राजनैतिकशिक्षा

तानाशाही का खुला खेल शुरू!

-राजेंद्र शर्मा-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

सूरत की निचली अदालत द्वारा राहुल गांधी को, आपराधिक मानहानि के चार साल पुराने एक मामले में, दो साल की कैद की सजा सुना दिए जाने पर बहुतों को हैरानी हुई जरूर है, पर इसमें हैरानी की कोई बात है नहीं। बेशक, यह काफी लोगों के लिए अप्रत्याशित होगा कि संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी के शीर्ष नेता को भी एक ऐसे कानून का निशाना बनाया जा सकता है, जिसके करीब पौने दो सौ साल के इतिहास में, संभवत: पहली बार ही इस तरह की सजा दी गई है। याद रहे कि यह सजा अगर पलटी या बदली नहीं जाती है, तो राहुल गांधी को न सिर्फ दो साल के कारावास की सजा भुगतनी होगी, लोकसभा स्पीकर कार्यालय द्वारा जैट स्पीड से उनकी लोकसभा की वर्तमान सदस्यता तो खैर समाप्त भी की जा चुकी है, इसके अलावा दो साल की सजा काटने के बाद, आगे छ: साल के लिए यानी कुल आठ साल के लिए, उनके लोकसभा या विधानसभा का कोई भी चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लगी रहेगी।

वैसे सोमवार, 3 अप्रैल को सूरत में जिला व सत्र न्यायालय में, सुनवाई अदालत के निर्णय को चुनौती देने वाली राहुल गांधी की याचिका विचारार्थ स्वीकार करते हुए, उनकी अपील का फैसला आने तक के लिए दो साल की सजा को निलंबित कर दिया है और जमानत 13 अप्रैल को सुनवाई की तारीख तक के लिए बढ़ा दी है। यह कानूनी लड़ाई बहुत जल्दी किसी नतीजे पर पहुंचेगी, यह कहना मुश्किल है। एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि उसी भाषण को लेकर, बिहार के भाजपा के शीर्ष नेता, सुशील कुमार मोदी के मानहानि के दावे पर, पटना में अदालत ने भी सुनवाई की तारीख का ऐलान कर दिया है।

सूरत की सुनवाई अदालत द्वारा दी गयी सजा को, मानहानि के उस ‘अपराध’ के लिए अनुपातहीन तरीके से ज्यादा ही माना जा रहा है, जो अपराध सूरत की अदालत ने ‘सिद्घ’ हुआ ठहराया है। यह अपराध है, एक चुनावी भाषण में राहुल गांधी का व्यंग्यात्मक स्वर में, ललित मोदी, नीरव मोदी आदि के संदर्भ में यह प्रश्न पूछना कि इन सारे चोरों के नाम के पीछे, मोदी ही क्यों लगा मिलता है!

संबंधित व्यक्तियों में से किसी के भी निजी मानहानि का दावा करने के विपरीत, इसे सभी ”मोदी” सरनेम वाले लोगों की मानहानि बनाने और इसलिए, खुद को मोदी बताने वाले किसी भी व्यक्ति के अपनी मानहानि का दावा करने की तुक और कानूनी वैधता की परीक्षा, आने वाले दिनों में विभिन्न स्तरों पर अदालतों में होने जा रही है और यहां हमें इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। हां! यहां इतना दोहराना जरूरी है कि राहुल गांधी ने देश तथा जनता को चूना लगाने के कुछ स्थापित आरोपियों के प्रसंग में जो ‘इन सारे चोरों के नाम के पीछे मोदी क्यों लगा होता’ का जुमला इस्तेमाल किया था, उसे बहुत खींच-खींचकर, तोड़-मरोड़कर ही, ”सारे मोदी चोर होते हैं” का समानार्थी साबित किया जा सकता है; जैसा कि भाजपा का दावा है, जिसे सूरत की अदालत ने स्वीकार भी कर लिया है।

वास्तव में ऐसा लगता है कि इसी तरह की जबर्दस्ती की खींच-तान की संभावनाओं और इसके संभावित दुष्परिणामों को देखते हुए ही और व्यक्ति के ‘मान’ तथा उसकी ‘हानि’ के मामले में, आरोपी की हानि और आरोपित के लिए सजा के बीच, नागरिकों के बीच बुनियादी बराबरी पर आधारित अनुपात बनाए रखने के लिए ही, दुनिया के ज्यादातर देशों में ‘मानहानि’ को सिर्फ दीवानी अपराध की श्रेणी में ही जगह दी गई है।

आपराधिक मानहानि या क्रिमिनल डिफेमेशन का जिस तरह का कानून अंगरेजी राज के दौर में भारत में अपनाया गया था, उसकी ज्यादातर खुद को सभ्य तथा लोकतांत्रिक मानने वाले देशों में, आज कोई जगह ही नहीं है। खुद हमारे देश में इस कानून की वैधता को, सुप्रीम कोर्ट तक में चुनौती भी दी गई है। यह दूसरी बात है कि इस कानून की आलोचना अक्सर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खासतौर पर मीडिया की स्वतंत्रता के लिए, इस कानून के तहत कार्रवाई के दुरुपयोग के खतरों के संदर्भ में ही की जाती रही थी।

सच तो यह है कि बड़े क्रोनी या गोदी पूंजीपतियों द्वारा अपने लिए अप्रिय प्रश्न उठाने से मीडिया का मुंंह बंद कराने के लिए, मानहानि के कानून का सहारा लिए जाने को, मोदी राज में काफी बढ़ावा भी मिला है। और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह राज, जिस तरह के नंगे कारर्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का प्रतिनिधित्व करता है, उसके चलते कारपोरेटों की गड़गड़ियों की आलोचना आसानी से सरकार की आलोचना बन जाती है और मोदी सरकार की आलोचना, अडानी-अंबानी आदि की आलोचना।

हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद से मोदी सरकार ने और उसके इशारे पर विभिन्न नियमनकारी संस्थाओं का जो आचरण रहा है, उससे यह गठजोड़ बिल्कुल साफ हो गया है। फिर भी, किसी प्रमुख राजनीतिक नेता के खिलाफ आपराधिक मानहानि के कानून का इस्तेमाल किए जाने का, यह करीब-करीब पहला ही मामला है। हैरानी की बात नहीं है कि इस प्रसंग पर सारी दुनिया की नजर है, जिसका ताजातरीन सबूत जर्मनी, यूके तथा अमेरिका के विदेश मंत्रालयों के ताजा बयान देते हैं।

इसीलिए, इसे सिर्फ एक संयोग मानने के लिए राजनीतिक रूप से बहुत भोला होना जरूरी है कि राहुल गांधी को निचली जिला अदालत ने, आपराधिक मानहानि के अपराध के लिए दी जा सकने वाली अधिकतम सजा सुनाई है और यह ठीक उतनी ही सजा है, जितनी किसी निर्वाचित सांसद/ विधायक को ‘अयोग्य’ करार देकर, उसकी सदस्यता खत्म कराने के लिए, न्यूनतम आवश्यक सजा है! इस सिलसिले में सामने आए सत्तापक्ष द्वारा संभावित ‘फिक्सिंग’ के संदेहों की ओर से भी आसानी से आंखें नहीं फेरी जा सकती हैं।

13 अप्रैल 2019 के जिस भाषण के लिए, 23 मार्च 2023 को राहुल गांधी को दो साल कैद की सजा सुनाकर, उन्हें आठ साल के लिए किसी भी निर्वाचित सदन से बाहर करने का रास्ता खोल दिया गया, उसके मामले में यह रहस्यात्मक तरीके से दिलचस्प है कि 2019 में 16 अप्रैल को शिकायत दर्ज कराए जाने, 2 मई को एफआईआर, फिर 16 जुलाई तथा 10 दिसंबर को दो पेशियों के जरिए, 2019 में खासी तेजी से आगे बढ़ने के बाद, यह प्रकरण ठंडे बस्ते में पड़ जाता है।

यहां तक कि 2021 के 29 अक्टूबर में तीसरी पेशी होने के बाद, खुद याचिकाकर्ता द्वारा 7 मार्च, 2022 को हाईकोर्ट से सुनवाई पर स्टे करा दिया जाता है। और करीब साल भर बाद, 16 फरवरी, 2023 को याचिकाकर्ता ही हाई कोर्ट से यह स्टे हटवाता है। लेकिन, इससे पहले दिल्ली में और सूरत में, दो अलग-अलग घटनाएं होती हैं। 7 फरवरी को, राष्टï्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में राहुल गांधी, हिंडेनबर्ग रिपोर्ट के संदर्भ में अडानी-मोदी गठजोड़ पर सीधे हमला करते हैं।

उधर सूरत में, मामले की सुनवाई दोबारा शुरू होने से पहले, न्यायाधीश बदल चुका होता है और नये न्यायाधीश को 10 फरवरी को ही पदोन्नति मिली होती है। स्टे हटवाए जाने के बाद, केस ताबड़तोड़ सजा तक पहुंचता है। याचिकाकर्ता द्वारा 16 फरवरी, 2023 को स्टे हटवाया जाता है, 27 फरवरी को सुनवाई दोबारा शुरू होती है और 17 मार्च को फैसला सुरक्षित करने के बाद, 23 मार्च को दो साल की कैद की सजा भी सुना दी जाती है। इस सब को महज संयोग मानना आसान हर्गिज नहीं है। इसमें तो ”न्यायिक फिक्सिंग” की ही गंध ज्यादा जाती है!

फिर भी यह मसला, राहुल गांधी की संसद-सदस्यता के रहने या नहीं रहने तक ही सीमित मसला नहीं है। यह दूसरी बात है कि राहुल गांधी की संसद सदस्यता का मामला भी, इस माने में सिर्फ उन्हीं तक सीमित मामला नहीं है कि यह, देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के शीर्ष नेता का मामला भी है। अगर राहुल गांधी के साथ ऐसा हो सकता है, तो दूसरे विपक्षी नेताओं को ऐसे ही हश्र से बचाने वाला कौन है? इसका विपक्ष पर ‘चिलिंग’ या जड़ करने वाला प्रभाव पड़ सकता है। वास्तव में यह मानना भी निराधार नहीं होगा कि राहुल गांधी को, इस तरह का ठीक इसी प्रकार का जड़ कर देने वाला प्रभाव पैदा करने के लिए ही, आपराधिक अवमानना के पहले निशाने के तौर पर चुना गया है! इराक पर पश्चिमी हमले की बीसवीं सालगिरह पर, यह याद करना अप्रासांगिक नहीं होगा कि इराक पर हमले की बुश प्रशासन की रणनीति, ”शॉक एंड ऑ” या स्तब्ध और आतंकित करने, की ही रणनीति थी।

याद रहे कि नरेंद्र मोदी के राज के करीब नौ साल में, इस राज के आलोचकों तथा विरोधियों को खामोश कराने के लिए, सिर्फ शासन-प्रशासन की करनियों व अकरनियों को और केंद्रीय जांच एजेंसियों को ही हथियारों में तब्दील नहीं किया गया है, जिनका मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच चुका है। मौजूदा राज के अनौपचारिक बाजू के तौर पर, संघ परिवार के व्यक्तियों तथा संगठनों द्वारा भांति-भांति के कानूनों को भी अपने हथियारों में तब्दील किया गया है।

वास्तव में मोदी राज में विरोध की आवाजों को दबाने के एक नये हथकंडे की शुरूआत, सेकुलर हस्तियों, मंचों, संगठनों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ, एक सोचे-समझे पैंतरे के तौर पर, अलग-अलग जगहों से बड़ी संख्या में मुकदमे थोपने के जरिए की गई थी। भावनाएं आहत होने और धार्मिक सद्भाव पर आघात संबंधी कानूनी प्रावधान और आगे चलकर राजद्रोह कानून भी, इसके लिए खास हथियार बने। एम एफ हुसैन जैसे कलाकारों व मुंबइयां फिल्मों के लोकप्रिय सितारों से लेकर, कितने ही जाने-माने बुद्घिजीवियों तथा मीडियाकर्मियों तक को, इन्हीं हथियारों से चुप कराने की कोशिश की जाती रही है। जाहिर है कि इस सब के पीछे भाजपा-नियंत्रित शासन की मिलीभगत थी।

बहरहाल, धीरे-धीरे, यूएपीए से लेकर, सेडीशन तक और धार्मिक विद्वेष फैलाने के कानूनों तक का, खुद खुलकर ज्यादा से ज्यादा हिंदुत्ववादी रंग में रंगते, शासन ने नंगई से तथा कहीं बड़े पैमाने पर सहारा लेना शुरू किया, जिसके लिए काफी हद तक न्यायपालिका की मौन-सहमति फिक्स की जा चुकी थी। और अब संघ परिवारियों की गैर-सरकारी मुकदमों की तलवारों को, विपक्षी मुख्यधारा की तरफ मोड़ दिया गया। इसी क्रम में अब आपराधिक मानहानि को एक राजनीतिक हथियार के रूप में गढ़ा गया है, जिससे मौजूदा शासन के विरोधियों का सीधे सफाया ही किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आजम खान और उनके बेटे को जनता द्वारा चुने जाने के बाद भी जिस तरह, सांप्रदायिक-राजनीतिक उत्पीड़न के मर्मांतक प्रहार के तौर पर विधानसभा की सदस्यता के ही अयोग्य घोषित कराया गया, उससे पहले ही संकेत मिल चुका था। अब राहुल गांधी की सदस्यता के जबरन-हरण के साथ, तानाशाही का खुला खेल शुरू हो चुका है।

 

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