राजनैतिकशिक्षा

आज़ाद के दावों का सच

-मनु श्रीवास्तव-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

कांग्रेस छोड़ कर अपने लिए राजनीतिक ज़मीन तलाश रहे गुलाम नबी आज़ाद इन दिनों अपनी किताब और हाल ही में दिए गए कुछ बयानों की वजह से ज़बरदस्त चर्चा में हैं। यह ठीक है कि किसी भी किताब और बयान पर चर्चा होना एक सामान्य बात है लेकिन गुलाम नबी आज़ाद जिस तरह से अपनी किताब के प्रचार व प्रसार के लिए जिन दावों का सहारा ले रहे हैं वह अपने आप में हैरान करने वाले हैं।

सवाल यह भी उठता है कि आखिर गुलाम नबी आज़ाद को अपने आप को ‘सही’ व ‘सच्चा’ साबित करने के लिए ऐसे दावों का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है, जिनका सच्चाई से कोई नाता नही है । ऐसी क्या मजबूरी है कि अपने को ‘महान’ व ‘श्रेष्ठ’ साबित करने के लिए वे राजनीतिक इतिहास को भी पलट देने की कोशिश कर रहे हैं ? आज़ाद अपने दावों को सही साबित करने के लिए तथ्यों और आकंडों तक को भी नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

आज़ाद की किताब के जो अंश बाहर आए हैं और आज़ाद ने जो हाल में बयान दिए हैं उन्हें देख कर कुछ बातें साफ तौर पर कही जा सकती सकती हैं कि या तो आज़ाद इतिहास भूल गए हैं या जानबूझकर ऐसी बातें लिख-बोल रहे हैं ताकि कुछ दिन सनसनी बनी रहे और वे राजनीतिक रूप से प्रासंगिक भी बने रहें। मगर आज़ाद कुछ भी कहें एक बात साफ है कि उनके बयान और किताब में छपे उनके कुछ दावे बेहद हास्यास्पद हैं। राजनीति में सफलता की ऊंचाईयां छू चुके आज़ाद आखिर क्यों ऐसा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके साथ हर जगह अन्याय हुआ है ?

अपनी किताब में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती महोम्मद सईद को लेकर जो बड़ी और आश्चर्यजनक बातें गुलाम नबी आज़ाद ने कही हैं वह तो ऐसी हैं जिन्हें लेकर सोशल मीडिया पर खूब मज़ाक बन रहा हैँ। इन बातों का सच्चाई से दूर-दूर तक ताल्लुक नही है। आज़ाद जैसे एक बड़े नेता की तरफ़ से की जा रही यह बातें कई तरह के सवाल तो पैदा करती ही हैं, इससे खुद आज़ाद की अपनी व्यक्तिगत छवि को भी नुक्सान पहुंचा है।

गुलाम नबी आज़ाद ने अपनी किताब में पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती महोम्मद सईद के साथ अपने रिश्तों को लेकर विस्तार से लिखा है कि 2002 में जम्मू-कश्मीर में बनने वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और कांग्रेस सरकार की गठबंधन सरकार के गठन के समय मुफ्ती महोम्मद सईद ने मुख्यमंत्री पद पाने के लिए ज़बरदस्त ज़िद्द की और उन्हें (आज़ाद को) मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। आज़ाद ने दावा किया कि उनके पास 42 विधायकों का समर्थन था मगर मुफ्ती के कारण वे मुख्यमंत्री नहीं बन सके।

आज़ाद का यह दावा पूरी तरह से आधारहीन और तथ्यों से दूर है। राजनीति से हटकर अगर सिर्फ संख्याबल की ही बात की जाए तो भी आज़ाद का दावा पूरी तरह से गलत साबित होता है। जम्मू-कश्मीर में 2002 में 87 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में 28 विधायकों के साथ नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई थी। जबकि दूसरे नंबर पर कांग्रेस थी जिसके पास 20 विधायक थे। नई-नई गठित हुई पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के 16 विधायक जीते थे। इसी तरह से पैंथर्स पार्टी के चार विधायक थे।

इस चुनाव में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के दो विधायकों ने भी कामयाबी पाई थी। जबकि भारतीय जनता पार्टी, डेमोक्रेटिक मूवमेंट, जम्मू-कश्मीर अवामी लीग और बहुजन समाज पार्टी का एक-एक विधायक जीता था। छोटी-बड़ी पार्टियों के अलावा 13 निर्दलीय विधायक भी 2002 के विधानसभा चुनाव में जीते थे।गुलाम नबी आज़ाद दावा कर रहे हैं कि उनके पास 42 विधायक थे और वे मुख्यमंत्री बनने ही वाले थे कि मुफ्ती महोम्मद सईद खुद मुख्यमंत्री बनने के लिए अड़ गए।

आज़ाद के इस कथन पर राजनीति की हल्की सी समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति आखिर कैसे यकीन कर सकता है। अगर उनके पास 42 विधायकों का समर्थन था तो उन्हें 44 का जादुई आंकड़ा छू सकने से कौन रोक सकता था। यही नही 42 विधायकों के समर्थन हासिल कर चुके आज़ाद को मात्र 16 विधायकों वाले मुफ्ती महोम्मद सईद से डरने-घबराने की क्या ज़रूरत थी। वह भी उस समय जब पीडीपी को गठित हुए जुम्मा-जुम्मा चार ही दिन हुए थे। उल्लेखनीय है कि पीडीपी का गठन 1999 में हुआ था।

दरअसल कांग्रेस के 20 विधायकों को किसी भी राजनीतिक दल ने सरकार बनने की प्रक्रिया में कभी भी अपना समर्थन घोषित नही किया था। कुछ निर्दलीय विधायकों ने ज़रूर कांग्रेस के साथ जुड़ना पसंद किया था मगर उनकी संख्या भी छह से अधिक नही थी। निर्दलीय विधायकों में कुछ ऐसे भी थे जो किसी भी कीमत पर कांग्रेस के साथ जाने को तैयार नही थे। ऐसे ही निर्दलीय विधायकों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा समर्थित नवगठित स्टेट मोर्चा पार्टी के एक विधायक भी थे। इसी तरह से कुछ अन्य निर्दलीय विधायक नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के संपर्क में भी थे।

लोगों की याददाश्त ज़रूर कम होती है मगर इतनी भी नही कि आज़ाद की कही बातों को लोग आंखे मूंद कर मान लें। दरअसल बिना पीडीपी या नेशनल कांफ्रेंस की मदद के कांग्रेस की सरकार का बनना नामुमकिन था।

यही नही गुलाम नबी आज़ाद अपने दावे करते समय 2002 की परिस्थितियों और ज़मीनी हकीकतों को भी नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या कोई और वजह है इसे खुद आज़ाद ही बता सकते हैं।

2002 के विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ समय के लिए गुलाम नबी आज़ाद ने नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिल कर सरकार बनावाने की कोशिश ज़रूर की थी। लेकिन उस समय कांग्रेस आलाकमान किसी भी कीमत पर नेशनल कांफ्रेस के साथ सरकार बनाने के पक्ष में नही था। उल्लेखनीय है कि आज़ाद के अब्दुल्ला परिवार से संबंध बहुत ही अच्छे रहे हैं। समय-समय पर दोनों ने एक-दूसरे को राजनीतिक रूप से मदद भी पहुंचाई है।

यह एक सर्वविदित सत्य है कि कांग्रेस आलाकमान शुरू से ही मुफ्ती महोम्मद सईद को ही मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में था। सरकार बनाने की प्रक्रिया में वरिष्ठ कांग्रेस नेता मनमोहन सिंह का बार-बार श्रीनगर आना और मुफ्ती महोम्मद सईद से मिलना साफ बताता था कि मुफ्ती ही प्राथमिकता में थे। सरकार के गठन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मुफ्ती के मित्र स्वर्गीय मक्खन लाल फोतेदार की भी विशेष भूमिका थी और वे मुफ्ती के समर्थन में चट्टान की तरह खड़े थे। सच्चाई यह है कि कांग्रेस-पीडीपी सरकार के गठन की सारी प्रकिया में कांग्रेस आलाकमान ने आज़ाद की भूमिका को बेहद सीमित कर दिया था। आज़ाद को अवश्य याद होना चाहिए कि उनकी कुछ शुरूआती कलाबाजियों को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने लगभग पूरी तरह से उन्हें सरकार के गठन की प्रक्रिया से अलग कर दिया था।

आज़ाद उस समय के प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता स्वर्गीय मंगतराम शर्मा को भी भूल रहे हैं। ‘चाणक्य’ के नाम से जाने जाने वाले मंगतराम शर्मा और गुलाम नबी आज़ाद का हमेशा टकराव रहा और शर्मा हमेशा आज़ाद पर भारी ही साबित होते रहे।

आज़ाद भले ही भूल गए हों और दिल्ली मीडिया में तमाम तरह के दावे कर रहे हों मगर जम्मू-कश्मीर में सभी जानते हैं कि स्वर्गीय मंगतराम शर्मा और कांग्रेस के भीतर उनका मज़बूत गुट मुफ्ती महोम्मद सईद के नेतृत्व में ही सरकार बनाने के हक में था। स्वर्गीय मक्खन लाल फोतेदार, स्वर्गीय मंगतराम शर्मा और स्वर्गीय मुफ्ती महोम्मद सईद के बीच बेहद करीबी संबंध रहे हैं जबकि तीनों ही के साथ आज़ाद के संबंध कभी भी मधुर नहीं रहे। यह देखना दिलचस्प होगा कि स्वर्गीय मंगतराम शर्मा और स्वर्गीय मक्खन लाल फोतेदार का आज़ाद ने अपनी किताब में कैसे और कितना ज़िक्र किया है। बिना फोतेदार और शर्मा को याद किए आज़ाद की कहानी अधूरी ही रहने वाली है।

गुलाम नबी आज़ाद एक और बड़ी वास्तविकता को भूल रहे हैं। उस समय केंद्र की वाजपेयी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के खराब हालात को देखते हुए विश्वास बहाली के कई महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव को इसी विश्वास बहाली के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। लंबे समय बाद कश्मीर में चुनाव को लेकर उत्साह देखा गया था और आम लोगों में संदेश गया था कि चुनाव पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्षता के साथ हुए हैं।

चुनाव परिणामों के बाद मुफ्ती महोम्मद सईद एक हीरो के रूप में सामने आए थे। पीडीपी के गठन के रूप में जम्मू-कश्मीर में जो नया राजनीतिक प्रयोग हुआ था उसे लेकर पूरे देश की नज़रें मुफ्ती महोम्मद सईद पर टिकी हुई थीं। इस नए राजनीतिक प्रयोग को लेकर ज़बरदस्त उत्साह था और इस प्रयोग का कामयाब होना उस समय की आवश्यकता भी थी। यही वजह थी कि मुफ्ती महोम्मद सईद और उनकी पार्टी को लेकर उस समय की केंद्र की वाजपेयी सरकार का अघोषित ‘समर्थन’ भी था। आज़ाद शायद भूल रहे हैं कि मुफ्ती सरकार के गठन के बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ का नारा दिया था।

स्वर्गीय मुफ्ती महोम्मद सईद को लेकर किए गए दावे के साथ-साथ एक दूसरा बड़ा और हैरान कर देने वाला दावा करते हुए आज़ाद ने कहा है कि उन पर आतंकवादियों ने पंजाब में 26 बार और कश्मीर में मुख्यमंत्री रहते हुए 16 बार जानलेवा हमले किए हैं। इन हमलों के बारे में किसी ने भी इससे पहले कभी नही सुना था। सुरक्षा जानकार तक हैरान हैं कि आखिर यह हमले कब हुए? और आज़ाद ने इन हमलों की संख्या तक कैसे याद रखी हुई है? 26 और 16 इतना सटीक दावा।

इस दावे को लेकर आज़ाद पर सवाल उठ रहे हैं। बड़ा सवाल यही है कि आखिर गूगल के ज़माने में आज़ाद ऐसे दावे कर के अपनी साख को क्यों खराब कर रहे हैं। आज़ाद का दावा है कि इन हमलों के कारण ही उन्हें दिल्ली में सरकारी बंगला मिला हुआ है। देखना दिलचस्प होगा कि गुलान नबी आज़ाद ने अपनी किताब में और कितने दिलचस्प दावे किए हैं।

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