राजनैतिकशिक्षा

निर्णायक मोड़ पर आंदोलन

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

आंदोलनकारी किसान संगठनों और सरकार के बीच सातवें दौर की वार्ता बेनतीजा रहने के बाद डॉयलॉग अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया है। अगर आठ जनवरी को दोनों हाथ से ताली नहीं बजी तो डेडलॉक तय है। अगली वार्ता से पहले अब सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर सरकार के साथ-साथ आंदोलनकारी किसान संगठनों की भी नजरें टिक गई हैं। सोमवार को सरकार से वार्ता के बाद सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई संभव है। आंदोलन के दौरान मृत किसानों को श्रद्धांजलि के बाद वार्ता शुरू हुई। भरोसे की बात करते हुए सरकार ने 8 बिंदुओं पर सहमति जताते हुए आंदोलन खत्म करने की अपील की। पहला, एमएसपी की लिखित गारंटी। आंदोलनकारी किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी पर ही फिर कायम रहे। दूसरा, एपीएमसी सिस्टम, तीसरा बिजली,चैथा पराली, पांचवां मंडी में समान कर (निजी व सरकारी), छठा नए विकल्प के साथ मंडी सिस्टम की बहाली, सातवां कांट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े विवाद एसडीएम के साथ-साथ अदालतों में निपटारे का अधिकार, आठवां, कॉरपोरेट का डर और अंदेशा दूर करने का भरोसा। इनमें से अधिकांश पर दोनों पक्ष रजामंद दिखे। सरकार सहमति के इन बिंदुओं की लिखित गारंटी देने और संशोधन को तैयार है। एमएसपी और तीन कानूनों पर फिर कमेटी का प्रस्ताव आंदोलनकारी किसान संगठन कमेटी पर राजी नहीं हैं। नए कृषि कानूनों को वापस लेने मांग को लेकर किसानों के धरने को 40 दिन हो चुके हैं। 54 किसानों की मौत हो चुकी है। सरकार के हठधर्मी रवैये से नाराज होकर कुछ किसानों ने तो खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम तक उठा लिया। इन घटनाओं से साफ है कि अगर सरकार ने जल्द ही कोई उचित समाधान नहीं निकाला तो आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ेंगे। किसान संगठन अपने इस रुख पर कायम हैं कि जब तक सरकार कृषि कानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आंदोलन खत्म नहीं होगा। सरकार भी साफ कर चुकी है कि कृष कानूनों की वापसी नहीं होगी।
जाहिर है, जब दोनों पक्षों ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है और कोई भी झुकने को तैयार नहीं है तो गतिरोध खत्म होने की बजाय और बढ़ेगा ही। यह गतिरोध एक ऐसे संकट को जन्म दे रहा है जो किसी भी रूप में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। छठे दौर की बातचीत के बाद सरकार ने दावा किया था कि किसानों की दो मांगें मान ली गई हैं और बाकी पर भी जल्द ही सहमति हो जाएगी। पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी शक्ल देने और कृषि कानूनों को वापस लेने के जिन असल मुद्दों पर किसान आंदोलित हैं, उनके समाधान की दिशा में कोई ठोस पहल होती नहीं दिख रही।
सरकार बार-बार किसानों को यह भरोसा देने में लगी है कि एमएसपी किसी भी सूरत में खत्म नहीं किया जाएगा और इसके लिए वह लिखित रूप में भी देने को भी तैयार है। टकराव का यही बड़ा बिंदु है। अगर सरकार एमएसपी खत्म नहीं कर रही तो इसे कानूनी शक्ल देने में क्या मुश्किल है, यह समझ से परे है।
इसी से किसानों के मन में यह आशंका घर कर गई है कि आखिर ऐसी कौन-सी कानूनी बाधा या मजबूरी है कि सरकार एमएसपी बनाए रखने के बारे लिख कर देने को तो तैयार है, पर उसे कानूनी रूप देने को तैयार नहीं है। ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह एमएसपी की पेचीदगी को लेकर किसानों के समक्ष अपनी मजबूरी रखे और उन्हें संतुष्ट करे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कड़ाके की ठंड से किसानों की मुश्किलें तो बढ़ रही हैं, लेकिन साथ ही जोश और जज्बा भी जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे भी आंदोलनकारियों के हौसले बुलंद हैं। किसान अपनी अगली रणनीति का भी एलान कर चुके हैं और दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्कर मार्च निकालने की तैयारी में हैं। ऐसा लग रहा है कि सरकार भी यह मान रही है कि किसान एक न एक दिन थक हार कर लौटने लगेंगे। किसानों की मांगों पर विचार के लिए सरकार अब समिति बनाने की बात कर रही है। जबकि इस तरह के प्रयास आंदोलन से पहले भी हो सकते थे। आंदोलनकारियों का डटे रहना इस बात का सबूत है कि नए कृषि कानूनों में कुछ तो ऐसा है जो किसानों को अपने हितों के खिलाफ लग रहा है और जिसे सरकार छिपा रही है। ऐसे में आठ जनवरी की वार्ता में कोई रास्ता निकलेगा, इसकी उम्मीद कम ही है।

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