भारत फिर लौट रहा गठबंधन राजनीति की ओर, ये सकारात्मक सोच नहीं
-अवधेश कुमार-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
राष्ट्रीय राजनीति की वर्तमान गतिविधियों का पहला निष्कर्ष यही आता है कि भारत फिर से गठबंधन सरकारों और राजनीति के दौर में वापस लौट रहा है। एक ओर विपक्ष द्वारा 26 दलों का गठबंधन (इंडिया) बनाने और प्रत्युत्तर में भाजपा द्वारा 38 दलों को साथ लेने के बाद दूसरा निष्कर्ष आ भी नहीं सकता। यहां दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं। पहला, क्या वाकई वर्तमान राजनीति में गठबंधन फिर से अपरिहार्य हो गया है या इसके कारण दूसरे हैं? दूसरा, क्या वाकई देश का मानस गठबंधन सरकार स्वीकार करने का संकेत दे चुका है?
पहले देश की राजनीति की कुछ सच्चाई। एक, 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अकेले लोकसभा में बहुमत हासिल किया, जिसकी संभावना बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषक भी नहीं व्यक्त कर रहे थे। दूसरे, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 303 का बहुमत मिलना इस बात का परिचायक था कि लोगों ने एक दल के बहुमत वाली सरकार की नीतियों के प्रति संतोष व्यक्त किया है। तीसरे, वैसे तो कई राज्यों में कुछ दलों की अकेले बहुमत वाली सरकारें चलती रहीं, किंतु नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आविर्भाव के साथ भाजपा को 2013 में तीन राज्यों में अपार बहुमत मिला। फिर 2017 में सबसे जबर्दस्त परिणाम उत्तर प्रदेश विधानसभा का आया और 2022 में भाजपा दोबारा सत्ता में लौटी।
ये तीन पहलू और इस तरह की और भी घटनाएं बता रही हैं कि देश किसी एक दल के गैर-बहुमत वाली गठबंधन सरकार को स्वीकार करने की मानसिकता में नहीं था। देश का यह मानस अचानक नहीं बना। दरअसल, वर्ष 1989 से देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था। 1990 व 2000 के दशक में राज्यों में कई सरकारों का समय पूर्व पतन हुआ। इससे राजनीति का पूरा परिदृश्य विकृत होता गया। चुनाव का चक्रीय क्रम अस्त-व्यस्त हो गया। केंद्र की 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार 11 महीने भी नहीं चली और उसके बाद चंद्रशेखर की सरकार तो चार महीने भी नहीं चल सकी। फिर प्रधानमंत्री नरसिंह राव को अपनी सरकार बचाने के लिए जो कुछ करना पड़ा, उसका परिणाम देश के समक्ष झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड के रूप में आया। संयुक्त मोर्चा की सरकार पहले एचडी देवेगौड़ा, फिर इंद्र कुमार गुजराल जैसे प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व में भी डेढ़ साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी, जो एक साल में ही गिर गई। इस बीच राज्यों में तो आया राम गया राम की ऐसी स्थिति पैदा हुई कि अनेक मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
2010 के बाद से भारी मतदान की प्रवृतियां बढ़ीं और धीरे-धीरे राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारें बनने लगीं। और अंततः 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मतदाताओं ने गठबंधन वाली सरकारों का दौर खत्म कर दिया। प्रश्न है कि आखिर केंद्र में लगातार दो बार बहुमत मिलने तथा देश की प्रवृतियां समझने के बावजूद भाजपा को गठबंधन की प्रतिस्पर्धा में शामिल होने की आवश्यकता क्यों हुई।
महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में सरकार बनाने से इन्कार करने के बाद स्थिति बदली और कांग्रेस एवं राकांपा की मदद से उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया गया। वहीं बिहार में कम सीटें पाने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया। अंततः उन्होंने भी पाला बदल लिया। ऐसा लगता है कि इससे राज्यों को लेकर भाजपा का मानस बदला।
साफ है कि गठबंधन की ओर फिर से लौटने के पीछे सकारात्मक सोच या कारण नहीं है। इसलिए इसे स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस यह मान चुकी है कि अब उसका प्रभावी राष्ट्रीय विस्तार संभव नहीं, इसलिए सत्ता पाने व भाजपा को हराने के लिए छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ जाना जरूरी है। दूसरी ओर भाजपा ने भी मान लिया है कि विपक्षी गठजोड़ में जितने ज्यादा दल होंगे, उसको चुनौती देने की संभावना उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी। इसलिए उन सारे दलों को साथ लाने की रणनीति अपनाई गई है। जाहिर है, गठजोड़ की यह राजनीति दलों की आपसी व्यवस्था की परिणति है और यह भारतीय राजनीति की सामान्य स्थिति नहीं है।