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नालंदा विश्वविद्यालय हमारा गौरव

-डा. वरिंदर भाटिया-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

बिहार के नालंदा जिला में स्थित कभी ज्ञान का अंतरराष्ट्रीय केंद्र रहा नालंदा विश्वविद्यालय इन दिनों अपने स्वरूप को लेकर चर्चा में है। इस विश्वविद्यालय की नई इमारतों की तस्वीर खूब देखी जा रही है। वहां के सीएम नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभालने के बाद पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ मिलकर नालंदा विश्वविद्यालय को जीवित करने का प्रयास किया है। नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का पहला विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त काल के दौरान पांचवीं सदी में हुई थी, लेकिन सन् 1193 में आक्रमण के बाद इसे नष्ट कर दिया गया। इतिहास बताता है कि जब वर्षों पहले शासक बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर खाक कर दिया था, तब लोगों ने ख्वाबों में भी नहीं सोचा था कि यह अपने खोए अस्तित्व को वापस ला पाएगा। अब नालंदा विश्वविद्यालय बेहद ही सुंदर और भव्य तरीके से बनाया गया है। नालंदा विश्वविद्यालय के मेन गेट से अंदर आते ही कैंपस के खूबसूरत नजारे से आपकी मुलाकात होगी। सड़क के दोनों ओर आती खुशबू और सामने पहाडि़यों का नजारा आपका मन मोह लेगा। साल 2007 के पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में इस विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के फैसले को समर्थन मिला था। नालंदा विश्वविद्यालय नए शैक्षणिक कार्यक्रम और पाठ्यक्रम, स्कूल और केंद्र, अल्पकालिक कार्यक्रम, छात्रों की छात्रवृत्ति, स्वास्थ्य केंद्र, बुनियादी ढांचा विकास, नीतिगत पहल, आंतरिक और बाहरी लेखा परीक्षा प्रणाली, दो सौ से अधिक संरचनाओं के साथ एक पूर्ण नेट शून्य स्थायी परिसर के साथ लगातार प्रगति के ग्राफ पर बढ़ता जा रहा है। यह विश्वविद्यालय एक बार फिर से विश्व स्तर पर अपनी दावेदारी पेश कर सकता है। अतीत में यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। यहां उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुंदर मूर्तियां स्थापित थीं। यहां से विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। पुरातन काल में नालंदा विश्वविद्यालय विश्व-विख्यात हो चुका था। तब यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग और धर्मकीर्ति की रचनाओं पर विचार-मंथन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य पढ़ाए जाते थे।

व्याकरण, दर्शन, शल्य, ज्योतिष, योग और चिकित्सा भी पाठ्यक्रम का हिस्सा थे। यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10000 एवं अध्यापकों की संख्या 2000 थी। सातवीं सदी में जब ह्वेनसांन आया था, उस समय 10000 विद्यार्थी और 1510 आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी। अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुंदर मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चैकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।

कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था। यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाए जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अंतर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक कांसे की मूर्तियों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें 3 लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह रत्नरंजक, रत्नोदधि, रत्नसागर नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। रत्नोदधि पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियां चीनी यात्री अपने साथ ले गए थे।

यहां छात्रों के रहने के लिए 300 कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र, औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गांव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था। 13वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इस पर पहला आघात हूण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहां संस्कृति व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है। ह्वेनसांग ने लिखा कि सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुत्थान भारत के उच्च शिक्षा जगत के लिए एक शानदार उपलब्धि है। हमें इसके आगे भी कई और राष्ट्रीय गौरव गाथाएं लिखनी हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति के दुश्मनों ने तहस-नहस कर दिया था।

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