राजनैतिकशिक्षा

विस्तारवादी नीति चीन को ले डुबेगी….?

-ओमप्रकाश मेहता=

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

हमारे भारत की एक पुरानी कहावत है कि ‘‘पड़ौसी से अच्छा हितैषी नहीं और पड़ौसी से बुरा दुश्मन नहीं’’ और इस पुरातन कहावत के दूसरे भाग से हम काफी पीड़ित है जी हाँ…. मेरा तात्पर्य हमारे देश के पड़ौसी देशों से है क्या करें….? हमारे भाग्य में पड़ौसी का सुख लिखा ही नहीं है हमारे उत्तरीय पड़ौसी पाकिस्तान और चीन अपनी भारत विरोधी करनी से बाज नहीं आ रहे है तो हमारे देश के पौराणिक इतिहास से जुड़ा श्रीलंका भी इन दिनों ऐसा लगता है कि फिर से रावण के कब्जे में है जो हमारे दुश्मनों को अपने देश में स्थाई पनाह दे रहा है कभी हमारे दुश्मन देश वहां बंदरगाह बना लेते है तो कभी हवाई अड़डा और इनके बनाने का एकमात्र उद्धेश्य हम पर नजर रखना है अब ऐसे हालातों में क्या कहा जाए? पाक तो हमारा ही पैदा किया हुआ देश है जो आधुनिक बेटे की तरह बाप से बगावत पर उतारू है और चीन उसका संरक्षक है।

जो परम्परागत रूप से हमारी आजादी के बाद से ही हमारा दुश्मन बना हुआ है चीन की नजर हमारी उत्तरी भू-भाग पर है तो पाकिस्तान की नजर हमारी सेना पर। यदि यह इस मूल समस्या पर विचार के पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या पर विचार करें तो चीन व पाकिस्तान सोवियत रूस के समर्थक है तो हम अपने आज को अमेरिका के निकट पाते है स्वयं अमेरिका की भी हमसे ज्यादा रूचि है तभी तो मौजूदा हालातों को लेकर बुधवार को उसने हमारे पक्ष में बयान जारी किया यद्यपि सोवियत रूस से भी हमारी कोई दुश्मनी नहीं है किंतु उसकी दिलचस्पी चीन व पाकिस्तान से सम्बंध बनाए रखने में ज्यादा है और वह हमे अमेरिका समर्थक मानकर हमारी उपेक्षा करता रहा है।

यदि हम एक क्षण के लिए यह सोचें कि चीन और भारत के बीच युद्ध की स्थिति बनती है जैसी कि संभावना प्रतीत हो रही है तब रूस चीन की मद्द में उतरेगा उसके साथ पाकिस्तान भी होगा और हमारे साथ अमेरिका होगा। तब क्या इन दोनों महान शक्तियों के बीच टकराव की संभावना नहीं बढ़ा जाएगी? और तब फिर विश्व युद्ध की संभावना भी बलवती नहीं हो जाएगी और तब बदनामी किसके सिर होगी केवल और केवल भारत के? यद्यपि ईश्वर से तो यही प्रार्थना है कि ऐसी स्थिति निर्मित नहीं हो किंतु यदि चीन ने भारत के साथ युद्ध करके 1962 को दोहराने का फैसला ले ही ले लिया है तो फिर हम याने भारत क्या कर सकता है? और तब भारत के सामने युद्ध के अलावा कौन-सा विकल्प शेष बचेगा? चीन की मौजूदा नियत तो यही दिखाई दे रही है।

यद्यपि हमारे देश के विश्व के अन्य देशों से हमारे काफी मधुर और मित्रवत सम्बंध है इसीलिए वर्तमान संदर्भ में चीन अलग-थलग खड़ा नजर आ रहा है चीन अपने चारों तरफ से घिर चुका है और पूरे विश्व की भावनाएं भारत के साथ है लेकिन यह भी सही है कि चीन आज से नहीं बल्कि पिछले सत्तर से भी अधिक सालों से हम पर बुरी नजर रखे हुए है भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने ‘‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’’ का नारा भी लगवाया किंतु उसका हश्र क्या हुआ हमारी पीठ पर वार हमें सहन करना पड़ा। जहां तक भारत व चीन के बीच करीब चार हजार किलोमीटर सीमा का विवाद है यह काफी पुराना है 1950 में अक्साई चीन पर विवाद से इसकी शुरूआत हुई थी।

पचास के दशक में ही चीन ने अक्साई चीन पर कब्जा किया था। 1957 में चीन ने इसी कब्जाए क्षेत्र में सड़क निर्माण शुरू किया ओर 1958 मंे इसे अपने नक्शें में शामिल कर लिया। इस पर दोनों देशों के बीच काफी लम्बा विवाद चला था जो दोनों देशों के बीच युद्ध की वजह भी बना मौजूदा तवांग की घटना उसी का एक हिस्सा है मतलब यह कि चीन की विस्तारवादी नीति कोई नई नही है करीब दो दर्जन से अधिक देशों के साथ उसका सीमा विवाद वर्षों से चला आ रहा है और वह अपनी ओछी हरकतों से कभी भी बाज नहीं आया आज वही वह भारत के साथ कर रहा है वह हमारे अरूणाचल सहित उत्तर-पूर्व के कई क्षेत्रों पर कब्जा जमाना चाहता है आज यही उसकी प्राथमिकता है।

इसी प्रकार कुल मिलाकर चीन तो अपनी करनी से बाज नही आ रहा है किंतु क्या सोवियत रूस तथा उसके सहयोगी अन्य देशों को इतनी अक्ल नहीं है कि वो चीन के खातिर भारत व उसके असंख्य हित चिंतक देशों से पंगा ले रहे है। भारत की नीतियां अतीत से ही शांतिप्रिय रही है और इसीलिए नेहरू जी पंचशील सिद्धांतों को लागू भी किया था किंतु अब समय के साथ स्थितियों सहित सब कुछ बदल रहा है और भारत अपने आपको सात दशक पहले के स्थान पर खड़ा पा रहा है अब यह सब मौजूदा शासकों पर निर्भर है कि वे विश्व में भारत को किस स्थान पर रखना चाहते है?

 

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