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11 जनवरी को पुण्य तिथि पर विशेष : दृढ़ संकल्पी और वक्त के पाबंद थे लाल बहादुर शास्त्री

-मुकेश तिवारी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के मुगलसराय नामक स्थान पर सन1904 में हुआ था। बचपन में परिजन इन्हें नन्हे कह कर पुकारते थे। शास्त्री जी के पिता का नाम शारदा प्रसाद और माता का नाम राम दुलारी देवी था। शास्त्री जी के बाल्यकाल में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। अतः बचपन के उन सुनहरे दिनों से वंचित हो गए थे। जब खेलने खाने के स्थान पर उन्हें अभावो में जीवन गुजारने पर विवश होना पड़ा। यही वजह थी कि बचपन में ही कठिन परिस्थितियों से संघर्ष की ओर व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण कर लेने के पश्चात जीवन में उन्होंने संघर्ष से कभी मुंह नहीं मोड़ा।
इसका सकारात्मक प्रभाव शास्त्री जी के जीवन पर यह पड़ा कि उनके हृदय में दीन-हीन पिछड़े शोषित तथा उपेक्षित वर्ग के लोगों के लिए करुणा का भाव उमड़ पड़ा था। अभावों ने उन्हें संयमशील परिश्रमी कर्मशील स्वाभिमानी व स्वावलंबी बनाया जो मरते दम तक उनकी पूजी रही।
शास्त्री जी में ज्ञान प्राप्ति की इच्छा इतनी तीव्र थी कि उसके आगे अभाव रूपी बाधाएं बोनी पड़ जाती। पढ़ने की ललक और अभावों के मध्य जब अंतर्द्वंद्व छिड़ता तो अभाव ही सदैव पराजित होता। यह बात इस उदाहरण से स्पष्ट होती है कि जब शास्त्री जी के पास नाव चलाने वाले को देने के लिए पैसा नहीं होता तो वे रामनगर से गंगा नदी को तैर कर पार करके हरिश्चंद्र स्कूल पहुंचते। कहा जाता है होनहार बिरवान के होत चिकने पात यानी होनहार होने की प्रवृत्ति शुरू से ही दिखाई दे जाती है। शास्त्री जी अपनी सभी कक्षाओं में सदैव प्रथम स्थान प्राप्त करते थे। कुशाग्र बुद्धि के कारण पढ़ाई में वे सदैव अब्बल रहे। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि यदि किसी बात के लिए व्यक्ति दृढ़ संकल्प ले ले तो उसे अपने कार्य मे सफलता अवश्य मिलती है।
शास्त्री जी में स्वावलंबन की प्रवृत्ति बचपन से भरी हुई थी। वे बचपन से ही भोजन बनाने। कपड़े साफ करने से लेकर अपना सारा काम स्वयं ही करते थे। आगे चलकर स्वयं के सारे काम अपने हाथ से करना उनकी आदत बन गई थी। प्रधानमंत्री बनने पर भी कभी-कभी वह अपने कमरे की सफाई स्वयं ही कर लेते थे। उन्होंने किसी आवश्यक वस्तुओं की। अभिलाषा कभी नहीं रखी यह उनके व्यक्तित्व कि सबसे बड़ी खासियत थी। शास्त्री जी सदा आत्मसम्मान को बनाए रखने में विश्वास करते थे। पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण कर देने पर शास्त्री जी ने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया तथा किसानों को भी उनके बराबर का दर्जा दिया। जय जवान जय किसान का नारा देकर उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में दोनों को आवश्यक माना। शास्त्री जी सैनिकों को सतत खान-आपूति सुनिश्चित करने के लिए हफ्ते में स्वयं एक दिन ब्रत रखते थे। साथ ही उन्होंने समूचे देशवासियों से भी एक दिन का व्रत रखने की अपील की। इसका सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि पूरा देश उनसे सहमत होकर एक दिवसीय उपवास रखने लगा और इस तरह उपवास से बचा राशन सीमा पर जूझ रहे जवानों को उपलब्ध होता रहा इसका सकारात्मक प्रभाव शास्त्री जी के जीवन पर यह पड़ा कि उनके हृदय में दीन-हीन। पिछड़े। शोषित तथा उपेक्षित वर्ग के लोगों के लिए करुणा का भाव उमड़ पड़ा था। अभावों ने उन्हें संयमशील परिश्रमी कर्मशील स्वाभिमानी व स्वावलंबी बनाया जो मरते दम तक उनकी पूजी रही।
शास्त्री जी में ज्ञान प्राप्ति की इच्छा इतनी तीव्र थी कि उसके आगे अभाव रूपी बाधाएं बोनी पड़ जाती। पढ़ने की ललक और अभावों के मध्य जब अंतर्द्वंद्व छिडता तो अभाव ही सदैव पराजित होता। यह बात इससे यह बात स्पष्ट होती है कि यदि किसी बात के लिए व्यक्ति दृढ़ संकल्प ले ले तो उसे अपने कार्य में सफलता अवश्य मिलती है। शास्त्री जी का व्यक्तित्व गलत बातों को कभी भी स्वीकार नहीं कर सका। प्रायः ऐसा होता है कि हम दूसरों को तो नसीहत देते हैं परंतु स्वयं उस नसीहत का पालन नहीं करते। शास्त्री जी स्वयं कोई कार्य करके। तब दूसरों को नसीहत देते थे। उदाहरणार्थ घर के भीतर टहलते हुए वे पुस्तकों पेन पेंसिलरबर कपड़ों आदि को यथा स्थान रख देते थे । इससे उनका तात्पर्य मात्र इतना ही था कि घर के अन्य सदस्य यह सीख ले कि वस्तुओं को यथा स्थान पर रखना चाहिए। हकीकत में सदस्यों को कुछ कहने सुनने की अपेक्षा उनके ऊपर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता और वे मन ही मन यह दृढ़ निश्चय करते कि अब आगे से उन्हें वैसा करने का मौका नही देता।
ऐसे अनेक उदाहरण हैजो लाल बहादुर शास्त्री के स्व -प्रणेता होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं शास्त्री जी अपने वाक् चातुर्य से कर्म क्षेत्र में सदैव ही अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ने में सफल रहेउनकी खासियत यह थी कि वह प्रत्येक कार्य वक्त पर करते थे। शास्त्री जी अपने जीवन में नैतिक गुणों पर ज्यादा बल देते थे।कोई भी प्रलोभन उन्हें सही मार्ग से विचलित नहीं कर सका।इस शास्त्री जी का कहना था कि व्यक्ति कहीं भी रहें।कितना भी ऊंचा उठ जाए या नीचे गिरे। उसे अपने भीतर के सत्य को नही शास्त्री जी विनम्र व सहनशील व्यक्ति थे। यदि कोई उन्हें कठोर शब्दों में कुछ बोल देता था तो भी वे उस का तत्काल प्रतिकार नहीं करते थे। शास्त्री का खान-पान पूर्णतः शाकाहारी था। भोजन में उन्हें दाल रोटी सब्जी चावल पसंद थे। शास्त्री जी का जीवन सादगीपूर्ण था। उनके घर में सिर्फ वही वस्तुए थी। जो दैनिक जीवन के लिए जरूरी होती है। लालबहादुर शास्त्री के सादगीपूर्ण व्यक्तित्व को संजोने में जिन शख्सियतों का प्रभाव था। वे थे-महात्मा गांधी पुरुषोत्तम दास टंडन आचार्य नरेंद्रदेव डॉक्टर भगवान दास पंडित जवाहरलाल नेहरू इन्हीं के जीवन आदर्शों को शास्त्री जी अपना आदर्श समझकर आजीवन चलते रहे। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही पं अटल बिहारी वाजपेई ने यह टिप्पणी की थी— यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि वैचारिक मतभेद कभी भी चारित्रिक उज्जवलता को कलुषित नहीं कर सकते। शास्त्री जी से मेरा यद्यपि वैचारिक मतभेद था ।परंतु उनकी चारित्रिक उज्जवलता का शुभ स्वरूप मुझे आलोकित करता रहा है।
शास्त्री जी बचपन से स्वावलंबी एवं स्वाभिमानी प्रवृति के थे। वे बचपन से ही भोजन बनाने से लेकर कपड़े धोने आदि कार्य स्वयं किया करते थे। परमपिता परमेश्वर ने जब दो हाथ-दो पैर सही सलामत दिए हैं। तब दूसरों को कष्ट क्यों दिया जाए। शास्त्री जी ने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत कर्म की उपासना की। उन्होंने किसी आवश्यक वस्तुओं की अभिलाषा कभी नहीं रखी यह उनके व्यक्तित्व पति सबसे बड़ी खासियत थी। शास्त्री जी सदा आत्मसम्मान को बनाए रखने में विश्वास करते थे। पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण कर देने पर शास्त्री जी ने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया तथा किसानों को भी उनके बराबर का दर्जा दिया। जय जवान जय किसान का नारा देकर उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में दोनों को आवश्यक माना। शास्त्री जी सैनिकों को निरंतर खा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए हफ्ते स्वयं एक दिन उपवास रखते थे। साथ ही उन्होंने समूचे हिंदुस्तान वासियों से भी एक दिन उपवास रखने की अपील की। इसका सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि समूचा हिंदुस्तान इससे सहमत होकर सप्ताह में एक दिन व्रत रखने लगा । इस तरह उपवास से बचा राशन सीमा पर जूझ रहे जवानों को उपलब्ध होता रहा। इस काम से दो फायदे हुए। एक तो यह कि देश ने अमेरिका सहित किसी भी पश्चिमी देश के सामने भोजन की याचना नहीं कि एवं इससे हमारे आत्मसम्मान की भी रक्षा हो सकी।
दूसरे हम विदेशी कर्ज से भी बचे रहें ऐसा नहीं है कि लाल बहादुर शास्त्री केवल हिंदुस्तान के आत्मसम्मान की रक्षा करते थे उन्होंने अपने जीवन में भी इसका पालन किया। वह अपनी जरूरतें स्वयं पूरा करते थे। स्वयं शास्त्री जी के शब्दों में मैं अपनी आवश्यकताएं उतनी ही रखता हूं जितनी आवश्यक होती है। लाल बहादुर शास्त्री जी अनुकूल तथा विपरीत। दोनों ही परिस्थितियों में समान रहते थे। शास्त्री जी सच्चे भारतीय थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी उन्होंने देश के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं किया। चाहे वह पाकिस्तान से युद्ध के पश्चात ताशकंद समझौते की बात रही हो अथवा खाद्यान्न मंगाने के लिए विदेशों से कर्ज लेने की बात। यह भावना उनकी दिनचर्या में भी देखने को मिलती थी लाल बहादुर शास्त्री ने विश्व समुदाय में भारत की एक प्रथक पहचान बनाई। उन्होंने दो गुटों अमेरिका व सोवियत संघ से प्रथक गुट बनाकर इससे सहमत होने वाले देशों को मिलाया और गुट निरपेक्ष देशों की अगुआई करके विश्व समुदाय में अपनी पृथक पहचान बनाई। यह सब शास्त्री जी की दूरदर्शी सोच के कारण ही संभव हो सका था। लाल बहादुर शास्त्री जैसा प्रधानमंत्री भारत को शायद ही कभी मिले उनके निधन के पश्चात जब उनके बैंक अकाउंट को देखा गया तो उसमें सिर्फ 365 रुपए 35 पैसे ही जमा थे। शास्त्री जी को 1966 में भारत के सबसे बड़े सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया था।

 

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