमुच केंद्र से स्वतंत्र हैं, और सीधे अपने लोगों के प्रति उत्तरदायी हैं। वह प्रणाली राजनीतिक दलों को बेहतर तरीके से नियंत्रित करती है, क्योंकि यह उन्हें राज्य स्तर पर ही दुरुस्त कर लेती है, और राज्य अपने स्थानीय चुनाव स्वयं करवाते हैं। राष्ट्रपति प्रणाली कार्यकारी और विधायी शक्तियों को साथ नहीं मिलाती, बल्कि उन्हें भिन्न संस्थाओं को सौंपती हैः राष्ट्रपति और कांग्रेस (संसद)। वह प्रणाली शक्तियों को कई प्रकार से विभक्त करती है, ताकि अल्पमत पार्टियों को भी शासन में कुछ अधिकार मिलें। यह आज विश्व में एकमात्र प्रणाली है, जो सचमुच ‘विभक्त सरकार’ का सिद्धांत लागू करती है।

यदि हम राष्ट्रपति प्रणाली के अयोग्य या अनिच्छुक हैं यह फिर भी अति आवश्यक है कि हम अपने संविधान की इन दुखद कमियों को दूर करें, ताकि भारतीय नागरिक सचमुच स्व शासन में संलग्न हो सकें।

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