राजनैतिकशिक्षा

नए संविधान की बात पर विवाद क्यों?

-अजीत द्विवेदी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारत के संविधान में सौ बार से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में जैसे ही संविधान समीक्षा या उस पर विचार करने या नया संविधान बनाने की बात होती है वैसे ही विवाद शुरू हो जाता है। जाने माने आर्थिक जानकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने एक लेख लिख कर यह विचार जाहिर किया कि अब संविधान को बदलने का समय आ गया है। उन्होंने “देयर इज ‘केस फॉर वी द पीपल’ टु एंब्रेस ‘न्यू कॉन्स्टिट्यूशन” शीर्षक से अंग्रेजी के अखबार द मिंट में लेख लिखा। इसमें उन्होंने कहा कि भारत में एक नया संविधान अपनाने का आधार दिख रहा है और इस बारे में विचार किया जाना चाहिए। उनके इतना कहते ही देश के लोगों का एक बड़ा समूह उनके ऊपर टूट पड़ा। सोशल मीडिया में उनको गिरफ्तार करने की मांग शुरू हो गई। कहा जाने लगा कि वे संविधान विरोधी हैं और संविधान को नष्ट करना चाहते हैं। हैरानी की बात यह है कि ऐसा कहने वाले ज्यादातर लोग सेकुलर और उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में यकीन करने वाले लोग हैं। ऐसे लोग जिनको लगता है कि भाजपा के मौजूदा राज में लोकतंत्र खत्म हो रहा है और वाक व अभिव्यक्ति की आजादी छीनी जा रही है वे सब कहने लगे की देबरॉय की जुबान बंद की जाए। सोचें, यह कैसी हिप्पोक्रेसी है? इस समूह ने देबराय का इतना ज्यादा विरोध किया कि उनको कहना पड़ा कि यह लेख उन्होंने निजी हैसियत से लिखा है और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति का इससे कोई लेना देना नहीं है। इससे पहले सन 2000 की फरवरी में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया था और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एमएन वेंकटचलैया को उसका अध्यक्ष बनाया था। आयोग में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी, जस्टिस आरएस सरकारिया, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप, हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस के पुन्नैया, भारत सरकार के पूर्व अटॉर्नी जनरल के परासरन, लोकसभा के पूर्व स्पीकर पीए संगमा और जाने-माने कानूनविद् सोली सोराबजी सहित 10 सदस्य बनाए गए थे। आयोग का कार्यकाल पहले एक साल था। बाद में इसे एक साल के लिए और बढ़ाया गया।ध्यान रह उस समय देश में गठबंधन की सरकारों का दौर था और केंद्र से लेकर राज्यों तक राजनीतिक अस्थिरता थी। उसका हवाला देकर वाजपेयी ने कहा था कि केंद्र और राज्य, दोनों जगहों पर स्थायित्व की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इसके अलावा उन्होंने सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए लोगों की आकांक्षाओं का हवाला भी दिया था। क्षेत्रीय व सामाजिक असंतुलन को खत्म करने के लिए नई व्यवस्था बनाने की जरूरत भी बताई थी। और साथ ही यह भी स्पष्ट किया था कि संविधान समीक्षा आयोग मौजूदा संविधान के बुनियादी ढांचे और इसके आदर्शों व मूल भावनाओं से कोई छेड़छाड़ नहीं करेगा। विपक्ष का ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि भाजपा संविधान बदल कर अपनी पसंद का संविधान बनाना चाहती है। इस आधार पर विपक्ष ने इस आयोग में शामिल होने से इनकार कर दिया।इस बार बिबेक देबरॉय ने 23 साल के बाद उन्हीं तर्कों के आधार पर कहा है कि भारत में नए संविधान की जरूरत है। उन्होंने बदली सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियों का हवाला दिया है और साथ ही पिछले 73 साल में संविधान में हुए बदलावों का भी हवाला दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत की जनता ने 1950 में जो संविधान अपनाया था, मौजूदा संविधान वैसा ही नहीं रह गया है। इसमें एक सौ से ज्यादा संशोधन हुए हैं। उनका मानना है कि सारे संशोधन सिर्फ अच्छे के लिए नहीं हुए हैं। याद करें इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समय जो संशोधन कराए थे। हालांकि बाद में मोरारजी देसाई की सरकार ने उनमें से ज्यादातर प्रावधानों को वापस बहाल कर दिया था। देबरॉय ने नए संविधान की जरूरत पर जोर देते हुए यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का 1973 का बेसिक स्ट्रक्चर वाला फैसला मौजूदा संविधान में संशोधन पर लागू होता है, नए संविधान के ऊपर नहीं। देबरॉय ने अपनी बात को मजबूती देने के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो लॉ स्कूलÓ के एक अध्ययन का हवाला दिया है और कहा है कि उसने कई देशों के लिखित संविधानों का अध्ययन किया, जिससे पता चला कि उनकी औसत आयु सिर्फ 17 साल रही है। जबकि भारत में 1950 में अपनाया गया संविधान अब 73 साल का हो चुका है। उन्होंने यह भी कहा है कि भारत का संविधान काफी हद तक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 पर आधारित है। इस तरह यह भी उपनिवेश के दिनों से जुड़ा है। बिबेक देबरॉय ने सन 2000 में हुए प्रयास की याद दिलाई है लेकिन साथ ही कहा है कि उस समय जो प्रयास हुआ था वह आधे अधूरे मन से किया गया था। पिछले दिनों आईपीसी, सीआरपीसी और इविडेंस एक्ट में बदलाव के जो तीन बिल आए हैं उनकी ओर इशारा करते हुए देबरॉय ने अपना निष्कर्ष बताया और कहा- कानूनी बदलाव के कई पहलुओं की तरह, यहां-वहां कुछ बदलाव करने से बात नहीं बनेगी। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि 2047 में भारत को कैसे संविधान की जरूरत है। हम लोगों को एक नया संविधान बनाना होगा।अब सवाल है कि अगर बिबेक देबरॉय ने नया संविधान बनाने की जरूरत बताई तो इस पर इतनी हायतौबा मचाने की क्या जरूरत है? अभी कोई नया संविधान नहीं बन रहा है। अभी विचार के स्तर पर एक बात आई है। इस पर वस्तुनिष्ठ तरीके से चर्चा होनी चाहिए कि मौजूदा समय और परिस्थितियों के मुताबिक देश को नए संविधान की जरूरत है या नहीं। अगर नहीं है तो नया संविधान नहीं बनेगा। लेकिन अगर जरुरत है तो बनाया जाना चाहिए। मुश्किल यह है कि बिबेक देबरॉय के विचार का विरोध बहुत सतही और कुछ हद तक राजनीतिक कारणों से किया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि देबरॉय के जरिए सरकार ने एक पत्थर उछाल कर प्रतिक्रिया देखने का प्रयास किया है। यह डर दिखाया जा रहा है कि सरकार संविधान को बदल कर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की विचारधारा वाला संविधान ला देगी। विरोध का एक बड़ा आधार यह है कि इस संविधान को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने बनाया है, जिसे सरकार बदलना चाहती है। सोचें, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने बनाया है इसलिए इसे हमेशा सीने से चिपकाए रखना है चाहे वह कितना भी अप्रासंगिक क्यों न हो जाए? हालांकि भारत का संविधान अप्रासंगिक नहीं हुआ है लेकिन डॉक्टर अंबेडकर के नाम वाले तर्क का अर्थ यही है कि कुछ भी हो जाए इसे नहीं बदला जा सकता। महात्मा गांधी की बात बदली जा सकती है, पंडित नेहरू का किया बदला जा सकता है लेकिन डॉक्टर अंबेडकर का किया नहीं बदला जा सकता है, यह एक नए किस्म का नस्लवाद है, जिसे वोट की राजनीति के नाम पर बढ़ावा दिया जा रहा है। डॉक्टर अंबेडकर का नाम लेकर समाज के दलित, पिछड़ों, वंचितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को यह डर दिखाया जा रहा है कि संविधान में उनको जो समानता का अधिकार मिला है या आरक्षण का अधिकार मिला है वह छीन लिया जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि मौजूदा या किसी भी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आरक्षण को हाथ लगा दे। उलटे सारी सरकारें आरक्षण बढ़ाने में लगी हैं। नरेंद्र मोदी सरकार ने भी गरीब सवर्णों को आरक्षण देकर 10 फीसदी आरक्षण बढ़ा दिया। समानता, स्वतंत्रता सहित कोई भी मौलिक अधिकार कोई सरकार नहीं छीन सकती है। लेकिन राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर नए संविधान के विचार का विरोध किया जा रहा है। इस विचार का विरोध इस आधार पर भी हो रहा है कि इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नया संविधान लाना चाहते हैं। जैसे उन्होंने नई संसद भवन बनवाई या नए कानून बनवा रहे हैं उसी तरह नया संविधान बनाएंगे। यह भी कहा जा रहा है कि नए संविधान के जरिए संसदीय प्रणाली को बदल कर अध्यक्षीय प्रणाली को लागू कर दिया जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई बदलावों में सरकार की मंशा संदिग्ध है। फिर भी ये सारे खतरे अनुमानित हैं, जिनका कोई ठोस आधार नहीं है। देश की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियां बदली हैं। दुनिया बदली है। आबादी की संरचना बदली है। इन बदली परिस्थितियों में बिबेक देबरॉय के सुझाव पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार किया जाना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *