राजनैतिकशिक्षा

फ्री की राजनीति

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

देश में फ्री बांटने की राजनीति के दुष्प्रभाव पर एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चिंता जताई है। बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का लोकार्पण करने के बाद पीएम मोदी ने तंज कसते हुए कहा कि देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। इससे देश के लोगों को बहुत सावधान रहना है। पीएम मोदी ने कहा कि हम कोई भी फैसला लें, निर्णय लें, नीति बनाएं, इसके पीछे सबसे बड़ी सोच यही होनी चाहिए कि इससे देश का विकास और तेज होगा। आर्थिक विकास की नीतियां तब अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं जब उनमें राजनीतिक सोच और उसके फायदे हावी हो जाते हैं। मुफ्त बांटने की राजनीति का अर्थ भी यही है। वैसे तो राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। दूरगामी आर्थिक विकास की सोच इस पक्ष में नहीं है। कई राज्यों में यह भी देखने को मिल रहा है कि कर संग्रह बढ़ाने के मकसद से शराब की बिक्री पर अधिक जोर दिया जा रहा है, क्योंकि आय बढ़ाने के अन्य स्रोत वर्तमान में उनके पास नहीं हैं। लोकलुभावन आर्थिक विकास की इस सोच ने क्या समाज को विनाशकारी राह पर नहीं मोड़ दिया है? पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक विकास के मोर्चे पर एक नई राजनीतिक सोच पैदा हुई है। अब लोकलुभावन विकास को जन कल्याणकारी योजनाओं द्वारा हर सत्तापक्ष भुनाना चाहता है, जिसका वास्तविक आधार कुछ वस्तुओं और सेवाओं को ‘मुफ्त बांटना’ हो गया है। मुफ्त बांटने की यह राजनीतिक सोच आर्थिक बदहाली को आमंत्रण दे रही है। यह चिंता आरबीआई द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट में भी जाहिर है। वर्तमान परिदृश्य में दस राज्यों की आर्थिक स्थिति डावांडोल है, क्योंकि उनका वित्तीय कर्ज और राज्य के जीडीपी का अनुपात बहुत अधिक बढ़ रहा है। इन सबमें पंजाब की स्थिति विकट है। यह लोकलुभावन कदम इसलिए गलत है, क्योंकि इससे आर्थिक नीतियां बुरी तरह प्रभावित होती हैं। इसके विपरीत आज जरूरत है कि सभी राज्य अपने यहां डिजिटल तकनीक और सामाजिक सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को तेजी से विकसित करें तथा आर्थिक नीतियों को रोजगारोन्मुख बनाने को सर्वोपरि रखें। मुफ्त बांटने की इन योजनाओं के चलते राज्यों के पूंजीगत खर्च लगातार कम होते जा रहे हैं, जिसके कारण नई संपदा का विकास नहीं हो रहा और आय नहीं बढ़ रही है। यह सोच भविष्य के बहुत बड़ा आर्थिक संकट का द्वार है। आंकड़ों के मुताबिक राज्यों द्वारा दी जाने वाली विभिन्न सब्सिडी पर कुल खर्च वित्त वर्ष 2021-22 में 11.2 प्रतिशत से बढ़ा है। पिछले तीन वर्षों में इस पक्ष पर झारखंड, केरल, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश मुख्य रहे हैं। रिपोर्ट में प्रस्तुत एक बात और चिंता का सबब है कि पिछले कुछ वर्षों से राज्यों के संदिग्ध दायित्वों का आर्थिक बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसके अंतर्गत विभिन्न राज्य सरकारी निकाय वित्तीय कर्ज ले रहे हैं, जिनकी गारंटी राज्य सरकारें दे रही हैं। क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2021-22 के अंतर्गत राज्यों के संदिग्ध आर्थिक दायित्व जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के बराबर हो गए हैं। इन सब में मुख्य भूमिका राज्यों के विद्युत विभाग की है, जिनके हिस्से में चालीस प्रतिशत का दायित्व आ रहा है। अन्यों के अंतर्गत सिंचाई, बुनियादी ढांचे का विकास, भोजन और पानी की आपूर्ति के क्षेत्र मुख्य हैं। कुछ राज्यों का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। मतलब स्पष्ट है कि राज्यों की कमाई और ख़र्च के बीच में अंतर लगातार गहरा रहा है। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश, बिहार, राजस्थान और पंजाब में राजकोषीय घाटा वर्ष 2020-21 में 15वें वित्त आयोग द्वारा निश्चित किए गए स्तर से ऊपर था। दूसरी तरफ इन राज्यों के स्वयं के कर संग्रहण में भी लगातार कमी हो रही है, जो कि चिंताजनक है। आरबीआई की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार इन दस राज्यों के अंतर्गत बिहार की हालत बहुत चिंताजनक है, क्योंकि इसका खुद का कर संग्रह पिछले पांच वर्षों में कुल कर संग्रह का मात्र 23.5 प्रतिशत है, जबकि केंद्र पर इसकी निर्भरता करीब 75 प्रतिशत है। अब लगातार विपरीत होती जा रही कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति को तुरंत संभालना होगा। पड़ोसी मुल्क श्रीलंका इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि किस तरह विदेशी कर्ज ने उसे बर्बाद किया। भारत की अर्थव्यवस्था आज वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान रखती है, परंतु राज्यों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति विदेशी निवेशकों के लिए एक घबराहट का सूचक बनती जा रही है। इसे तुरंत रोकना होगा, वरना इस संकट के प्रभाव मुल्क की आर्थिक स्थिति पर भी जल्द ही दिखने लग जाएंगे।

 

 

 

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