राजनैतिकशिक्षा

सरकार मजबूर है, समाजवादी नहीं!

-अजीत द्विवेदी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट के आयात को सीमित करने के लिए एक नीति की घोषणा की है। पहले कहा गया था कि आयात को सीमित करने वाली यह नीति तत्काल लागू होगी लेकिन 24 घंटे के अंदर इसे लेकर ऐसी हायतौबा मची की सरकार ने इसे तीन महीने के लिए टाल दिया। अब यह नीति एक नवंबर से लागू होगी। इस नीति में सरकार ने सिर्फ इतना कहा है कि लैपटॉप, कंप्यूटर और टैबलेट के आयात के लिए कंपनियों को लाइसेंस लेना होगा। इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अब विदेश में बने उत्पाद भारत में नहीं बिकेंगे। इसका सिर्फ इतना मतलब है कि जैसे पहले एप्पल, सैमसंग, डेल जैसी कंपनियां जो विदेश में अपने उत्पाद बनाती थीं और भारत में लाकर बेच देती थीं वैसे नहीं बेच पाएंगी। पहले उन्हें सिर्फ आयात शुल्क चुकाना होता था और अपने उत्पाद बेचने की छूट थी। अब उन्हें इसके लिए लाइसेंस यानी सरकार से मंजूरी लेनी होगी।सरकार कारोबार सुगमता रेटिंग में चाहे कितनी भी ऊपर चली जाए लेकिन सबको पता है कि उससे किसी कारोबार की मंजूरी या लाइसेंस लेना कितना मुश्किल होता है। तभी जैसे ही सरकार ने इस बारे में नोटिस जारी किया वैसे ही इसका विरोध शुरू हो गया और इसे पुरानी समाजवादी अर्थव्यवस्था की और लौटने का कदम बताया जाने लगा। इसमें दिलचस्प बात यह है कि सरकार के विरोधियों ने भी अपने तर्क से इस नीति की मुखालफत की तो सरकार के समर्थकों ने अपने तर्कों से इसका विरोध किया। किसी ने समाजवादी नीतियों की वापसी बताई तो किसी ने कोटा परमिट राज का लौटना बताया। इससे कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार ने गैर बासमती चावल के निर्यात पर भी पाबंदी लगाई थी। उसके साथ ही इस नीति को मिला कर देखा गया और यह प्रमाणित किया गया कि सरकार पुराने रास्ते पर लौट रही है। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार समाजवादी नहीं हुई है। ज्यादा से ज्यादा उसे संरक्षणवादी कह सकते हैं। इस तरह की नीतियां अमेरिका से लेकर यूरोप तक के देश समय समय पर आजमाते रहे हैं।बहरहाल, पुराना रास्ता या मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता वह है, जिस पर आजादी के बाद भारत चला था। आजादी के बाद 45 साल तक भारत में कोटा, परमिट, लाइसेंस राज था। हर काम के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती थी। नरसिंह राव की सरकार ने 1992 में इस व्यवस्था को बदला था। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को कई तरह के बंधनों से मुक्त कर दिया था। हालांकि तब यह बहस होती रही थी कि देश इसके लिए तैयार है या नहीं? इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस समय भारत और भारत के निजी कारोबारी विदेशी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं थे। इसके बावजूद आजादी के 45 साल की बदली हुई स्थितियों में भारत की आर्थिक नीतियों में बदलाव जरूरी था, जो हुआ। दूसरा और तात्कालिक कारण यह था कि 1991 के आर्थिक संकट के बाद भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली था, जिसे भरने के लिए जरूरी था कि बाहर से डॉलर आए। नरसिंह राव की नीतियों से बदलाव भी हुआ और डॉलर भी आया। उसके बाद से कभी भी भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली नहीं हुआ है।उसके बाद से अब तक भारत की सरकारें उसी रास्ते पर चलती रही हैं। लेकिन केंद्र सरकार के हाल के दो फैसलों, गैर बासमती चावल का निर्यात रोकने और लैपटॉप के आयात को सीमित करने के बाद सरकार की इस बात के लिए आलोचना हो रही है कि वह समाजवादी नीतियां या कोटा, परमिट लाइसेंस राज की नीतियां वापस ला रही है। सरकार की इस आलोचना में असल कारण आर्थिक या सरकार से नाराजगी नहीं है, बल्कि समाजवादी नीतियों से चिढ़ है। ध्यान रहे पिछले तीन-चार दशकों में दुनिया में उदार लोकतंत्र और सार्वभौमिक पूंजीवाद की नीतियों को सर्वश्रेष्ठ मानने का चलन बढ़ा है। यह माना जाता है कि दुनिया के लिए सबसे अच्छा रास्ता यही है। चूंकि इस रास्ते के लिए वैचारिक स्तर पर चुनौती सिर्फ समाजवाद की नीतियों से है, जिसका मूल तत्व है कि, नहीं किसी को बहुत अधिक हो नहीं किसी को कम होÓ। हैरानी की बात है कि जिन लोगों को देश और दुनिया में बढ़ती आर्थिक विषमता से परेशानी है उनको भी समाजवादी नीतियों से चिढ़ है! हालांकि यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि सरकार की नीतियों का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। उसकी दूसरी मजबूरियां हैं, जिसकी वजह से ऐसे फैसले हुए हैं।असल में कोरोना वायरस की महामारी फैलने के बाद जब इलेक्ट्रोनिक्स सामानों की कमी हुई तो सरकार ने प्रोडक्शन लिंक्ट इनसेंटिव यानी पीएलआई स्कीम लागू की थी। इस योजना के तहत सरकार ने 14 अलग अलग सेक्टर की कंपनियों को सामान बना कर बेचने पर पांच साल तक के लिए सब्सिडी देने की घोषणा की थी। यह सब्सिडी सामान की कीमत के तीन से पांच फीसदी तक हो सकती थी। इसका फायदा भी हुआ। मिसाल के तौर पर मोबाइल हैंडसेट के निर्यात का जिक्र किया जा सकता है। भारत में इसका कोई निर्यात नहीं होता था लेकिन पिछले वित्त वर्ष में 90 हजार करोड़ का मोबाइल हैंडसेट भारत से निर्यात हुआ है, जिसमें आधा हिस्सा एप्पल के मोबाइल हैंडसेट का है।हालांकि लैपटॉप और कंप्यूटर के मामले में सरकार की पीएलआई स्कीम सफल नहीं हुई। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद एप्पल या दूसरी कंपनियां भारत में लैपटॉप या कंप्यूटर बनाने नहीं आईं। उलटे भारत सरकार की ओर से दी जाने वाली इनसेंटिव की राशि बढ़ती गई। सो, ऐसा लग रहा है कि सरकार ने लैपटॉप, कंप्यूटर और टैबलेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर करने के लिए यह कदम उठाया है। हो सकता है कि लाइसेंस राज की वजह से कंपनियां भारत में अपनी फैक्टरी लगाएं और उत्पादन शुरू करें। इससे भारत को दोहरा फायदा है। एक तो फैक्टरी लगने से रोजगार की संभावना बढ़ेगी और दूसरे भारत से निर्यात होने पर उसका फायदा अलग होगा। हालांकि यह भी संभव है कि कंपनियां फैक्टरी लगाने की बजाय लाइसेंस लेकर अपने उत्पाद को भारत में बेचती रहें। नवंबर के बाद ही इसका पता लगेगा कि इस नीति का कितना असर होगा।लेकिन पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि सरकार कंपनियों को भारत में फैक्टरी लगाने के लिए मजबूर करने के वास्ते ऐसा कर रही हैं। इस नीति का फायदा घरेलू कंपनियों को मिल सकता है। एक चर्चा यह भी है कि रिलांयस इंडस्ट्रीज ने एक अगस्त को जियो बुक नाम से अपना लैपटॉप लॉन्च किया, जिसकी कीमत उसने 16 हजार रुपए रखी है। और उसके दो दिन बाद ही सरकार ने लैपटॉप के आयात पर पाबंदी लगा दी। हालांकि इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है, जिससे यह प्रमाणित हो कि रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने आयात को सीमित करने का कदम उठाया है। परंतु सरकार ने जिस तरह से अर्थव्यवस्था से जुड़ी इस नीति को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा उससे संदेह जरूर पैदा होता है। बहरहाल, सरकार के इस फैसले के पीछे कई कारण दिख रहे हैं। आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सब तरह के कारण हैं लेकिन उनका समाजवादी नीतियों से कोई लेना देना नहीं है।

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