राजनैतिकशिक्षा

भाजपा की गठबंधन राजनीति के मायने

-अजीत द्विवेदी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारतीय जनता पार्टी ने एनडीए के 25 साल पूरे होने पर इसको पुनर्जीवित किया तो यह देश के राजनीतिक विमर्श का सबसे प्रमुख मुद्दा बन गया। बनना भी चाहिए क्योंकि पिछले नौ साल से भाजपा जिस तरह की एकाधिकारवादी राजनीति कर रही है उसमें उसका गठबंधन की ओर बढ़ना और प्रधानमंत्री का यह कहना कि उनका गठबंधन एक सुंदर इंद्रधनुष है, जिसमें कोई भी पार्टी छोटी या बड़ी नहीं है, बहुत सुखद संकेत है। कई लोग इसे सुखद संकेत नहीं मानेंगे क्योंकि गठबंधन की सरकारों के बारे में ऐसी धारणा बना दी गई है कि उनके होने से राजनीतिक व प्रशासनिक अस्थिरता को बढ़ावा मिलता है। यह धारणा भी बनाई गई है कि केंद्र में मजबूत सरकार से न सिर्फ स्थिरता आती है, बल्कि बाह्य और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित होती है। यह एक गढ़ा हुआ विमर्श है, जिसे तथ्यों के आधार पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। हकीकत यह है कि इस देश में गठबंधन की सरकारों ने विकास के ज्यादा काम किए हैं और गरीबों व वंचितों के लिए बेहतर योजनाएं बनाई हैं। उन्होंने लोकतंत्र को ज्यादा मजबूती भी दी है। लेकिन वह अलग विमर्श का विषय हो सकता है। फिलहाल चर्चा एनडीए को पुनर्जीवित करने की है।

भाजपा ने जब से 38 पार्टियों को जुटाया है तब से इसे लेकर कुछ राजनीतिक निष्कर्ष निकाले जा रहे है, जिसमें से कुछ सही हैं और कुछ तथ्यात्मक रूप से सही होते हुई भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। जैसे यह कहा जा रहा है कि एनडीए की बैठक में शामिल हुईं 10 पार्टियों ने पिछला लोकसभा चुनाव ही नहीं लडा था। कुल 38 पार्टियों में से 24 का एक भी लोकसभा सांसद नहीं है। आठ पार्टियां ऐसी हैं, जिन्होंने सिर्फ नौ लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी। ये सारी बातें तथ्यात्मक रूप से सही हैं लेकिन इसके आधार पर जो निष्कर्ष निकाला जा रहा है वह पूर्वाग्रह से भरा है और राजनीतिक रूप से गलत है। इस बात को समझने की जरूरत है कि भाजपा सिर्फ इसलिए घटक दलों को नहीं जुटा रही है कि वह कमजोर हो गई है। यह उसका एक राजनीतिक दांव भी है। क्योंकि भाजपा 2014 और 2019 की तरह अगले चुनाव को लेकर बहुत भरोसे में नहीं है। केंद्र में 10 साल तक राज करने वाली किसी भी पार्टी को लगातार तीसरा चुनाव आसानी से जीत जाने के भरोसे में रहना भी नहीं चाहिए। यह भी सही है कि भाजपा ने जो पहल की है उससे निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ईर्द-गिर्द बनाया जा रहा नैरेटिव कमजोर होगा और भाजपा अपना एक एडवांटेज गंवाएगी। लेकिन इससे उसको दूसरा फायदा हो सकता है।

सबसे बड़ा फायदा भारतीय राजनीति को होगा कि खुद भाजपा अपनी पहल से अपनी एकाधिकारवादी राजनीति को कमजोर करेगी। याद करें 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कैसे हुआ था। तब भाजपा बिहार में 23 लोकसभा सीटों की पार्टी थी लेकिन उसने जनता दल यू से समझौता किया और सिर्फ 17 सीटों पर लड़ी। इसकी वजह से भाजपा की छह सीटें कम हो गईं और सिर्फ दो लोकसभा सीटों वाली नीतीश कुमार की पार्टी 16 सीटों पर जीत गई। आज नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति मुख्य रूप से उन्हीं 16 लोकसभा सीटों की वजह से है। महाराष्ट्र में शिव सेना की 18 और उत्तर प्रदेश में अपना दल की दो सीटें भाजपा की वजह से ही हैं। अगले चुनाव में अगर भाजपा 38 या उससे ज्यादा पार्टियों के साथ गठबंधन बनाती है तो संभव है कि कुछ राज्यों में भाजपा की सीटें कम हो जाएं और उसकी कीमत पर कुछ प्रादेशिक पार्टियां मजबूत हों। इससे भाजपा की एकाधिकारवादी राजनीति कमजोर होगी और राष्ट्रीय राजनीति में विविधता बढ़ेगी। भाजपा अगर सचमुच गठबंधन की राजनीति करती है और सहयोगी पार्टियों को उनकी क्षमता के मुताबिक जगह देती है तो यह देश के लिए अच्छी बात होगी।

इस राजनीति का भाजपा को एक फायदा यह हो सकता है कि वह अपनी वैचारिकता को राजनीति की मुख्यधारा बनाने में कामयाब हो सकती है। ध्यान रहे कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती हैं कि भाजपा विभाजनकारी राजनीति कर रही है, समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाती है और उससे वोट की फसल पकाती है। लेकिन अगर भाजपा की इस राजनीति के साथ देश की 40 पार्टियां जुड़ती हैं तो क्या यह अपने आप साबित नहीं होगा कि वह जिस विचारधारा को अपना कर चल रही है उसकी वजह से वह अछूत नहीं हुई है? क्या इससे उसकी राजनीतिक विचारधारा को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिलेगी? ध्यान रहे दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा नफरत की नजर से देखी जानी वाली विचारधारा फासीवाद है और भारत की विपक्षी पार्टियां भाजपा को इसी विचारधारा की पार्टी बताती हैं। लेकिन अब अगर देश के अलग अलग हिस्सों की और अलग अलग जातीय, सामाजिक आधार वाली पार्टियां उसके साथ जुड़ती हैं तो निश्चित रूप से भाजपा पर लगने वाला फासीवाद का आरोप कमजोर होगा। ध्यान रहे भाजपा के साथ जा रहीं कई पार्टिंयां पहले कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी पार्टियों के साथ रही हैं।

भाजपा की ओर से छोटी छोटी प्रादेशिक पार्टियों को महत्व देने और एनडीए में उनको जगह देने से भारतीय समाज में छोटी छोटी और बिल्कुल अनजानी अस्मिताएं जन्म ले रही हैं। इस बात को ऐसे कह सकते हैं कि छोटी छोटी सामाजिक अस्मिताओं को बड़ी राजनीतिक पहचान मिल रही है और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को स्पेस मिल रहा है। भाजपा की सक्रिय मदद से भारतीय राजनीति में नए प्रादेशिक क्षत्रप उभर रहे है या मजबूत हो रहे हैं। ओमप्रकाश राजभर, संजय निषाद, अनुप्रिया पटेल, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान, रामदास अठावले आदि का चेहरा सिर्फ एक व्यक्ति का चेहरा नहीं है, बल्कि ये किसी खास जातीय समुदाय की अस्मिता के प्रतिनिधि हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इनके राजनीतिक रूप से मजबूत होने से सोशल स्पेस में डिवीजन बढ़ेगा लेकिन कई बार छोटी सामाजिक अस्मिताओं का मजबूत होना समरस समाज बनाने के लिए जरूरी होता है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा कोई समरस समाज बनाने के लिए ऐसा कर रही है लेकिन राजनीतिक मजबूरी में किए जा रहे काम से अगर समाज में किसी सुधार की संभावना जन्म लेती है तो उसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

भाजपा की इस राजनीति की वजह से विपक्षी गठबंधन के सामने चुनौतियां बढ़ गई हैं। पहले तो उनको इस नैरेटिव का जवाब देना है कि भाजपा को उनसे ज्यादा पार्टियों का समर्थन हासिल है और भाजपा का राजनीतिक इंद्रधनुष ज्यादा रंगों वाला है। इसके अलावा विपक्षी पार्टियों को राज्यों में अपने गठबंधन को और मजबूत करना होगा क्योंकि भाजपा अपने कोर वोट आधार में जो नए वोट जोड़ने के प्रयास कर रही है उसको रोके बगैर या उसके बिखरे बगैर विपक्ष का मकसद पूरा नहीं होगा। मिसाल के तौर पर बिहार में भाजपा अगर चार नेताओं के जरिए कुशवाहा, पासवान, मांझी और मल्लाह वोट जोड़ने का प्रयास कर रही है तो विपक्ष इसे कैसे रोक सकता है? गैर यादव और गैर कुर्मी पिछड़ी जातियां और दलित अगर भाजपा के सवर्ण व वैश्य मतदाताओं के साथ जाते हैं तो विपक्ष के पास क्या रास्ता बचेगा? जो लोग बिहार की राजनीति को जानते हैं उनको पता है कि राज्य में दलित अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाले दो सबसे बड़े चेहरे चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के हैं। इसी तरह गैर यादव व गैर कुर्मी जातियों में कोईरी और मल्लाह का प्रतिनिधित्व उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी करते हैं। अगर ये चारों चेहरे भाजपा के साथ जाते हैं तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के लिए मुश्किल होगी। भाजपा ने एनडीए को पुनर्जीवित करके और 38 पार्टियों को जोड़ कर हर राज्य में विपक्ष के सामने ऐसी ही चुनौती खड़ी की है। इससे पार पाने कि लिए विपक्ष को बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी।

 

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